गीता का चौदहवां अध्याय और विश्व समाज
गीता निष्कामता और फलासक्ति के त्याग को अपना प्रतिपाद्य विषय लेकर चल रही है। हर अध्याय का निचोड़ गीता के इसी प्रतिपाद्य विषय के आसपास ही आकर ठहरता है। अब जो विषय चल रहा है, वह यही है कि-
रूह अलग है देह से देह करे व्यापार।
खेत अलग स्वामी अलग इस पै तनिक विचार।।
कर्म का कत्र्ता ‘मैं’ नहीं यह प्रकृति है। आत्मा कत्र्ता नहीं है। गीता का मानना है किहम कर्मों के करने वाले हैं ही नहीं। यदि यह विचार गहराई से एक संस्कार बीज के रूप में हमारे अन्तर में पैठ बना ले तो जीवन और जगत की अनेकों समस्याओं का समाधान हो सकता है। गरमी, सरदी, शीत-उष्ण, सुख-दु:ख का अनुभव करने वाला यह आत्मा नहीं है-प्रकृति है। स्थूल संसार में जो कुछ घटित हो रहा है-उसका प्रभाव या उसका अनुभव स्थूल प्रकृति को ही होता है। सूक्ष्म आत्मा को जो अनुभव होता है, वह तो उसी के समरूप सूक्ष्म जगत की हलचलें हैं। इस भौतिक जगत में जो कुछ हो रहा है, वह प्रकृति के तीन गुणों अर्थात सत्व, रज और तम के कारण हो रहा है। प्रकृति ही इसका भोक्ता है।
हम अपने अज्ञान से दूसरे के फल के स्वयं भोक्ता बन रहे हैं। मैं आत्मा हूं और आत्मा इन तीनों गुणों से अलग है, वह इनमें किसी भी प्रकार से लिप्त नहीं है। वह जो कुछ भी हो रहा है-उसे दृष्टाभाव से देख रहा है, जिस आत्मा की ऐसी स्थिति है-वह स्वयं में त्रिगुणातीत रहे। पर हमने ऐसा मान लिया है कि जैसे हम प्रकृति के तीनों गुणों में फंसकर कर्म कर रहे हैं और यह जो आत्मा भीतर बैठा है-यही सब कुछ हमसे करा रहा है। गीता का अध्यात्मिक पक्ष यही है कि वह मानव को त्रिगुणातीत बनाकर रखना चाहती है। ‘प्रकृति में फंसो नहीं और इन तीनों गुणों में बसो नहीं’-इन से अलग अपने आपको समझो यही निष्कामता है। यही फलासक्ति विहीन जीवन जीने की कला है।
हमने आत्मा को अनावश्यक और व्यर्थ में ही भोक्ता बना लिया है। यह हमारा अज्ञान ही है। चोरी कोई करे और डण्डा किसी और पर पड़े-हम युग-युगों से ऐसा ही करते आ रहे हैं। इसे न्याय तो नहीं कह सकते। पर जब हम न्याय करने वाले स्वयं हों और स्वयं ही दण्डभोगने वाले हों तो इसे क्या कहा जाएगा? हम अपने ही साथ अन्याय कर रहे हैं-इससे अधिक लज्जास्पद स्थिति हमारे लिए और क्या हो सकती है?
गीता के चौदहवें अध्याय में श्रीकृष्णजी यही बता रहे हैं कि प्रकृति के तीन गुणों से स्वयं को परे कैसे रखा सकता है?
सत, रज, तम ये तीन हैं, तीनों वर्णनातीत।
इन तीनों को मारकर हो जा त्रिगुणातीत।।
इस विषय पर विचार करने से स्पष्ट होता है किमानव देह जो प्रकृति के पंचमहाभूतों से निर्मित है-में रहने वाला जीव इसकी संगति में रहकर इससे बंध सा जाता है। वह अज्ञानवश ऐसा करता है और प्रकृति के भोग को अपना भोग मान बैठता है। जबकि परमात्मा मानवदेह में रहकर भी प्रकृति के इन तीन गुणों से स्वयं को अलग रखता है। जीव को चाहिए कि वह प्रकृति का अनुयायी न होकर परमात्मा का अनुयायी हो। प्रकृति का अनुयायी बनोगे तो प्रकृति की ही रंगत चढ़ेगी और परमात्मा के अनुयायी बनोगे तो परमात्मा की रंगत चढ़ेगी। प्रकृति की रंगत मायावाद में फंसाकर मारने वाली है, जबकि परमात्मा की रंगत आत्मा का कल्याण कराकर परम पद को दिलाने वाली है। ऐसे में मनुष्य को स्वयं को यह देखना है कि वह प्रकृति का अनुयायी बने या परमात्मा का अनुयायी बने। श्रीकृष्णजी यहां पर प्रकृति का अनुयायी न बनकर परमात्मा का अनुयायी बनने की शिक्षा मनुष्य समाज को दे रहे हैं। कहने का अभिप्राय है कि मनुष्य प्रकृति के मोहपाश से अपने को अलग करे।
अर्जुन के लिए समझने की बात यही है कि वह प्रकृति के मोहपाश में बंधा होकर अपने अज्ञान को प्रकट कर बैठा और यह मान बैठा कि जो कुछ कर रहा हूं, वह ‘मैं’ कर रहा हूं और फिर ‘मैं’ ही इस किये का फल भोगूंगा। श्रीकृष्णजी अर्जुन की वृत्ति को ईश्वराभिमुख कर देना चाहते हैं। उसे प्रकृति के मायावाद से और अहम वाद से निकालकर ले जाना चाहते हैं। इसलिए समझाते-समझाते अब उसे प्रकृति के तीन गुणों पर ले आये हैं।
श्रीकृष्णजी अर्जुन को स्पष्ट करना चाहते हैं कि संसार विजय के लिए त्रिगुणातीत बनो। त्रिगुणातीत बनने पर जो विजय प्राप्त होगी, वही वास्तविक विजय होगी, और सुनो! उस विजय पर भी रूकना नहीं है। उससे आगे बढक़र उस विजय के प्रसाद को सबमें बांटना है। वह खुशी अर्थात प्रसाद अपने पास नहीं रखना, अपितु उसे सबमें बांट देना। सबसे कह देना कि यह विजय भी मेरी नहीं है, इस पर आप सबका अधिकार है, इसलिए सब इसका आनन्द लोग। ऐसा करने से सबका भला होगा, सबका कल्याण होगा। आत्मा भोक्ता नहीं है वह तो साक्षी भाव से देखने वाला दृष्टा है। बाकी यह जो मायाजाल दिख पड़ रहा है-यह तो प्रकृति का खेल है। प्रकृति के विषय में श्रीकृष्ण जी कहते हैं-
प्रकृति और ब्रह्म
वेद ईश्वर को ‘स्वपा’ अर्थात सुकर्मा कहता है। ईश्वर को सुकर्मा इसलिए कहा गया है क्योंकि वह संसार को उत्पन्न करता है। भगवान ने यह सृष्टि क्यों बनायी? जब इस प्रश्न पर विचार करते हैं तो उसमें भी वैदिक चिन्तन ही हमारा मार्गदर्शन करता है। जिससे हमें पता चलता है कि इस सृष्टि के रचने या बनाने में भी ईश्वर का कोई निजी प्रयोजन नहीं है। ईश्वर ने इसकी रचना जीवों के उद्घार के लिए ही की है। संसार के हमारे भौतिक माता-पिता तो केवल ईश्वरीय कार्य को आगे बढ़ाने का कार्य करते हुए हमें माता-पिता जान पड़ते हैं। वास्तव में तो सबका पिता परमात्मा है। प्रकृति सबकी माता है। उन्हीं के संयोग से यह सृष्टि आगे चली। इस प्रकार हमारे भौतिक माता-पिता प्रकृति और परमपिता परमात्मा के प्रतिनिधि हैं। भारत में माता-पिता के प्रति असीम श्रद्घा का संस्कार इस लिए ही मिलता है, कि उन्हें लोग ईश्वर की साक्षात प्रतिमा मानते हैं। ईश्वर निष्काम कर्म करते हुए सृष्टि की रचना करते हैं और हम ईश्वर के पुत्र हैं तो निष्काम भाव हमारे भीतर भी होना ही चाहिए। क्योंकि यह संस्कार हमें अपने परमपिता से मिला है। भारत की इसी सनातन परम्परा को स्पष्ट करते हुए श्री कृष्णजी अर्जुन को बता रहे हैं कि यह प्रकृति मेरी योनि है। इस योनि में मैं बीज डालता हूं। बीज ‘वीर्य’ शब्द से बना है। इसी बीज के लिए श्रीकृष्णजी कह रहे हैं कि इससे ही समस्त जड़-चेतन उत्पन्न होते हैं। यहां पर श्रीकृष्णजी ने प्रकृति को ‘महद्ब्रह्म’ शब्द से सम्बोधित किया है। वह कहते हैं कि संसार के सभी प्राणियों में जो रूप उत्पन्न होते हैं, उन्हें बीज देने वाला पिता मैं हूं। संसार में अमैथुनी सृष्टि का सिद्घान्त केवल भारत के वेदों की देन है। उस अमैथुनी सृष्टि में सभी प्राणियों के जोड़े ईश्वर ने बनाये-उन जोड़ों को बनाने के साथ ही सृष्टि का क्रम आरम्भ हो गया। इसके पश्चात ईश्वर ने बीज डालने और प्रजनन कर संतान उत्पन्न करने का कार्य माता-पिता को दे दिया। उसके पश्चात ही ‘मैथुनी सृष्टि’ का प्रारम्भ हुआ। उसी बात को श्रीकृष्णजी ने यहां दोहरा दिया है। क्रमश:
मुख्य संपादक, उगता भारत