हिन्दू राज्य की स्थापना के लिए संघर्ष करता रहा वीर बैरागी
यह सोच हमें छलती है
यदि कोई हमसे यह कहे कि भारत के इतिहास में कहीं थोड़ा बहुत तथ्यात्मक परिवर्तन हो भी गया है तो इससे अंतर ही क्या आया है? वही विश्व है, वही धरती है, वही सूर्य है और वही चंद्रमा है। जब सब कुछ वही है तो इस बात को लेकर रोने चीखने की आवश्यकता क्या है कि हमारा तो इतिहास ही परिवर्तित कर दिया है?
वास्तव में इसी सोच को प्राथमिकता देकर हमारा इतिहास परिवर्तित किया गया है। ऊपर से यह दिखाने का प्रयास किया है कि आज हमें नये मानव समाज का समन्वयात्मक निर्माण करना है, इसलिए पिछली बातों को छोडक़र कड़ुवाहटों को भुलाकर आगे बढऩा होगा। यह सोच हमें छलती है। ऊपर से तो ऐसा लगता है कि जैसे यह वास्तव में ही मानव निर्माण की सोच है, पर भीतर से यह दानव निर्माण की सोच है।
दानव निर्माण की सोच
अब इस पर विचार किया जाना चाहिए कि हमने इस सोच को दानव निर्माण की सोच क्यों और किस आधार पर कहा है? इस प्रश्न का उत्तर खोजने के लिए निम्नलिखित बिंदुओं पर ध्यान देना होगा :-
हमारा इतिहास मिटा तो पतंजलि ऋषि का योगदर्शन और मानव निर्माण के लिए अपेक्षित प्राणायाम हमसे छीन लिया गया। सारा विश्व समुदाय आज तक प्राणायाम का उपहास उड़ाता रहा पर अब ‘ब्रीदिंग एक्सरसाइज’ को जीवनप्रद मानकर उसे अपना रहा है। अपने इतिहास से विमुख भारतवासी ‘ब्रीदिंग एक्सरसाइज’ को बड़े चाव से कर रहे हैं। यह अलग बात है कि स्वामी रामदेव जी ने योग क्रांति लाकर योग की उपयोगिता को स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
महत्वपूर्ण बात यह है कि हमारा इतिहास तो पहले से ही प्राणायाम को मानव निर्माण के लिए महौषधि घोषित करता आया है। यदि हमारा इतिहास हमें पढ़ाया जाता तो शेष विश्व को प्राणायाम के और योग मार्ग के माध्यम से उन्नत और समन्वयी विश्व समाज में परिणत किया जा सकता था।
(2) हमने हिंदुत्व नामक जीवन प्रणाली को साम्प्रदायिक मान लिया, इसलिए पलंगों पर सोना आरंभ कर दिया। अब सारा संसार रोगी हो गया है, तो चिकित्सकों के द्वारा परामर्श दिया जा रहा है कि भारत की कठोर शय्या पर सोने की प्राचीन परंपरा को अपनाओ और स्वस्थ रहो। यहां भी हमारा इतिहास हमें पढ़ाया जाता तो हम सचमुच ‘मानव निर्माण’ कर रहे होते।
(3) संसार के ‘कथित बुद्घिजीवियों’ ने शोर मचाया कि प्रकृति में तो सर्वत्र ‘सर्वाइवल ऑफ द फिटैस्ट’ की प्रक्रिया चल रही है। जो बलवान है, शक्तिशाली है वही जी सकता है। हर प्राणी अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहा है। इसलिए यहां तो हर प्राणी एक दूसरे की स्वतंत्रता का हनन कर रहा है। ऐसा चिंतन करते-करते मानव समाज भी दानव बन गया। लगभग एक दूसरे के अस्तित्व को मिटाने के लिए। हजारों प्रजातियों को मनुष्य ने खा खाकर मिटा दिया है। बहुत सी प्रजातियां ऐसी हैं जो अपने अस्तित्व का अंतिम संघर्ष कर रही हैं।
अब जब प्राकृतिक संतुलन बिगडऩे लगा है तो जो लोग भारत के सब प्राणियों के जीवन की रक्षा करने के आदर्श को अतार्किक कहते थे, वही कहने लगे हैं कि बात तो भारत की ही ठीक थी। अत: अब बहुत से ऐसे संगठन बन रहे हैं जो कछुआ, गिद्घ, चील, हिरण, सिंह, बाघ, आदि की लुप्त होती प्रजापतियों की रक्षा के लिए आगे आ रहे हैं। उन्हें भय है कि यदि ऐसा नहीं किया जा सका तो मानवता का विनाश हो जाएगा।
मूर्खताएं कर-करके मानव समाज पीछे लौट रहा है। पर कोई भी नहीं कह रहा कि भारत के इतिहास को मिटाकर और उसकी विश्वजनीन संस्कृति को मिटाकर हमने मानवता के साथ विश्वासघात किया है।
यह तीन उदाहरण ही इस बात को स्पष्ट कर देने के लिए पर्याप्त हैं कि भारत का इतिहास मिटाकर हमने मानवता के साथ भी कितना बड़ा अपघात किया है? इसलिए हमारा मानना है कि विश्व में आज जो कुछ भी शुभ है या शुभ करने के लिए कहीं मानव चेतना मुखरित हो रही है, उसके मुखरित होने में भारत के उन महापुरूषों का विशेष योगदान है जिन्होंने भारत की स्वतंत्रता के लिए तथा इसकी संस्कृति की रक्षा के लिए अपने जीवन होम किये।
बैरागी के सैनिकों ने लिया प्रतिशोध
अब अपने विषय के मूल बिंदु पर आते हैं। वजीद खां को गिरफ्तार करने के पश्चात बैरागी ने सर्ववध की आज्ञा दे दी। उसके सैनिकों ने प्रतिशोध को शांत करने के लिए गली मौहल्लों में रक्त की नालियां प्रवाहित कर दीं।
यही एक सुच्चानंद नामक हिंदू रहता था। जिसने गुरू गोविन्दसिंह के साथ अत्याचार कराने में विशेष भूमिका निभाई थी। उसे उसके परिवार सहित उपस्थित किया गया। उसे सार्वजनिक रूप से लताड़ा और अपमानित किया। तत्पश्चात उस राष्ट्रघाती का वध कर दिया गया। वजीद खां को पहले तो शहर के चारों ओर घुमाया और फिर उसे जीवित ही अग्नि में डाल दिया गया।
सात दिन तक बंदा बैरागी प्रतिशोध का तांडव करता रहा। पूरे शहर से मस्जिद और मकबरे समाप्त कर दिये गये। चौदह ज्येष्ठ संवत 1765 को उसने एक दरबार किया। सरहिंद को पता चल गया कि ‘हिंदकेसरी’ के सामने उसका अस्तित्व क्या है? सरहिंद को अपने पाप का फल मिल गया। उसके उन सभी लोगों के घरों में आज शमशान का सन्नाटा पसरा रहा था जिनमें गुरू गोविन्दसिंह के दो पुत्रों के वध के समय ‘ईद’ का उत्सव मनाया गया था।
जो थोड़े बहुत विधर्मी कहीं बचे थे, वे दिल्ली की ओर भागे। उन्होंने दिल्ली के तत्कालीन मुगल बादशाह को जाकर अपना दुखड़ा सुनाया कि हिंदुओं का एक ऐसा शैतान पैदा हो गया है, जिसने भूतों को भी अपने वश में कर रखा है। उनके ऐसे प्रचार से दिल्ली का बादशाह भी भयभीत हो गया होगा। क्योंकि जो लोग दुर्बल मानसिकता के होते हैं वही भूतों की बात करते हैं, और उनसे डरते भी हैं।
जहां बैरागी जाता शत्रु वहीं से भाग लेता
बैरागी का भूत शत्रु के सिर चढ़ गया। वह उसे उठाकर लिये फिरता था। जहां भी बैरागी की छाया पड़ती, वहीं से शत्रु भागने का प्रयास करता। उसने राहू के रांघड़ों को गिरफ्तार कर लिया। पामल के मुस्लिम अधिकारी खान मुहम्मद ने यद्यपि साहस के साथ बैरागी का सामना किया परंतु उसे बैरागी के हाथों ही मरना पड़ गया। मालेरकोटला का रईस गुल मुहम्मद खां भी प्राण बचाकर भाग गया। कुल मिलाकर बैरागी और मुगल अधिकारियों, नवाबों या हाकिमों की स्थिति बिल्ली और चूहे जैसी हो गयी थी। जैसे बिल्ली को देखकर चूहे बिलों की ओर दौड़ते हैं वैसे ही बैरागी को देखकर शत्रु बिलों की ओर भागने लगे थे।
अपने लोग आकर मिलने लगे
जहां शत्रु पक्ष में उसके नाम से खलबली मच रही थी-वहीं जो लोग देश की स्वतंत्रता में विश्वास करते थे और मानते थे कि भारत की विश्वजनीन संस्कृति का रक्षक बैरागी जिस प्रकार संघर्ष कर रहा है, वह उचित है, वे उससे आ मिले। इनमें फगवाड़े का रईस, चूहड़मल जालंधर का नवाब सूरसिंह पट्टी, झापाल अलगो, खेमकर्ण और चूडिय़ां आदि के राव, आदि प्रमुख थे। इन सबके आ मिलने से बैरागी की शक्ति में वृद्घि होती गयी। व्यास और रावी नदी का सामवर्ती क्षेत्र बिना युद्घ के ही उसके अधीन हो गया था।
बैरागी की वीरता सिर चढक़र बोल रही थी। इस महायोद्घा ने चाहे छोटा सा क्षेत्र ही स्वतंत्र कराया था। परंतु उस छोटे से क्षेत्र को भी इसके एक लघु भारत के रूप में देखा। ग्रहण के पश्चात सूर्य पूर्ण आकृति लेना चाहता था, इसलिए जितना भी क्षेत्र स्वतंत्र किया उसका अपना महत्व था।
बैरागी ने की ‘हिन्दू राज्य’ की स्थापना
बैरागी ने अत्यंत साहस का परिचय देते हुए अपने नवस्थापित राज्य में यह ढिंढोरा करा दिया था कि कोई भी व्यक्ति अब मुगल बादशाह को किसी भी प्रकार का कर ना दे। उसने विधिवत अपने विजित प्रदेशों में अपना घोड़ा घुमा दिया। जो उसकी विजय का प्रतीक था। उसने अपने राज्य को ‘हिंदू राज्य’ कहकर संबोधित कहना आरंभ किया।
बैरागी की यह महानता ही थी कि वह स्वयं तो संत ही रहा, परंतु अपना साम्राज्य उसने अपने अधिकारियों में विभक्त कर दिया था। बैजवाड़ा के नवाब के अपने राज्य से भाग जाने से यमुना और सतलुज के बीच का सारा क्षेत्र उसके पांव तले आ गया। जिसे उसने सिखों को दिया।
कहते हैं कि बैरागी के हिंदू राज्य में बावन लाख बीघा जमीन आ गयी थी। जिसमें हिसार, होती, जालंधर, दुआबा, माझा, पठानकोट, फिरोजपुर, चूनिया, कसूर आदि का विस्तृत क्षेत्र सम्मिलित हो गया। इतने विशाल क्षेत्र को इस परमवीर ने अपने पुरूषार्थ और ‘पुनरूज्जीवी पराक्रम’ के बल पर प्राप्त किया था।
बैरागी का एक ही सपना था……..
इतिहास की दृष्टि से पूर्णत: उपेक्षित और निरादृत किये गये वैरागी को तत्कालीन हिंदू समाज अत्यंत सम्मान के भाव से देखता था। उसकी स्वयं की कोई राजनीतिक महत्वाकांक्षा नही थी वह ना सम्राट बनना चाहता था और ना ही बड़ा धनपति। उसकी एक ही इच्छा थी, एक ही सपना था, एक लक्ष्य था, एक ही महत्वाकांक्षा थी कि भारत माता को जैसे भी हो स्वतंत्र किया जाए। इसलिए इस उद्देश्य के प्रति समर्पित हिंदू योद्घाओं के लिए उसका हृदयद्वार सदा खुला रहता था। अपने महान लक्ष्य के प्रति उसके असीम समर्पण भाव को देखकर लोग उसे गुरू गोविन्दसिंह के पश्चात समस्त हिंदू समाज का नायक और ग्यारहवां गुरू कहने लगे थे। यद्यपि गुरूजी ने अपने पश्चात किसी भी व्यक्ति को गुरू बनाने के लिए मना कर दिया था। परंतु लोगों की श्रद्घा थी कि जो उनका धर्मरक्षक बन जाए वही उनका गुरू था। इस प्रकार ‘गुरू’ और ‘नायक’ अर्थात ब्राह्मण और क्षत्रिय का एक व्यक्ति में स्वरूप देखना लोगों को अच्छा लगता था।
इतिहासकार का कहना है….
मुहम्मद लतीफ ने अपनी पुस्तक ‘पंजाब का इतिहास: पूर्वकाल से वर्तमान काल तक’ में इस महायोद्घा के विषय में लिखा है:-
”इसने सहस्रों मुसलमानों का वध किया, मस्जिदें और खानकाहें मिट्टी में मिला दीं, घरों में आग लगा दी और स्त्रियों व बच्चों की हत्या की। लुधियाना से लेकर सरहिंद तक समस्त प्रदेश साफ कर दिया। पहले यह सरहिंद आया। गुरू गोविन्दसिंह के बच्चों के प्रतिकार (पाठक ध्यान दें मुस्लिम इतिहासकार कह रहा है कि सरहिंद में बैरागी का आना गुरू के बच्चों का प्रतिकार लेना था) में नगर को आग लगा दी। बालक या स्त्री का कोई विचार न रखते हुए सब निवासियों को कत्ल कर डाला। मृतकों को कब्रों से निकालकर चीलों और कौवों को खिलाया। सारांश यह कि जहां कहीं गया तलवार से काम लिया। इसी कारण मुस्लिम इसे ‘यम’ कहने लगे।”
आज भी उत्तर भारत के देहात में लोग किसी विशेष साहसी व्यक्ति को जम=यम कह देते हैं। उन्हें यह पता नहीं होता है कि यह ‘यम’ कहने की परंपरा कब क्यों और कैसे पड़ी?
कूड़े के इतिहास की वीणा
”एक घर में कई वर्षों से एक वीणा रखी हुई थी, जो घरवालों के लिए भारी सिरदर्द बनी हुई थी। काम की कोई गंभीर बात जब चल रही होती तो कोई शैतान बच्चा वीणा के तार छेड़ देता। घर के बड़े-बूढ़े इस अनावश्यक शोर से खीझ उठते।
घर में जब भी कोई अतिथि आता तो वीणा छिपा दी जाती थी जिससे कि उसके तारों की झंकार से बातचीत में विघ्न न पड़े। घरवालों ने निर्णय कर लिया कि वीणा को घर से हटा देना ही बेहतर होगा। दूसरे दिन सुबह वीणा को घर के सामने के कूड़े के ढेर में डाल दिया गया।
संयोग की बात थी कि उसी दिन एक ऐसा भिखारी उस घर में भिक्षा मांगने आया जो कि वीणा बजाने में पारंगत था। उसने जैसे ही कूड़े में पड़ी वीणा को देखा तो उसने उसे उस परिवार के अन्य सदस्यों की भांति छेड़ा नहीं, अपितु बड़ी श्रद्घा से उठाया, चूमा और लगा बजाने।
जब घर वालों ने देखा कि बाहर से कोई बहुत ही सुरीला संगीत आ रहा है तो उन्होंने बाहर लपककर देखा कि यह संगीत कौन बजा रहा है? देखते क्या हैं कि एक भिखारी वीणा वादन कर रहा था। यह वही वीणा थी-जिसे इस घर के लोगों ने बाहर कूड़े में फेंक दिया था। उसी वीणा के इस अनुपम संगीत को सुनकर घरवालों की आंखों में आंसू आ गये। उन्हें अपनी वीणा का मूल्य पता चल गया। घरवालों ने भिखारी से कहा-”हम तो इस वीणा को यूं ही लेकर दुखी रहे, हमें पता नहीं था कि इसमें इतना मधुर संगीत छिपा है। तुमने इससे संगीत की स्वर लहरियां बिखेरकर हमें इसके मूल्य का बोध करा दिया है।” भिखारी ने कहा-”वीणा में कुछ भी नहीं छिपा है। हम जैसी उंगलियां लेकर वीणा के पास जाते हैं, वही वीणा से प्रकट होने लगता है।” पाठकवृन्द! हमारी स्थिति भी अपने इतिहास के विषय में यही है। हमने अपना इतिहास कूड़े पर फेंक दिया। क्योंकि उसे हम श्रद्घा से माथे पर लगाकर चूमते नहीं हैं, क्योंकि हम पर इतिहास की वीणा बजानी पढऩी नहीं आती, अन्यथा तो इसी वीणा में वह तार विद्यमान है, जिन्हें यदि किसी जानकार ने बजा दिया, तो समां बंध जाएगा। ऐसा मनोरम संगीत निकलेगा कि सारा विश्व ही आनंदित हो उठेगा।
हिंदू राज्य की स्थापना था उद्देश्य
बंदा बैरागी को लेकर इस बात पर इतिहासकारों में मतभेद रहा है कि वह पंजाब के सिखों का नेता था, या उसका लक्ष्य संपूर्ण हिंदू जाति की रक्षा करना था। मैकालिफ कनिंघम, खफी खां जैसे इतिहासकारों का मानना है कि वैरागी का उद्देश्य संपूर्ण हिंदू जाति को स्वतंत्र कराना था। वह पूर्णत: राष्ट्रीय सोच का व्यक्ति था। मैकालिफ ने लिखा है-”वास्तव में बंदा का उद्देश्य समस्त हिंदू जनता को मुगल दासता से मुक्त करना था। उसने अपने आंदोलन को व्यापक रूप देने के लिए अपना युद्घ का नारा ‘वाहे गुरू की फतह’ के स्थान पर ‘फतह धर्म’ या ‘फतह दर्शन’ घोषित किया।”
बलिदान व्यर्थ नहीं गया
डा. ओमप्रकाश ने एक शोध लेख तैयार किया और उसमें इलियट एण्ड डाउसन, विलियम इर्विन, जेडी कनिंघम, जेसी आर्चर, हरिराम गुप्त, इंदुभूषण बैनर्जी, तेजासिंह और गण्डासिंह आदि विद्वान इतिहासकारों के परिश्रम का निचोड़ प्रस्तुत करते हुए लिखा है :-”उसने (बैरागी ने) भारत में हिंदू राज्य स्थापित करने का लक्ष्य अपने सामने रखा था, किंतु मुगल राज्य की नींव अभी काफी मजबूत थी। एक निर्भीक व्यक्ति जनता में साहस की तो भावना भर सकता है, किंतु वह किसी शक्तिशाली साम्राज्य को उखाडक़र नहीं फेंक सकता। इसीलिए वीर सेनानी बंदा अपने लक्ष्य की प्राप्ति में असफल रहा। किंतु उसके साहसी कार्य जब तक भारत राष्ट्र जीवित है भविष्य में सदा ही राष्ट्रीय वीरों को प्रेरणा प्रदान करते रहेंगे। उसका बलिदान व्यर्थ नहीं हुआ, उसने भारतीय जनता में अत्याचार का प्रतिरोध करने की भावना कूट-कूटकर भर दी। जब उपयुक्त अवसर आया तो कविवर रविन्द्रनाथ ठाकुर जैसे राष्ट्रकवियों ने इस वीर सेनानी का गुणगान किया, और जनता को राष्ट्ररक्षा के लिए सर्वस्व न्यौछावर करने की शिक्षा दी।”
इस प्रकार वैरागी का उद्देश्य पूर्णत: राष्ट्रवादी था। उसकी राष्ट्रवादिता को संकीर्ण करके देखने से इस महान सेनानी के साथ न्याय नहीं हो सकेगा इसलिए किसी भी प्रकार के पूर्वाग्रह से ऊपर उठकर बैरागी का अवलोकन किया जाना अपेक्षित है।
जन्म और बचपन
कश्मीर की पुंछ रियासत के राजौरी नामक स्थान पर सन 1670 ई. में जन्मे बैरागी का जन्म कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष में त्रयोदशी को हुआ था। इनके माता पिता राजपूत थे-जिन्होंने अपने नवजात शिशु का नाम लक्ष्मण देव रखा था। इनके पिता का नाम रामदेव था।
केन्द्रीय सचिवालय पुस्तकालय के व्यवस्थापक वीरेन्द्र कुमार कुलश्रेष्ठ का निष्कर्ष है कि-”समाना के निवासी जलालुद्दीन ने गुरू तेगबहादुर का वध किया था, इसलिए 26 नवंबर 1709 को सवेरे बंदा ने समाना पर हमला करके शहर को धराशाही कर दिया। इस लड़ाई में लगभग दस हजार मुसलमान मारे गये और अपार धन बंदा के हाथ लगा। कपूरी का शासक कदमुद्दीन अपनी विलासी प्रवृत्ति के कारण हिंदू जनता को सता रहा था। बंदा ने उसके भवन को भस्मीभूत करके उसकी सारी दौलत को अपने साथियों में विभाजित कर दिया। सठौरा का मुस्लिम शासक वहां की हिंदू जनता को उनके धार्मिक संस्कार नही करने देता था। यह शिकायत बंदा के पास पहुंची तो उसने सठौरा को लूट लिया तथा वहां पर काफी मुसलमान मारे गये। इसे आजकल कतलगढ़ी कहते हैं।”
(लेखक की पुस्तक प्राप्ति हेतु डायमण्ड पॉकेट बुक्स प्रा. लिमिटेड एक्स-30 ओखला इंडस्ट्रियल एरिया फेस-द्वितीय नई दिल्ली-110020, फोन नं. 011-40712100 पर संपर्क किया जा सकता है। (साहित्य सम्पादक)