बोरवेल में मरते मासूम
आशीष वशिष्ठ
मध्य प्रदेश के बैतूल में बोरवेल के गड्ढे में गिरे 8 साल के तन्मय को 80 घंटे चले रेस्क्यू आपरेशन के बावजूद बचाया नहीं जा सका। बीती 6 दिसबंर की शाम को तन्मय 400 फीट गहरे बोरवेल के गड्ढे में गिर गया था। सुप्रीम कोर्ट की गाइडलाइन के बावजूद भी देशभर बच्चे लगातार बोरवेल में गिर रहे हैं। प्रशासन और लोगों की लापरवाही की वजह से बच्चे मौत में मुंह में समा रहे हैं। बड़ा सवाल यह है कि देश में ट्यूबवेल और बोरवेल के गड्ढे आखिर कब तक खुले छोड़े जाते रहेंगे और कब तब इसमें मासूम फंसते रहेंगे। हादसे आखिर कब तक होते रहेंगे? इसका जवाब कोई देना नहीं चाहता है।
बैतूल के इस हादसे ने 2006 की उस घटना को ताजा कर दिया है जब हरियाणा के कुरूक्षेत्र जिले के एक गांव में चार साल का प्रिंस एक 60 फीट गहरी बोरवेल में जा गिरा था। उस समय भारतीय सेना ने आगे आकर रेस्क्यू का जिम्मा संभाला था और 50 घंटे बाद प्रिंस का सफल रेस्क्यू किया गया। प्रिंस की तो ऐसी किस्मत रही कि वो पचास घंटे फंसे रहने के बाद भी जिंदा बाहर निकाल लिया गया। लेकिन बैतूल के तन्मय के साथ ऐसा नहीं हो पाया। प्रिंस के रेस्क्यू ऑपरेशन के दृश्य टीवी चैनलों पर लाइव दिखाये जाने के बाद देश—दुनिया का ध्यान ऐसी घटनाओं की ओर गया था। और उम्मीद जताई गई थी कि भविष्य में फिर कभी ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति नहीं होगी।
बोरवेल में गिरने पर बहुत ही कम बार ऐसा हुआ है कि किसी को जिंदा बचाया गया हो क्योंकि बोरवेल में ऑक्सीजन की कमी के चलते अंदर फंसे बच्चे का दम घुट जाता है वही बचाने की प्रक्रिया बेहद मुश्किल और लंबी चलने वाली होती है। ऐसा कोई आधिकारिक आंकड़ा उपलब्ध नहीं है, जिससे ऐसे हादसों में होने वाली मौतों की संख्या का सही-सही पता चल सके लेकिन जैसी हमारी व्यवस्थाएं हैं और जिस तरह का हमारा तंत्र है, उसके मद्देनजर यह अवश्य कहा जा सकता है कि बार-बार होते ऐसे हादसों पर आंसू बहाना ही हमारी नियति है।
जानकारी के अनुसार देश में तेजी से गिरते भू-जल स्तर के चलते टयूबेल को चालू रखने के लिए कई बार उन्हें एक जगह से दूसरी जगह शिफ्ट करना पड़ता है। और जिस जगह से टयूबेल को हटाया जाता है, वहां लापरवाही के चलते बोरवेल खुला छोड़ दिया जाता है। तमाम हादसों के बावजूद न तो आम आदमी में जागरूकता आई है और न ही प्रशासन को इस ओर ध्यान देने की फुर्सत है।
बोरवेलों में बच्चों के गिरने की बढ़ती घटनाओं के मद्देनजर सुप्रीम कोर्ट ने वर्ष 2010 में ऐसी हादसों पर संज्ञान लिया था और कुछ दिशा-निर्देश भी जारी किए थे। 2013 में सर्वोच्च अदालत ने बोरवेल से जुड़े कई दिशा-निर्देशों में सुधार करते हुए नए दिशा-निर्देश जारी किए थे। लेकिन नियमों की अवहेलना करना हमारी आदतों में शुमार हो गया है।
ऐसे हादसे बड़े ही दुखदाई होते हैं लेकिन उससे भी ज्यादा दुखदाई बात यह है कि हम जरा सी कोशिश उसे इन हादसों को टाल सकते हैं लेकिन फिर भी लापरवाही और मूर्खता के चलते थोड़ी भी सावधानी नहीं बरतते। जानकारों के अनुसार, बोरवेल की खुदाई से पहले खुदाई वाली जगह पर चेतावनी बोर्ड लगाया जाना और उसके खतरे के बारे में लोगों को सचेत किया जाना जरूरी है।। इसके अलावा ऐसी जगह को कंटीले तारों से घेरने और उसके आसपास कंक्रीट की दीवार खड़ी करने के अलावा गड्ढ़ों के मुंह को लोहे के ढ़क्कन से ढ़कना भी अनिवार्य है। लेकिन सरकारी अथवा गैर सरकारी संस्थाओं या व्यक्तियों द्वारा बिना सुरक्षा मानकों का पालन किए गड्ढ़े खोदना और खुदाई के बाद उन्हें खुला छोड़ देने का सिलसिला आज भी बदस्तूर जारी है।
हर घटना से सीखने की बात होती है पर घटना दर घटना होती रहती है और मासूम मौत के कुएं में गिरते रहते हैं। मौत के ऐसे गड्ढे कब भरे जायेंगे जिम्मेदार इसका जवाब नहीं दे पा रहा हैं। आखिर कब तक मासूमों की जिंदगी से खिलवाड़ होता रहेगा? (युवराज)
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