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गीता का कर्मयोग और आज का विश्व संपादकीय

गीता का कर्मयोग और आज का विश्व, भाग-76

गीता का चौदहवां अध्याय और विश्व समाज

श्रीकृष्णजी कहते हैं कि प्रकृति से उत्पन्न होने वाले सत्व, रज, तम-गुण इस अविनाशी देही को अर्थात आत्मा को शरीर में या क्षेत्र में बांध लेते हैं।
इससे एक बात स्पष्ट होती है कि संसार की हर वस्तु में ब्रह्म का बीज है। वह बीज ही हमें विकसित होकर विभिन्न रूपों में या शरीरों में या योनियों में दिखायी देता है। वह अव्यक्त है, अदृश्य है। सब में रम रहा है, सबको धार रहा है। ऐसी सोच हमें सकारात्मकता से भर देती है।
योगेश्वर श्रीकृष्णजी अर्जुन को बता रहे हैं हे कौन्तेय! यह जो रजोगुण है यह रागात्मक है, यह तृष्णा के प्रति आसक्ति के कारण उत्पन्न होता है। यह हमें कर्म के प्रति आसक्ति में बांध देता है। बात स्पष्ट है कि यह रजोगुण-सतोगुण के विपरीत विनाशकारी है। राग हमारे लिए घातक परिस्थितियां उत्पन्न करता है। इससे तृष्णा उत्पन्न होती है और यह संसार के भोगों की प्राप्ति से दिनानुदिन भडक़ती ही जाती है। यह बूढ़ी नहीं होती, अपितु और भी अधिक जवान होती जाती है। हम स्वयं बूढ़े होते जाते हैं और ज्यों-ज्यों हम बूढ़े होते जाते हैं त्यों-त्यों हमें यह भ्रान्ति होती जाती है कि हमारी तृष्णा भी हमारे साथ ही बूढ़ी होती जा रही है। पर वास्तव में ऐसा नहीं है। वास्तव में तो यह तृष्णा और भी अधिक जवान होती जाती है। इसीलिए भर्तृहरि ने इसके सामने हथियार फेंकते हुए कहा था-‘तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णा’- अर्थात तृष्णा हम पर नहीं जीती गयी, तृष्णा ने ही हमें जीत लिया।
भर्तृहरि ने ऐसा कब कहा?-जब वह नदी के किनारे बैठकर साधना कर रहे थे, तब उन्हें प्रात:काल में उगते हुए सूर्य की किरणों ने नदी के रेत में पड़ी हुई एक सीपी ऐसे लगी जैसे कि वह मोती है। तब भर्तृहरि अपनी समाधि को छोड़ उस मोती को पाने के लिए चल दिये। निकट गये तो भूल का अहसास हुआ। तब सोचने लगे कि यदि वास्तव में ही यह सीपी सीपी न होकर मोती ही होती, तो भी मेरे किस काम की होती? वह सोच रहे थे कि जब मैंने इतना बड़ा राजपाट छोड़ दिया तो यह मोती भी मेरे किस काम का होता? तब उन्होंने कहा कि हे तृष्णे! मैं तो तुझको बूढ़ी हुई मान रहा था, पर तू तो और भी अधिक जवान होती जाती है। तभी तो तूने मुझ जैसे तपस्वी को भी साधना से उठा लिया।
कृष्णजी कह रहे हैं कि हे भारत! तू यह समझ ले कि तमोगुण हमारे अज्ञान का प्रतीक है, वह अज्ञानमूलक है। यह देहधारी को भ्रम में डाल देता है। इसके आक्रमण से मनुष्य असावधानी, आलस्य और निद्रा के पाश में बंध जाता है। जिससे उसके अज्ञान में वृद्घि होती है। यह सतोगुण व्यक्ति को सुख में, रजोगुण कर्म में और तमोगुण ज्ञान को ढककर प्रमाद में लगा देता है।
श्रीकृष्णजी यह कहते हैं कि हे भारत! मनुष्य के जीवन में कभी-कभी रजोगुण और तमोगुण को दबाकर सतोगुण उभर आता है, तो कभी सतोगुण और तमोगुण को दबाकर रजोगुण उभर आता है, जबकि कभी-कभी ऐसा भी होता है कि सतोगुण और रजोगुण को दबाकर तमोगुण उभर आता है। श्रीकृष्णजी की यह बात हमारे व्यावहारिक जीवन में खूब घटती है। हमारे मन में विभिन्न प्रकार के विचार उठते हैं, आते और जाते हैं। ये कभी सत्वगुणी होते हैं तो कभी रजोगुणी और कभी-कभी तमोगुणी भी होते हैं। अच्छे-अच्छे विचारवान लोगों को भी कभी-कभी तमोगुणी विचार आ घेरते हैं और उससे अपराध करा देते हैं। बाद में वह पश्चात्ताप करता है कि यह क्या हो गया? क्यों हो गया? कैसे हो गया?
एक ही साथ सत्वगुण, रजोगुण और तमोगुण के हमारे शरीर में बीज रूप में पड़े रहने के कारण ऐसा होता है। रजोगुण और तमोगुण का आक्रमण हम पर ना हो और अपनी सतोगुणी ऊर्जा की विचार शक्ति को बचाये रखने में सफल हो सकें, इसके लिए ही भक्ति की और ज्ञान की आवश्यकता पड़ती है।
तभी तो श्रीकृष्णजी कहते हैं कि जब इस देह में इन्द्रियों के सब द्वारों में प्रकाश तथा ज्ञान का उदय हो जाता है तब यह समझ लेना चाहिए कि सत्वगुण में वृद्घि हो रही है। जब रजोगुण की वृद्घि होती है तब लोभ प्रवृत्ति, कार्यों का प्रारम्भ, अशान्ति और वस्तुओं की लालसा ये सब उत्पन्न हो जाते हैं, इसी प्रकार जब तमोगुण की वृद्घि होती है-तब प्रकाश का अभाव, काम करने की इच्छा का अभाव, असावधानी और मूढ़ता ये उत्पन्न हो जाते हैं।
प्रकाश बढ़त है सत्व में और बढ़त है ज्ञान।
लोभ बढ़त है रज में तम में बढ़त अज्ञान।।
सतोगुण को जब हमारी मानसिक और आत्मिक शक्ति का संयोग प्राप्त होता है-तब हमारे शरीर के रोम-रोम पर उसका बहुत ही सकारात्मक प्रभाव पड़ा करता है। हमें सर्वत्र आनन्दित करने वाली तरंगें अपने चारों ओर के परिवेश में प्रवाहित होती जान पड़ती हैं। ऐसी तरंगों के प्रवाह और प्रभाव में व्यक्ति परनिन्दा चुगली व अनर्गल बकवास से बचा करता है। उसे ईश-चर्चा और सत्संग की अच्छी बातों में सुखानुभूति होती है, मजा आता है। जबकि रजोगुण के प्रभाव के काल में ईश-चर्चा और सत्संग के विपरीत परनिन्दा, चुगली व अनर्गल बकवास में सुखानुभूति होने लगती है। वह झगड़ालू, ईष्र्यालु और क्रोधी हो जाता है। इसके पश्चात तमोगुण में तो इन दुर्गुणों के काले बादलों में उसका ज्ञान सूर्य सर्वथा लुप्त ही हो जाता है। कभी काम की बिजली उस पर पड़ती है तो कभी क्रोध की गडग़ड़ाहट से वह अपनी ही आत्मा को कंपा डालता है और कभी वह लोभ के वशीभूत अपराध कर बैठता है तो कभी वह मोह में फंसकर दूसरों को हानि पहुंचाता है। कहने का अभिप्राय है कि तमोगुण में गहन अन्धकार ही अन्धकार है।
सत रज और तम का फल
श्रीकृष्णजी कहते हैं कि अर्जुन! जब देहधारी आत्मा सतोगुण की प्रधानता के काल में देह का त्याग करे तब वह उत्तम ज्ञानियों के निर्मल लोकों को प्राप्त होता है, अर्थात ऐसी स्थिति में आत्मा की सदगति हो जाती है। इसका अभिप्राय है कि किसी के लिए मरणोपरांत हमारा यह कहना कि उसकी आत्मा को सद्गति मिले, उचित नहीं है। सद्गति तो उसे अपने जीवन के कर्मों के आधार पर, उसके अन्त समय में बनी उसकी मति के आधार पर मिलती है, फिर भी हम यदि उसको सद्गति मिलने की प्रार्थना कर रहे हैं तो यह हमारा पवित्र लोकाचार ही है-जिसे हम निभा लें पर उसे यह न मानें कि हमारे कहे से दिवंगतात्मा को सद्गति मिल गयी होगी।
आगे श्रीकृष्णजी कह रहे हैं कि जब देहधारी रजोगुण की अवस्था में मरे, तब कर्मों में आसक्त लोगों में जन्म लेता है और तमोगुणी अवस्था में मरकर मूढ़ योनियों में जन्म लेता है।
सतोगुण में देह त्यागता पाता उत्तम लोक।
रजोगुण में पुन: लौटता तमोगुण में हो शोक।।
मानव जीवन तो पाया पर उसे पाकर ऐसी मलीन बस्तियों में रहना पड़ रहा है जहां गन्दगी ही गन्दगी है और मलमूत्र के त्याग का भी होश लोगों को नहीं है। यह क्या है? निश्चय ही इसमें भी कोई पूर्व जन्म का प्रबल संस्कार है। गन्दगी से लोगों को घृणा नहीं होती, उसी में रम जाते हैं। कइयों को सरकार उभरने के अवसर देती है, तो कइयों को समाजसेवी संस्थाएं और लोग भी उभारने का काम करते हैं-पर सारे प्रयास व्यर्थ जाते हैं। क्यों? निश्चय ही कोई प्रबल संस्कार है, जो इन्हें इस नरक से उभरने नहीं दे रहा है।
क्रमश:

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