उदयपुर में धर्मोपदेश तथा महाराणा सज्जनसिंह को शास्त्राभ्यास
महाराणा सज्जनसिंह की स्वामीजी से प्रथम भेंट तो नवंबर 1881 में चित्तौड़ में ही हो गयी थी। उस समय ही मेवाड़ नरेश के हृदय में स्वामीजी के प्रति आदर और भक्ति के भावों का बीजारोपण हो गया था, तथा उन्होंने स्वामीजी से राजधानी उदयपुर आने का अनुरोध भी किया था। इसे क्रियान्वित करने का अवसर अब आया। महाराणा ने चित्तौड़ के हाकिम को स्वामीजी को उदयपुर पहुंचाने का आदेश दिया। तदनुसार 11 अगस्त को वे राजधानी पहुंचे और नवलखा बाग में उन्हें ठहराया गया।
महाराणा नित्य प्रात: सायं स्वामी के उपदेश सुनने नवलखा प्रासाद में आते। उनसे योग, न्याय तथा वैशेषिक दर्शन के कुछ भाग पढ़े तथा मनुस्मृति के राजनीतिक विषयक अध्यायों का भी अध्ययन किया। शास्त्रों का अध्ययन आरंभ करने से पहले महाराणा को संस्कृत व्याकरण का साधारण ज्ञान भी कराया गया। महाभारत के ‘वन पर्व’ के कुछ अध्याय भी स्वामीजी ने उन्हें पढ़ाये। इस प्र्रकार सात मास की अवधि में महाराणाजी ने शास्त्रों का अच्छा अभ्यास कर लिया। स्वामीजी ने अपने एक पत्र (4 मार्च 1883) में यह संकेत किया है कि-महाराणा उदयपुर में उनके निकट रहकर नित्य तीन चार घंटे तक अध्ययन करते थे। छह दर्शनों का मुख्य प्रतिपाद्य मनुस्मृति के राजधर्म प्रतिपादक तीन अध्याय तथा महाभारतान्तर्गत विदुर नीति आदि ग्रन्थ उन्होंने पढ़े थे।
स्वामीजी ने महाराणा को उपासना की विधि भी सिखलाई तथा दिनचर्या लिखकर दी जिसका आचरण वे करने लगे। राजाओं में जो व्यसन, दुव्र्यसन तथा चरित्रगत दोष आ जाते थे उन्हें दूर करने की शिक्षा भी स्वामीजी ने दी और बहुविवाह की हानियों से उन्हें अवगत कराया। स्वामी के उपदेशों का जैसा अनुकरण महाराणा सज्जनसिंह ने किया, उसका उल्लेख करते हुए स्वामी ने पत्र में लिखा-”महाराणाजी ने केवल श्रवण मात्र से ही सत्संग नहीं किया अपितु उपदेशों पर आचरण भी किया। अपनी दिनचर्या को ठीक किया, वेश्यानृत्य बंद करवाया। उन्होंने महाराणा के सुशील, शीलवान तथा सभ्य होने का भी उल्लेख किया। महाराणा के सरदारों तथा दरबारियों ने भी स्वामी जी के उपदेशों का भरपूर लाभ उठाया।”
स्वामीजी की प्रेरणा से नीलकण्ठ महादेव के मंदिर के निकट एक महायज्ञ रचाया गया। चारों वेदों के पंडित बुलाये गये जो वेदपाठ करते थे। होता, अध्वर्यु, उद्गाता और ब्रह्मा-चतुर्विध ऋत्विकों को नियुक्त किया गया। वसंत पंचमी के दिन महाराणाजी भी यज्ञ में आए तथा पूर्णाहुति डाली। स्वामीजी की प्रेरणा से राजमहलों में नित्य यज्ञ की व्यवस्था की गयी तथा हवन के बाद तांबे के कुण्ड को सारे महलों में फिराया जाता था ताकि वायु शुद्घ हो सके। स्वामीजी के उपदेशों से महाराणा ने राज्य के शासन में भी अनेक प्रकार के सुधार किये। राज्य में हिंदी का प्रचार बढ़ा। पाठशालाओं में शास्त्रों की शिक्षा का प्रबंध हुआ। महाराणा ने एक दिन स्वामीजी के समक्ष प्रस्ताव रखा कि उनके द्वारा लिखे जाने वाले वेदभाष्य के मुद्रण में सहायता मिलने का एक उपाय यह है कि मेवाड़ के आराध्य देव एकलिंग महादेव के मन्दिर में महन्त का पद स्वीकार कर लें तो इस जागीर की सारी आय इन्हें मिलती रहेगी तथा वे इसका उपयोग वेदादि शास्त्रों के प्रचार में लगा सकेंगे। स्वामीजी पर इसकी जो प्रतिक्रिया होनी थी, वही हुई। उन्होंने महाराणा को स्पष्ट कह दिया कि ईश्वराज्ञा का उल्लंघन करना उनके लिए कदापि सम्भव नहीं है। वे मूर्तिपूजा से कभी समझौता नही करेंगे। महाराणा ने भी यह कहकर बात समाप्त कर दी कि वे तो केवल परीक्षा की दृष्टि से ही यह बात कह रहे थे, अन्यथा वे उनकी वैचारिक दृढ़ता के प्रति पूर्ण आश्वस्त है।
स्वामीजी ने उदयपुर में अपना स्वीकार पत्र लिखा तथा मेवाड़ की कचहरी में उसका पंजीकरण करवाया। उन्होंने ‘परोपकारिणी सभा’ का गठन कर अपने सारे अधिकार इस सभा को दे दिये। वेदप्रचारार्थ एक निधि भी बनाई। पं. मोहनलाल विष्णुलाल पंडया के अनुसार महाराणा ने स्वामी जी के उपदेशानुसार अपना जीवन सुधार लिया था। यह खेद का विषय रहा कि स्वामीजी की मृत्यु के एक वर्ष दो मास बाद महाराणा सज्जनसिंह का भी निधन हो गया और वे स्वामीजी की शिक्षाओं को पूर्ण रूप से कार्यान्वित नहीं कर सके।
जब स्वामी ने उदयपुर से विदाई ली तो महाराणा ने एक अभिनन्दनपत्र उनको भेंट किया। फीरोजपुर के अनाथालय के लिए 600 रूपये दिये तथा वेदभाष्य फण्ड में भी दो हजार रूपये भेंट किये। विदाई के समय महाराणा ने भाव-विभोर होकर कहा कि यद्यपि उनके उदयपुर निवास से उनकी पूर्ण तृप्ति नहीं हुई है, किन्तु स्वामीजी की परोपकार वृत्ति को अनुभव कर वे उनके वियोग को सहन करेंगे। 1 मार्च को उदयपुर से चलकर चित्तौड़ होते हुए 9 मार्च को स्वामीजी शाहपुरा आये। यहां के राजा नाहरसिंह उनके दर्शनार्थ उपस्थित हुए और दो घंटे तक धर्मचर्चा करते रहे। इस प्रकार वे नियमपूर्वक स्वामीजी की सेवा में आते और मध्यान्ह 3 बजे से रात के 9 बजे तक उनके निकट रहते। इस बीच वे महाराज के उपदेश भी सुनते और शास्त्रों का अध्ययन भी करते। शाहपुराधीश को भी स्वामी जी ने मनुस्मृति, योगदर्शन तथा वैशेषिक शास्त्र का कुछ अंश पढ़ाया। उन्होंने उनसे प्राणायाम की विधि भी सीखी। शाहपुरा में स्वामीजी ने एक ईश्वरानन्द को संन्यास की दीक्षा दी और आगे अध्ययन के लिए प्रयाग भेजा। शाहपुराधीश ने स्वामीजी के सत्संग का लाभ निज की उन्नति तथा अपने राज्य के हित में प्राप्त किया। यहां उनका निवास 26 मार्च तक रहा। इसी बीच जोधपुर के महाराजा ने उन्हें अपने राज्य में आने के लिए निमंत्रित किया और पत्र देकर दो कर्मचारियों को शाहपुरा भेजा। विदाई के समय शाहपुरा नरेश ने 250 रूपये वेदभाष्य निधि में दिये तथा एक उपदेशक स्थायी रूप से वेद प्रचार के लिए नियत करने हेतु 30 रूपये मासिक देने का वचन दिया। जब स्वामीजी की प्रस्थानवेला निकट आई तो उन्हें एक धन्यवाद पत्र भी अर्पित किया। जिसमें लिखा था कि आपके उपदेशों से मेरी आत्मा अभी तृप्त नहीं हुई है परंतु महाराजा जोधपुर आपके दर्शनों की इच्छा रखते हैं और आपके द्वारा भी करोड़ों लोगों को लाभ पहुंचाना अभीष्ट है, अत: मैं आपसे यहां अधिक समय तक रूकने का आग्रह नहीं करता, तथापि आशा है पुन: पधारकर हमें कृतार्थ करेंगे।
प्रस्तुति : आई. डी. यादव