गीता का कर्मयोग और आज का विश्व, भाग-73
गीता का तेरहवां अध्याय और विश्व समाज
ब्रहमाण्ड का क्षेत्रज्ञ कौन है?
अब श्रीकृष्णजी कहते हैं कि अर्जुन! अब मैं तुझे यह बतलाऊं कि ‘ज्ञेय’ क्या है? अर्थात जानने योग्य क्या है? वह क्या है जिसे जान लेने पर अमृत की प्राप्ति की जाती है? इस ‘ज्ञेय’ के विषय में बताते हुए श्रीकृष्णजी कहते हैं कि वह परब्रह्म है, जिसके विषय में न यह कह सकते हैं कि वह सत् है और न यह कह सकते हैं कि वह असत् है।
यहां पर ब्रह्म की बात हो रही है। यह परब्रह्म ही इस ब्रह्माण्ड का ‘क्षेत्रज्ञ’ है। जैसे इस पिण्ड में जानने योग्य आत्मा है, वैसे ही इस ब्रह्माण्ड में ‘परब्रह्म’ जानने के योग्य है, ‘ज्ञेय’ है।
पारब्रह्म परमेश्वर ही होता मनुज का ज्ञेय।
अमृत मिलता भक्त को, पा जाता है ध्येय।।
इस पारब्रह्म परमेश्वर को जानना सर्वथा असम्भव है। अपना सर्वस्व दांव पर लगाकर भी उसे पाया नहीं जा सकता। पर फिर भी श्रीकृष्णजी ने उसके विषय में अपने शिष्य अर्जुन को कुछ बताना चाहा। वह कहने लगे कि वह दयालु ब्रह्म परमेश्वर सर्वत्र विद्यमान है। हर स्थान पर उसके हाथ हैं, पैर हैं, आंखें हैं, कान हैं, वह सबको लपेटकर खड़ा है।
परब्रह्म का मानवीयकरण करने का जिस प्रकार श्रीकृष्णजी ने यहां प्रयास किया है-उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि वह परब्रह्म परमेश्वर सर्वत्र विद्यमान होने से सर्वत्र ही उसकी इन्द्रियों की उपस्थिति माननी चाहिए। वह विश्वात्मा परमात्मा इस विश्व में सर्वत्र वैसे ही है जैसे पिण्ड में आत्मा सर्वत्र ही है। किसी कवि ने बहुत सुन्दर कहा है-
बेगानगी नहीं है बस इतनी दोस्ती है।
मैं उनको जानता हूं वो मुझको जानते हैं।।
उसकी (विश्वात्मा पर ब्रह्म) अपनी कोई इन्द्रिय नहीं है, फिर भी ऐसा लगता है कि उसमें सारी ही इन्द्रियां उपलब्ध हैं, विद्यमान हैं। कारण कि सम्पूर्ण चराचर जगत का सारा कार्य-व्यापार बड़े सुनियोजित ढंग से जिस प्रकार चल रहा है उसे देखकर हर कोई यही कहेगा कि इसके पीछे निश्चय ही कोई कारीगर है, कुशल शिल्पकार है, कोई व्यवस्थापक है। क्योंकि कारीगरी बिना करतार के , शिल्प बिना शिल्पकार के और व्यवस्था बिना किसी व्यवस्थापक के न तो बन सकती है और न दीख सकती है। पिछले अध्यायों में जब राजविद्या पर बताया जा रहा था तब भी श्रीकृष्णजी ने यही कहा था कि वह सब कुछ कर रहा है पर फिर भी दिखायी नहीं देता। करता हुआ भी ऐसे लगता है कि जैसे वह कुछ नहीं कर रहा। देखता हुआ भी ऐसे लगता है कि जैसे वह कुछ नहीं देख रहा। सुनता हुआ भी ऐसे लगता है कि जैसे वह कुछ नहीं सुन रहा।
उसके विषय में सबको रहस्य बना है, वही बात यहां भी कही जा रही है कि वह कोई इन्द्रिय नहीं रखता-पर फिर भी सब इन्द्रियों का आभास उसमें विद्यमान है। वह अनासक्त है, पर फिर भी एक आसक्त की भांति सबको संभाले हुए है, वह त्रिगुणातीत है-सत, रज, तम इन तीनों गुणों से परे है, पर फिर भी वह प्रकृति के गुणों का भोगने वाला है। ऐसे परब्रह्म को ही ‘क्षेत्रज्ञ’ मानना चाहिए। वह सबका स्वामी है। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का ‘क्षेत्रज्ञ’ होने से यह बात उसके विषय में निश्चय से कहीं जा सकती है।
वह ‘क्षेत्रज्ञ’ सर्वज्ञ होकर सर्वत्र बैठा है और हमारे कल्याण के लिए बैठा है। हर पदार्थ के भीतर छिपकर वह बैठा है, उसके बाहर भी वही है और भीतर भी वही है। तुलसीदासजी कहते हैं कि-
सकल पदारथ हैं जग माहिं।
कर्महीन नर पावत नाही।।
सकल पदार्थों को उसने रचा है, बनाया है, उनकी सृजना की है। अब प्रश्न यही है कि उस परमपिता परमेश्वर ने संसार के इन सकल पदार्थों की सृजना किसके लिए की है? इसका उत्तर यही है कि उस परमपिता परमेश्वर ने संसार के इन सभी पदार्थों की सृजना हमारे लिए की है, सभी जीवधारियों के लिए की है। अपने लिए तो नहीं की। हमारे लिए उन्हें रचकर भी उनके बाहर और भीतर बैठ गया है। किसी भी पदार्थ पर अपना अधिकार नहीं जमाता। ना ही उन्हें अपना कहकर उनके लिए लड़ता झगड़ता है।
युगों से मनुष्य संसार की बनायी वस्तुओं और पदार्थों को लेकर लड़- झगड़ रहा है पर वह ‘क्षेत्रज्ञ’ है कि कभी अपने पदार्थों के विनाश पर रोता नहीं देखा गया और ना ही किसी से कोई शिकायत करता देखा गया है कि मेरा इतना नाश हो गया और यह नाश भी अमुक व्यक्ति ने करा दिया है। वह चल भी है, अचल भी है, दूर भी है और पास भी है, वह सूक्ष्म है इसलिए अविज्ञेय है-जानकारी में नहीं आता।
वह दूध में घी बनकर छिपा है लकड़ी में आग बनकर छिपा है। पानी में विद्युत बनकर छिपा है। बादल में बिजली बनकर छिपा है। जैसे दूध में घी के लिए, लकड़ी में आग के लिए, पानी में विद्युत के लिए बादल में बिजली के लिए-कोई ये नहीं कह सकता कि इनमें ये है ही नहीं, वैसे ही ब्रह्माण्ड में उस ‘क्षेत्रज्ञ’ के लिए कोई ये नहीं कह सकता कि वह है ही नहीं। वह तो है, और ‘है’- इसीलिए वह ‘ज्ञेय’ है।
वह गतिमान न होते हुए भी गतिमान है। वह हर गतिमान में गति बनकर बैठा है, और स्वयं भी गति कर रहा है। सारा ब्रह्माण्ड घूम रहा है, सारे ग्रह-उपग्रह घूम रहे हैं-गति कर रहे हैं, इन सब गतिमानों में वह गति कर रहा है और गति बनकर ही इनमें बैठा स्वयं भी गति कर रहा है। इसीलिए विद्वानों ने कहा कि वह परमपिता परमेश्वर गतिमानों की गति है।
सत्यव्रत सिद्घान्तालंकर जी कहते हैं-”पृथ्वी सबसे ज्यादा स्थूल है उसे छुआ जा सकता है, सूंघा जा सकता है, चखा जा सकता है, देखा जा सकता है, सुना जा सकता है। जलपृथ्वी से सूक्ष्म है, इसे सूंघा नहीं जा सकता। अग्नि जल से सूक्ष्म है, इसे चखा नहीं जा सकता। वायु अग्नि से सूक्ष्म है, इसे देखा नहीं जा सकता। आकाश सबसे सूक्ष्म है, इसके विषय में तो कुछ भी नहीं कहा जा सकता। परब्रह्म जो आकाश से भी सूक्ष्म है-उसे कैसे देखा जा सकता है।”
श्रीकृष्णजी कह रहे हैं कि वह परब्रह्म परमात्मा स्वयं अखण्डित है। पर जब संसार के भूतों को देखते हैं तो ऐसे लगता है कि वह सबमें खण्ड-खण्ड होकर बैठा है। जब हर भूत मेें उसी की सत्ता दिखायी देने लगती है तो वह कौए में भी दीखता है और गाय में भी दीखता है साथ ही वह कौए सा भी दीखता है, और गाय सा भी दीखता है। तब लगता है कि वह खण्ड-खण्ड हो गया है। शीशे की भांति बिखर गया है। पर ऐसा है नहीं। यह केवल हमारी अज्ञानता है, हमारा मतिभ्रम है और हमारी भूल है। आकाश से भी सूक्ष्म होने से वह सर्वत्र विद्यमान है। सूक्ष्मातिसूक्ष्म होने से ही वह सर्वत्र विद्यमान है। सब भूतों में विद्यमान है। वह सब प्राणियों का भरणपोषण करने वाला है। उन्हें ग्रस जाने वाला है और फिर सभी प्राणियों को नये सिरे से उत्पन्न करने वाला है। सृष्टिचक्र के इस रहस्य को समझने में से जहां गीता समझ में आ जाती है-वहीं परमपिता परमेश्वर भी हमें कुछ-कुछ समझ में आने लगते हैं। क्रमश: