जिस वर्ष आर्य समाज की स्थापना हुई उसी वर्ष 1875 में अमेरिका के न्यूयार्क नगर में कुछ लोगों ने आत्मचिंतन के लिए एक सभा बनाने का निश्चय किया और इसे थियोसोफिकल सोसाइटी का नाम दिया। दो मास के अंदर ही इस सभा के सभासदों में परस्पर विग्रह उत्पन्न हो गया, तब यह विचार हुआ कि इस सभा की कार्यवाही गोपनीय रखी जाए। 1877 तक इस सभा के कार्य में कोई प्रगति नहीं हुई। इसके संस्थापक कर्नल आल्काट और मैडम ब्लैवेट्स्की ही इसके सर्वेसर्वा थे। अब तक उन्हें आर्यसमाज की कोई जानकारी नहीं थी। 1877 में एक अमेरिकन यात्री, जो भारत से ही गया था, से कर्नल ने मूलजी ठाकरसी नामक एक गुजराती का पता पूछा जो अटलांटिक महासागर पार कर अमेरिका जाते समय उक्त अमेरिकन के साथ थे। उसने मूलजी का पता कर्नल आल्काट को बताया तो इन्होंने मूलजी को पत्र लिखकर उनसे अपनी सोसाइटी की चर्चा की। मूलजी ने इसके उत्तर में बम्बई आर्यसमाज के तत्कालीन प्रधान हरिश्चंद्र चिंतामणि की प्रशंसा की और यह भी लिखा कि आर्यसमाज के संस्थापक इस समय भारत में वेद विद्या का प्रचार कर रहे हैं। इस पत्र व्यवहार का परिणाम यह निकला कि हरिश्चंद्र चिंतामणि थियोसोफिकल सोसाइटी के सदस्य बन गये। इनके माध्यम से कर्नल साहब और स्वामीजी के बीच पत्र व्यवहार आरम्भ हुआ।
18 फरवरी 1878 के अपने पत्र में कर्नल ने विनयपूर्वक लिखा कि हमें ईसाई धर्ममिथ्या प्रतीत होता है। इसलिए हम आपकी शरण आते हैं, जैसे पुत्र पिता की शरण में आता है। हम प्रार्थना करते हैं कि आप गुरू की भांति हमारा मार्गदर्शन करें। पत्र में यह भी लिखा था कि अंग्रेज प्राच्य विद्याविद संस्कृत पुस्तकों का अनुवाद करने में कैसी-कैसी भूलें तथा पक्षपात करते हैं। पत्र लेखक ने स्वयं को स्वामीजी की शिक्षाओं को मानने वाला तथा उनकी आज्ञाओं को शिरोधार्य करने वाला बताया।
स्वामीजी ने इस पत्र का उत्तर 21 अप्रैल 1878 को एक संस्कृत पत्र में दिया, जिसका अनुवाद इस प्रकार है-
सकलोत्तम गुण वरिष्ठ, सनातनधर्माभिलाषी, एक अद्घितीय ईश्वर की उपासना के अनुयायी बंधु वर्ग आदि उपमा देकर स्वामीजी ने कर्नल, मैडम तथा उक्त सोसाइटी के सदस्यों को सम्बोधित कर आशीर्वाद दिया और लिखा-
”आपका पत्र पढक़र परम आनंद हुआ, धन्यवाद है उस सर्वशक्तिमान, सर्वत्र एकरस व्यापक, सच्चिदानंद, अनंत, अखण्ड, अजन्मा, निर्विकार, अविनाशी, न्यायकारी, दयालु, विज्ञान स्वरूपसृष्टि, स्थिति-प्रलय का विशेष नियत कारण और सत्य गुण कर्म स्वभाव, निभ्र्रम, अखिलविद्या युक्त, जगदीश्वर को जिसकी कृपा से 5 सहस्र वर्षों के अनंतर पाताल निवासी आप लोगों को हमारे साथ पत्र व्यवहार का समय प्रदान हुआ है। हमारी सम्मति कृश्चन मत विषयक आपसे मिलती है। जैसे ईश्वर की उपासना करनी और उसकी आज्ञा सर्वोपकार रूप माननी, सनातन वेद विद्या से प्रतिपादित और आप्त विद्वानों द्वारा आचरित, प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सिद्घ, सृष्टि क्रम के अनुकूल, अन्याय पक्षपात से रहित, धर्म से युक्त आत्मा से प्रीति करनी चाहिए। इससे विपरीत अन्य धर्म पाखंडियों के हैं। हम आपको यथायोग्य इस कार्य में सहायता देंगे और आपसे पत्र व्यवहार बड़ी प्रसन्नतापूर्वक करेंगे। आदि।”
दयानंद सरस्वती
पत्र यद्यपि संस्कृत में था परंतु यह सिद्घ नहीं होता कि इसका कोई त्रुटित अनुवाद कर्नल साहब को भेजा गया था। ऐसा जान पड़ता है कि इसके साथ आर्यसमाज के नियमों का अनुवाद भी भेजा गया था जो पंडित श्यामजी कृष्ण वर्मा ने किया था। इस पत्र से कर्नल और मैडम को स्वामीजी के ईश्वर विषयक विचारपूर्ण रूप से विदित हो गये थे। कर्नल के 29 मई 1878 के पत्र में इस 21 अप्रैल के पत्र का संदर्भ आया है। इस बीच कर्नल के पांच पत्र हरिश्चन्द्र चिंतामणि के पास भी आए। इनमें चार पत्र कर्नल के हस्ताक्षरों से और पांचवां सोसाइटी के कार्यालय सचिव अगस्टस गस्टम के हस्ताक्षर युक्त था। इन पत्रों का सार इस प्रकार है-
1. कर्नल के 21 मई 1878 के पत्र में इस प्रस्ताव को सर्वसम्मति से सहर्ष स्वीकार किया गया था कि न्यूयार्क की थियोसोफिकल सोसाइटी आर्यसमाज से मिला दी जाएगी तथा इसका नाम ‘थियोसोफिकल सोसाइटी ऑफ दि आर्यसमाज आफ आर्यावत्र्त’ होगा। सोसाइटी ने यह भी स्वीकार किया कि इसकी समस्त शाखाएं जो यूरोप तथा अमेरिका में है स्वामी दयानंद को अपना अधिष्ठाता मानेंगी।
2. अगस्टस गस्टम द्वारा (22 मई 1878 को) लिखे गये इस पत्र में उक्त पत्र में कथित प्रस्ताव के न्यूयार्क में स्वीकृत होने की सूचना है।
3. कर्नल ने 26 मई 1878 को पत्र लिखा और साथ ही स्वामीजी के हस्ताक्षरों के लिए प्रमाणपत्र डिप्लोमा की एक प्रति भेजी।
4. कर्नल ने 29 मई 1878 के पत्र में स्वामीजी का धन्यवाद किया और इस पर प्रसन्नता प्रकट की कि आर्यसमाज के सभासदों के साथ बंधुत्व भाव स्थापित होने से उन्हें अत्यन्त प्रसन्नता हुई है।
5. 30 मई के पत्र में यह लिखा गया था कि हम स्वामीजी के पत्र की प्रतीक्षा कर रहे हैं, जिससे हमारी सोसाइटी आर्यसमाज में मिलने का प्रस्ताव स्वीकार कर ले।
5 जून 1878 को एक पत्र कर्नल साहब ने स्वामीजी के नाम लिखा जिसका आशय निम्न था-
‘माननीय गुरूवर, ईश्वर के जो गुण और लक्षण आपने वर्णन किये हैं, उनको पढक़र हमें विदित हो गया है कि हमने अपने पूर्वज आर्यों की शिक्षा को गलत नहीं समझा। हम भी ईसाईयों को यही शिक्षा देते रहे हैं कि वही सर्वोपरि अनादि ईश्वर पूजनीय है जिसके समक्ष अपनी इच्छाओं को प्रकट करने की शिक्षा आप अपने अनुयायियों को देते हैं।
हमने अपने प्रस्ताव की एक प्रति भाई हरिश्चंद्र चिंतामणि को भेजी है। हम जानते हैं कि हम आर्य वंश की सन्तान हैं और हमें पूर्ण शिक्षा भी आर्यों से ही प्राप्त हुई है। हम आपके शिष्य कहलाने में स्वयं का अहोभाग्य समझेंगे। आप हमें आज्ञा दें कि हम आपको अपना गुरू, पिता तथा नेता कहें। हम वेद के दर्शन से नितांत अनभिज्ञ हैं, इसलिए आप हमें बतायें कि हम लोगों से क्या कहें? जो कुछ हमारे लिए कत्र्तव्य है, वह आप बतायें।’
पत्र के अंत में कर्नल अल्काट ने आर्य समाज के नियम, उपनियम तथा सभासद बनने की योग्यता पूछी तथा लिखा, आपके पत्र से ज्ञात होता है कि आप करामातों (बाइबिल में वर्णित चमत्कार) को झूठा तथा अधर्म मानते हैं। आप इन्हें अध्यात्म विद्या के अत्यंत तुच्छ प्रकार मानते हैं। इस पत्र से स्पष्ट विदित होता है कि कर्नल को स्वामीजी का 21 अप्रैल 1878 का पत्र मिल गया था क्योंकि अपने इस पत्र में उन्होंने स्वामीजी के पूर्वोक्त पत्र के विषयों का स्पष्ट उल्लेख किया है। स्वामीजी के मंतव्यों को भली भांति स्पष्ट किया जानकर भी कर्नल ने उन्हें IMPERSONAL त्रशस्र का मानने वाला समझा, यह उचित नहीं था।
इस पत्र का उत्तर स्वामीजी ने 26 जुलाई 1878 को दिया। स्वामीजी ने ईश्वर को उत्तमोत्तम विशेषणों से संबोधित किया और कहा कि सर्वशक्तिमान जगत के स्वामी सृष्टिकत्र्ता तथा सृष्टिपालक को अनेक धन्यवाद हैं, जिसकी कृपा से पाखण्ड मतों को दूर करने में आप प्रवृत्त हुए हैं और जिस परमात्मा ने वैदिक धर्म में प्रीति उत्पन्न करने के लिए हमें और आपको प्रेरित किया है।
साकार निराकार के विषय में स्वामीजी ने ‘वेदभाष्य भूमिका’ के इस प्रकरण का सार लिखकर भेज दिया। अंत में स्वामीजी ने लिखा है कि ‘आर्योद्देश्यरत्नमाला’ का अंग्रेजी अनुवाद कर आपके पास भेजने के लिए हमने श्रीयुत हरिश्चन्द्र चिंतामणि को लिख दिया है। उससे आपको हमारे सिद्घांतों का परिचय मिल जाएगा। अंत में स्वामीजी ने सच्चिदानंदादि लक्षणों वाले परमात्मा का कोटि-कोटि धन्यवाद किया जिसके अनुग्रह से यह पत्र व्यवहार आरंभ हुआ।
कर्नल आल्काट का कथन है कि हमने स्वामीजी के 21 अप्रैल 1878 के पत्र के उत्तर में उनके मंतव्य पर अपने 24 सितंबर के पत्र में शंका की थी। परंतु आप पढ़ चुके हैं कि 21 अप्रैल के पत्र के उत्तर में 5 जून का पत्र था। 24 सितंबर के पत्र के विषय में 1882 से पहले तक किसी को ज्ञान नहीं था। हां, जब आर्य समाज और इस सोसाइटी का परस्पर विवाद हुआ तो यह पत्र प्रकाशित किया गया। तब स्वामीजी ने कहा कि 24 सितंबर का कोई पत्र उन्हें नहीं मिला।
कर्नल आल्काट ने अपनी पुस्तक ‘ओल्ड डायरी लीव्ज’ के पृष्ठ 398 पर लिखा है-”स्वामीजी ने 21 अप्रैल के पत्र में जो मंतव्य प्रतिपादित किया है वह वेदभाष्य के समर्थन के लिए गये विचार से कुछ विपरीत है। उनका कहना है कि इस वक्तव्य में उन्होंने ईश्वर को IMPERSONAL कहा है। अर्थात वह कोई पुरूष नहीं बल्कि एक शक्ति है। हमारा निवेदन है कि कर्नल साहब का यह कथन निर्मूल है। स्वामीजी ने ईश्वर को कभी IMPERSONAL नहीं माना और स्वामी को भी इन लोगों के भारत आने केे पहले यह ज्ञात नहीं था कि ये दोनों लोग ईश्वर को नहीं मानते किंतु केवल एक IMPERSONAL शक्ति को मानते हैं।
जैसा कि हम लिख चुके हैं 17 दिसंबर 1878 को न्यूयार्क से चलकर लोग 29 अप्रैल 1879 को सहारनपुर में स्वामीजी से मिलने आये। इस भेंट के संबंध में कर्नल लिखते हैं कि स्वामीजी के भाषण के अनुवादक ने मुझको बताया कि स्वामीजी ईश्वर को वैसा ही मानते हैं जैसा वेदान्ती लोग मानते हैं। परंतु विश्वास नहीं होता कि अनुवादक ने ऐसा कहा होगा। स्वामीजी इन लोगों से मिलने के बहुत पहले ‘वेदान्तिध्वान्त निवारण’ पुस्तक लिख चुके थे जिसमें नवीन वेदांत का खण्डन था और अपने पत्रों द्वारा वे कर्नल साहब को ईश्वर विषयक अपने विचार भी बता चुके थे। उनकी इस पारस्परिक भेंट से दोनों पक्ष एक दूसरे के प्रति पूर्ण विश्वास भी प्रकट कर चुके थे। इसकी साक्षी स्वामी जी के 8 मई 1878 के उस पत्र से मिलती है जो आर्य समाज शाहजहांपुर के मंत्री को लिखा गया था। पत्र इस प्रकार था-
”मंत्री महाशय, बड़े आनंद का समाचार है कि कर्नल आल्काट जिनके पत्र न्यूयार्क से आते थे, हमको सहारनपुर में मिले। इनके मिलाप से विदित हुआ कि वे बड़े बुद्घिमान हैं। वहां समाज के मनुष्यों ने इनका बड़ा सत्कार किया, फिर वे मेरठ पधारे और वहां उनके पांच व्याख्यान हुए। इन व्याख्यानों से अमेरिका के साहब ने सबके चित्त को निश्चय करा दिया कि समस्त भलाई और विद्या वेदों से मिलती है और वेद विरूद्घ सब पाखण्ड मत है। पत्र के अंत में स्वामीजी ने लिखा कि सात दिन के वार्तालाप से हमको निश्चय हो गया है कि कर्नल साहब का तन, मन और धन सत्य के प्रकाश और असत्य के नाश के लिए है।
मेरठ के उपदेश से जो प्रभाव स्वामीजी के मन में पड़ा वह उनके 5 मई 1878 के पत्र से विदित होता है-‘कर्नल और मैडम का आचार व्यवहार आर्य समाजानुकूल है। ये लोग शुद्घान्त:करण प्रतीत होते हैं। इन्होंने वार्तालाप में प्रतिपादन किया कि पहले हम हर एक सम्प्रदाय के मनुष्य को अपनी सोसाइटी का सभासद बना लेते थे, परंतु अब आपकी आज्ञा के अनुसार जो आर्य समाज के नियमों को स्वीकार नहीं करेगा, वह उनकी सोसाइटी का सभासद नहीं बन सकेगा।’
1880 में कुछ गड़बड़ होने लगी। तब स्वामीजी ने एक विज्ञापन प्रकाशित किया जिसका सार यह था कि न तो आर्यसमाज थियोसोफिकल सोसाइटी की शाखा मानी जाए और न इस सोसाइटी को आर्यसमाज की शाखा समझा जाना चाहिए। यह विज्ञापन 26 जुलाई 1880 को निकला था। इसके अनंतर 10 दिसंबर 1880 को कर्नल और मैडम शिमला जाते हुए मेरठ में स्वामीजी से मिले। भारत में आने के दो वर्ष बाद इन लोगों ने अब ईश्वर विषयक अपने मंतव्य प्रकट किये और स्पष्ट कह दिया कि हम ईश्वर को नहीं मानते। दो वर्ष पूर्व ही स्वामीजी ने इन लोगों को इस विषय पर बातचीत करने के लिए कहा था, किंतु तब वे टालमटोल करते रहे। इससे स्वामीजी ने यह निष्कर्ष निकाला कि ये लोग अपनी नास्तिकता पर दृढ़ हंै। आर्य समाज ने ‘थियोसोफिस्टों की गोलमाल पोलपाल’ नामक एक टै्रक्ट छपवाकर कर्नल और मैडम की उक्त कार्यवाही को प्रकाशित कर दिया। अंतत: दोनों संस्थाओं का सम्बन्ध टूट गया। इस पुस्तिका में कर्नल और मैडम की चालाकी तथा कूटनीतिक चालों के खोलकर बताया गया है। पुन: 1882 में बम्बई आने और मैडम से वार्तालाप करने के बाद स्वामीजी ने स्पष्ट कर दिया कि इस सोसाइटी से संबंध रखने से आर्य समाजों को लाभ नहीं अपितु हानि ही होगी। ये लोग भयंकर नास्तिक, स्वार्थी तथा वाकचतुर हंै। इनकी पूर्वा पर विरोधी बातें विश्वास के योग्य नहीं हैं। अत: इनसे पृथक होना ही उचित है।
कर्नल आल्काट ने अपनी पुस्तक ‘ओल्ड डायरी लीव्ज’ में स्वामीजी के विषय में लिखा है-‘इसमें कुछ संदेह नहीं कि स्वामी दयानंद संस्कृत के महान विद्वान थे तथा अपने विश्वासों पर दृढ़ थे।’ थियोसोफिकल सोसाइटी तथा आर्यसमाज का संबंध टूट जाने पर भी कर्नल आल्काट ने थियोसोफिस्ट पत्र में एक नोट छापा था कि हमें इस बात का शोक है कि स्वामीजी जैसे महाविद्वान का भ्रम में पडक़र इससे क्रुद्घ हो जाना दुखद है। परंतु कोई इस बात से इनकार नहीं कर सकता कि वे आर्य सभ्यता के शुभाकांक्षी समर्थक तथा देश के सच्चे मित्र हैं। उनको हमारे सम्बन्ध की इतनी चिंता नहीं जितनी भारत की शुभाभिलाषा की है।
स्वामी दयानन्द और गौरक्षिणी सभा
कई वर्ष व्यतीत हुए कि पश्चिमोत्तर प्रदेश, बम्बई प्रांत और पंजाब में गौरक्षा के विषय में दंगे हुए थे। इन दंगों का मूल कारण ऐंग्लो इंडियन पत्रों ने स्वामीजी को ठहराया था। परंतु उनका यह विचार गलत है। कारण कि यदि भारत में किसी विषय पर एक मत है तो वह गौरक्षा है। 1857 में जो उपद्रव हुए उसके मूल में भी गौवधा एक कारण था ऐसा कई लोगों का मानना है। गौरक्षा में स्वामीजी की प्रबल आस्था थी और उन्होंने इस विषय को सदा युक्तिपूर्वक प्रस्तुत किया है तथा ‘गौरक्षिणी सभा’ स्थापित करने के लिए कहा। स्वामीजी आरंभ में सरकार से इसके लिए प्रार्थना करते रहे। अंत में ‘गौकरूणानिधि’ नामक पुस्तक लिखी और गौरक्षा के लिए एक प्रार्थना-पत्र तैयार करवाकर लाखों लोगों के उस पर हस्ताक्षर करवाए। स्वामीजी ही प्रथम पुरूष हैं जिन्होंने गौरक्षा के प्रश्न को धर्म की परिधि से निकालकर विस्तृत आधार पर स्थापित किया, तथा इसके आर्थिक पक्ष पर जोर दिया। मैडम ब्लैवेट्स्की ने लिखा है कि स्वामी दयानन्द की शिक्षा से अंग्रेजी सरकार को कोई भय नहीं है।