भारत के स्वाधीनता संग्राम की शांतिधारा और क्रान्तिधारा दो धाराओं का अक्सर उल्लेख किया जाता है। शांतिधारा से ही नरम दलीय और गरम दलीय दो विचारधाराओं का जन्म हुआ-जन्म हुआ-ऐसा भी माना जाता है। महर्षि दयानन्द सरस्वती जी महाराज इन दोनों ही विचारधाराओं के जनक होने से भारतीय स्वाधीनता संग्राम के किस प्रकार ‘प्रपितामह’ हो सकते हैं?-इस पर प्रकाश डालते हुए क्षितीश वेदालंकार जी ने बड़ा अच्छा लिखा है कि आज तक भी ऋषि की महानता को पूर्ण रूप से हृदयंगम नहीं किया गया है। हम यहां राजनैतिक क्षेत्र की ही चर्चा कर रहे हैं। हमारे स्वाधीनता संग्राम की दो धाराएं रही हैं-एक शान्ति धारा और दूसरी क्रांतिधारा। शांतिधारा के भी दो अंग रहे हैं-एक नरम और दूसरा गरम। यह नरम और गरम वाली शांतिधारा और क्रांतिकारियों वाली क्रांतिधारा, दोनों किस प्रकार ऋषि दयानंद के आशीर्वाद से और उनके चरणतल से प्रवाहित होती है-यह देखकर आश्चर्य होता है।
महात्मा गांधी हमारे राष्ट्रपिता हैं और शांतिधारा के सबसे समर्थ भगीरथ हैं। दादाभाई नौरोजी को ‘राष्ट्रपितामह’ कहा जाता है। पर इतिहास का बारीकी से अध्ययन करने पर पता लगता है कि दादाभाई नौरोजी यदि पितामह हैं तो ऋषि दयानन्द प्रपितामह हैं। क्योंकि राजनीति के क्षेत्र में ‘स्वराज्य’ है हमारा जन्मसिद्घ अधिकार है-इस नारे के सबसे प्रबल प्रचारक बेशक लोकमान्य तिलक रहे, पर तिलक से पहले ‘स्वराज्य’ शब्द का प्रयोग करने वाले दादाभाई नौरोजी थे। संभवत: आज के कांग्रेसी नेताओं को यह जानकर आश्चर्य होगा कि नौरोजी ने ‘स्वराज्य’ शब्द ‘सत्यार्थ प्रकाश’ से ग्रहण किया था। एक आर्यसमाजी विद्वान ने इस बात में शंका प्रकट की थी। परन्तु सन 1880 में सार्वभौम आर्य महासम्मेलन के अवसर पर लंदन जाने पर यह बात पुष्ट हुई कि शुरू-शुरू में श्यामजी कृष्ण वर्मा के निवास स्थान पर आर्यसमाज का सत्संग लगता था।
उस सत्संग में दादाभाई नौरोजी भी नियमपूर्वक जाया करते थे और आर्यसमाज की उपस्थिति पंजिका में नौरोजी के कई जगह हस्ताक्षर हैं। जो नौरोजी आर्यसमाज के सत्संग में जाते थे, वे ‘सत्यार्थ प्रकाश’ से अपरिचित रहे हों, यह संभव नहीं और जो ‘सत्यार्थ प्रकाश’ से परिचित हों, वह ‘स्वराज्य’ शब्द से अपरिचित रह जाए, यह संभव नहीं, इसलिए नौरोजी ने स्वराज्य शब्द ‘सत्यार्थ प्रकाश’ से लिया- यह सत्य है।
अब शांतिधारा की इस गरम दल की उपधारा का क्रम यों चला-दादाभाई नौरोजी, लोकमान्य तिलक, विपिनचन्द्र पाल, लाला लाजपतराय, सरदार अजीत सिंह, सरदार किशनसिंह, सरदार भगतसिंह आदि।
रही शांतिधारा की नरमदल वाली उपधारा। उसके जनक महादेव गोविन्द रानाडे माने जाते हैं, जो ऋषि दयानन्द के प्रथम शिष्यों में हैं। श्री रानाडे ने ही पूना में ऋषि दयानन्द को बुलाकर उनके 15 ऐतिहासिक व्याख्यान करवाये थे और उनको पुस्ताकार छपवाया था।
रानाडे के शिष्य थे-गोपालकृष्ण गोखले, गोखले के शिष्य महात्मा गांधी, महात्मा गांधी के साथी-सरदार पटेल, डा. राजेन्द्रप्रसाद और मोतीलाल नेहरू तथा गांधीजी के शिष्य-सम उत्तराधिकारी-पं. जवाहरलाल नेहरू, लालबहादुर शास्त्री और श्रीमती इंदिरा गांधी।
जहां तक क्रांतिधारा का सवाल है उसके लिए यह कहने की आवश्यकता नहीं कि उसके स्रोत भी ऋषि दयानंद हैं। ऋषि के पट्टशिष्य श्यामजी कृृष्ण वर्मा, उनके शिष्य-वीर सावरकर, भाई परमानंद, लाला हरदयाल, मदनलाल धींगड़ा, आदि। श्यामजी कृष्ण वर्मा क्रांतिकारियों के पिता कहे जा सकते हैं, तो ऋषि दयानन्द क्रांतिकारियों के पितामह।
इस प्रकार शांतिधारा और क्रांतिधारा-दोनों के जनक ऋषि दयानन्द हैं और यों भारत के स्वाधीनता संग्राम का सर्वप्रथम प्रवर्तक सर्वातिशायी व्यक्तित्व कोई है तो वह ऋषि दयानन्द का है। जब तक इन तथ्यों का समावेश नहीं होगा, तब तक स्वाधीनता संग्राम का कोई भी इतिहास अधूरा रहेगा। क्या अपनी प्रशस्तियों का काल पात्र गाडऩे वाले इन तथ्यों की चिंता करेंगे?