अहम् ब्रह्मास्मि:वेदविरूद्घ है
एकतत्त्ववाद बनाम त्रैतवाद
स्वामी दयानन्द एकेश्वरवाद को मानते हैं, जिसका अर्थ है कि ईश्वर एक है। वस्तुत: अनेकता की धारणा ईश्वर-विचार के विरूद्घ है। नव्य वेदांत की धारणा भी वेद में नहीं है। नव्य-वेदान्त का सिद्घान्त तो अनिर्वचनीय माया के वर्णन के बिना स्थापित ही नहीं होता। वेदों में माया शब्द का प्रयोग अविद्या अथवा ‘छल का कारण’ अर्थ में नहीं हुआ है। इस संबंध में डा. प्रभुदत्त शास्त्री द्वारा लिखित लघु पुस्तक ‘माया का सिद्घान्त’ पढऩे योग्य है। माया शब्द ऋग्वेद में 70 और अथर्ववेद में 27 बार आया है।
इन सभी स्थलों पर यास्क, सायण एवं दयानन्द तीनों में मतैक्य है कि माया का अर्थ प्रज्ञा या ‘ज्ञान विशेष’ है। भाष्यकार उव्वट ने यजुर्वेद के शब्द ‘आसुरीमाया’ का अर्थ ‘प्राण सम्बन्धिनी प्रज्ञा’ किया है जिसका अभिप्राय है ‘प्राण विषयक विद्या’ डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने ऋग्वेद के मंत्रों के सम्बन्ध में लिखा है कि माया शब्द जहां भी आया है, इसका अर्थ शक्ति या सामथ्र्य है।
वेद जगत की सत्ता में विश्वास करते हैं। डा. राधाकृणनन के अनुसार-ऋग्वेदीय मंत्रों में जगत की अवास्तविकता की धारणा का कोई आधार नहीं मिलता है। जगत कोई निष्प्रयोजन आभास नहीं अपितु ईश्वर का रूपान्तरित विस्तार है। परमात्मा और जीवात्माओं का संबंध वेद के निम्नांकित मंत्रों में समझाया गया है :-
(1) स नो बन्धुर्जनिता स विधाता धामानि वेद भुवनानि विश्वा।
यत्र देवाअमृतमानशानास्तृतीये धामन्नध्यैरयन्त।।
अर्थात जिस सांसारिक सुख-दु:ख से रहित, नित्यानन्दयुक्त मोक्षस्वरूप, धारण करने हारे परमात्मा में मोक्ष को प्राप्त होके विद्वान लोग स्वेच्छापूर्वक विचरते हैं, वही परमात्मा हमारा बन्धु, मित्र, जीवनदाता एवं धारणकत्र्ता है। वही सम्पूर्ण लोकमात्र एवं नाम स्थान-जन्मो को जानता है।
(2) स न: पितेव सूनवेअग्ने सूपायनो भव।
सचस्वा न: स्वस्तये।।
अर्थात हे प्रकाश स्वरूप परमात्मा! जैसे पुत्र के लिए पिता, वैसे आप हमारे लिए सरलता से प्राप्त होने योग्य होइए और हमारे कल्याण के लिए हमें आपके साथ युक्त कीजिए।
(3) अर्थान् व्यदधाच्छाश्वतीभ्य: समाभ्य:।
अर्थात ईश्वर ने अपनी शाश्वत प्रजाओं (जीवात्माओं) के लिए वेदज्ञान का प्रकाश किया।
(4) न तं विदाथ यअइमा जजानान्यद्युष्माकमन्तरं बभूव।
नीहारेण प्रावृता जलप्या चासुतृपअउक्थशासश्चरन्ति।।
अर्थात हे जीवो! जो परमात्मा इन सब भुवनों का बनाने वाला है, उसको तुम लोग नहीं जानते हो। तुममें और उसमें सदैव से भेद रहा है। तुम अत्यंत अविद्या से आवृत्त, दुष्कामी, नास्तिक और मिथ्यावादी भी हो।
उपर्युक्त मंत्र के ‘यद्युष्माकमन्तरं बभूव’ अंश पर स्वामी दयानन्द ‘आर्याभिविनय:’ के द्वितीय प्रकाश में क्रमांक-44 पर दिये गये उक्त मंत्र के भाष्य में लिखते हैं-”प्रश्न वह ब्रह्मा और हम जीवात्मा लोग, ये दोनों एक हैं वा नहीं? उत्तर-ब्रह्मा और जीव की एकता वेद और युक्ति से कभी सिद्घ नहीं हो सकती, क्योंकि जीव-ब्रह्मा का पूर्व से ही भेद है। जीव अविद्या आदि दोषयुक्त, ब्रह्मा अविद्या आदि दोषयुक्त नहीं है। इससे यह निश्चित है कि जीव और ब्रह्म एक न थे, न होंगे और न हैं। किंच व्याप्य-व्यापक, आधाराधेय, सेव्यसेवकादि सम्बन्ध तो जीव के साथ ब्रह्म का है। इससे जीव-ब्रह्म की एकता मानना किसी मनुष्य को योग्य नहीं।”
तीन तत्व अनादि हैं-ईश्वर, जीव और प्रकृति। स्वामी दयानन्द के लिए ब्रह्म, ईश्वर, परमेश्वर, परमात्मा आदि शब्द एक ही ईश्वर के वाचक अर्थात पर्यायवाची हैं। परम ब्रह्मा और नव्य वेदान्त द्वारा उससे हीनतर बताये गये ईश्वर में भेद नहीं है।
इस प्रकार स्पष्ट है कि जो लोग अहम ब्रह्मास्मि कहकर जीव और ब्रह्म की एकता मानते हैं-वे समाज में निरा अज्ञान परोसते हैं। ऐसी अवैदिक धारणाओं से और मान्यताओं से हमें बचना चाहिए और जो तर्कसंगत एवं सृष्टि नियमों के अनुकूल है उसे ही स्वीकार करना चाहिए।