गीता का कर्मयोग और आज का विश्व, भाग-77
गीता का चौदहवां अध्याय और विश्व समाज
मलीन बस्तियों में रहने वाले लोगों को हमें उनके भाग्य भरोसे भी नहीं छोडऩा चाहिए। उनके उत्थान व कल्याण के लिए सरकारी और गैर सरकारी स्तर पर कार्य होते रहने चाहिएं। उनके विषय में हमने जो कुछ कहा है वह उनकी दयनीय अवस्था को ज्यों का त्यों बनाये रखने के उद्देश्य से नहीं कहा है, अपितु ईश्वर की कर्मफल व्यवस्था की ओर श्रीकृष्ण जिस प्रकार संकेत कर रहे हैं-उसी के अनुक्रम में अपनी बात को रखा है। हमारा यह भी मानना है कि बहुत से लोगों के जीने के अधिकार को समाज के अधिकार सम्पन्न लोगों ने भी छीना है, जिससे उनकी दयनीय स्थिति हो गयी है, ऐसे लोगों के लिए यह समाज और यह व्यवस्था ही क्रूर हो गयी है। उन्हें ऐसी सामाजिक कुरीतियों और क्रूर व्यवस्था से मुक्ति मिलनी ही चाहिए, और उसके लिए सरकारी स्तर पर और सामाजिक संगठनों की ओर से किये जा रहे प्रयास भी निरन्तर जारी रहने चाहिएं।
स्वतन्त्रता पूर्व भारत के लोगों के मौलिक अधिकारों का हनन विदेशी सत्ताधीशों ने किया तो सारा देश ही अपने मौलिक अधिकारों को प्राप्त करने के लिए आन्दोलित हो उठा था। स्वतन्त्रता मिली तो हमने लम्बे संघर्ष के पश्चात अपने मौलिक अधिकार प्राप्त किये-जिन पर आज सबका समान अधिकार है। किसी भी वर्ग को या समाज को भाग्य भरोसे छोडऩा उनके साथ अन्याय करना होगा। सबके सामूहिक प्रयासों के उपरान्त भी यदि कोई सामाजिक वर्ग या व्यक्ति समूह उत्थान की गति नहीं पकड़ रहा है तो उसके विषय में यह मानना चाहिए कि वह निश्चय ही प्रारब्ध के फल भोग रहा है। आप किसी के प्रारब्ध अर्थात कर्मफल को बदलने वाले नहीं हो सकते। पर यह भी ध्यान रखना चाहिए कि आप किसी के हाथ का टुकड़ा छीनने वाले भी नहीं होने चाहिएं। हाथ का टुकड़ा छीनना अत्याचार है, दुराचार है, पापाचार है और अनाचार है। गीता अत्याचार, दुराचार, पापाचार और अनाचार को प्रोत्साहित न करके इनको चुनौती देने वाला ग्रन्थ है। इनके विरूद्घ समाज को आन्दोलित करने वाला, मथ डालने वाला ग्रन्थ है। यह अत्याचार, दुराचार, पापाचार और अनाचार राजनीतिक स्तर पर भी हो सकते हैं और सामाजिक एवं धार्मिक क्षेत्रों में भी हो सकते हैं। ये चाहे जहां हों-गीता सर्वत्र इन्हें चुनौती देने की बात कहती है, और मानवता को इनके विरूद्घ आवाज उठाने के लिए एक ऐसा सन्देश देती है जो अन्यत्र दुर्लभ है।
योगेश्वर श्रीकृष्ण कहने लगे है कि अर्जुन! मनुष्य अपने-अपने कर्मों का फल पाता है। सुनो, और बड़े ध्यान से सुनो कि सात्विक कर्म का फल भी सात्विक और निर्मल होता है। राजस कर्म का फल दु:ख होता है और तामस कर्म का फल अज्ञान होता है।
सात्विक निर्मल होत है सुकृत कर्म का फल।
राजस का दुख होत है अज्ञान तमस का फल।।
जीवन के कर्मों से व्यक्ति के अन्तिम समय की मति बनती है और उसके अन्तिम समय की मति से उसके अगले जन्म का निर्धारण होता है। जैसे जिसके कर्म वैसे उसके फल। ‘जैसा जिसका अपराध-वैसी उसको सजा और जैसा जिसका पुण्य वैसा उसे पुरस्कार’-भारत की कर्मफल व्यवस्था और उससे बनी न्याय व्यवस्था का आधार यही है। इसी को प्राकृतिक न्याय कहा जाता है। संसार के लोग भारत के इस प्राकृतिक न्याय के सिद्घान्त को आज तक समझ नहीं पाये हैं। आज भी इस प्राकृतिक न्याय को पाने के लिए संसार के सभी लोकतांत्रिक देश संघर्ष कर रहे है। सभी ने प्राकृतिक न्याय के इस सिद्घान्त को पाने के लिए अपने -अपने ढंग से इसकी व्याख्या और व्यवस्था की है। यह अलग बात है कि वे भारत की न्यायव्यवस्था के कर्मफल व्यवस्था के गूढ़ सिद्घान्त को न समझने के कारण इसे गहराई से नहीं समझ पाये। उनकी व्याख्या आज भी थोथली है-पर फिर भी भारत के लोगों को इस बात पर गर्व होना चाहिए कि उनकी न्याय व्यवस्था के मौलिक सिद्घान्त पर ही सारे विश्व की न्याय व्यवस्था चलना चाहती है। इसके उपरान्त भी कुछ लोग हैं जो भारत में न्याय व्यवस्था में प्राकृतिक न्याय व्यवस्था के सिद्घान्त को विदेशों की देन समझते हैं। ऐसे लोगों ने ही हमें हमारी गौरवपूर्ण विरासत से वंचित किया है। उन्हें गीता का कर्मफल सिद्घान्त अवश्य पढऩा चाहिए। जहां श्रीकृष्ण जी कह रहे हैं कि सतोगुण से ज्ञान उत्पन्न होता है, रजोगुण से लोभ उत्पन्न होता है और तमोगुण से असावधानी, मूढ़ता और अज्ञान की उत्पत्ति होती है।
जगत का सिद्घान्त है कि यहां क्रिया की प्रतिक्रिया अवश्य होती है। इस पर सारे संसार के चिन्तक और मनीषी लोग अब जाकर सहमत हो पाये हैं-जब संसार को चलते-चलते लगभग दो अरब वर्ष हो चुके हैं। पर भारत के ऋषि-महर्षि और मनीषी लोग इस सिद्घान्त को प्रारम्भ से ही मानने वाले रहे हैं। ऋषियों के उस ज्ञान-विज्ञान के सिद्घान्तों की संहिता ही तो गीता है-उनका बखान करने वाले कृष्ण हैं और उसे ध्यानस्थ होकर सुनने वाला अर्जुन है। इस संवाद को हमें अपना राष्ट्रीय संवाद घोषित करना चाहिए। क्योंकि इस संवाद से आज के अनेकों ‘अर्जुन’ लाभान्वित हो सकते हैं।
अपनी बात को निरन्तर जारी रखते हुए योगेश्वर बोले कि जो सतोगुणी होते हैं, उनका उत्थान होता है, रजोगुणी प्रवृत्ति के लोग मध्य में रहते हैं, और तमोगुणी प्रकृति के लोग जघन्य गुणों और जघन्य वृत्ति में पड़े अधोगति को जाते हैं। श्रीकृष्णजी का यह कथन क्रिया के पश्चात प्रतिक्रिया की अवश्यम्भाविता के सिद्घांत को ही प्रतिपादित कर रहा है। यह एक कथन या सम्बन्धित श्लोक भर नहीं है, अपितु यह भारत के ऋषियों के दीर्घकालीन वैज्ञानिक चिन्तन का निष्कर्ष है। जिस पर हमें गर्व होना चाहिए कि हमने संसार का मार्गदर्शन किस-किस प्रकार कैसे-कैसे और कब-कब किया है?
जब दृष्टा यह समझ लेता है कि प्रकृति के इन तीन गुणों के अतिरिक्त दूसरा कोई कत्र्ता नहीं है और जब वह इन तीन गुणों से परे रहने वाली भगवान नाम की सत्ता को समझ लेता है, पहचान लेता है, देख लेता है तो उस समय वह दृष्टा ‘मदभाव’ को अर्थात मेरे स्वरूप को जान लेता है।
ईश्वर त्रिगुणातीत है और जब कोई दृष्टा उस त्रिगुणातीत को समझ जाता है तो वह स्वयं अपने आत्मा में होने वाली प्रेरणा के कारण त्रिगुणातीत बनने के लिए सचेष्ट हो उठता है।
जब देहधारी आत्मा देह से उत्पन्न होने वाले इन तीन गुणों को विजय कर लेता है अर्थात स्वयं भी त्रिगुणातीत हो जाता है-इनके बंधन की जकडऩ को शिथिल कर इनसे मुक्त हो जाता है तब क्या होता है? इसकी भी प्रतिक्रिया होती है और वह प्रतिक्रिया बड़ी सुखदायी होती है जिसके विषय में योगेश्वर कह रहे हैं कि अर्जुन ऐसा व्यक्ति या देहधारी आत्मा जन्म-मरण और वृद्घावस्था के दु:खों से मुक्त हो जाता है और वह अमरजीवन (मोक्ष) को प्राप्त कर लेता है।
इस प्रकार हमारे जन्म-मरण का कारण प्रकृति के ये तीन गुण ही हैं, मनुष्य को चाहिए कि वह इन तीनों गुणों से स्वयं को परे करने के लिए साधना करे प्रयास करे, और अपने कर्मों पर स्वयं ही नजर रखता रहे कि मैं कहीं फिसलूं नहीं, कहीं भटकूं नहीं। आत्म विजय के मार्ग को अपनायें।
क्रमश:
मुख्य संपादक, उगता भारत