सोमपान जो जन करे, होवै ना अक्षिपात
बिखरे मोती-भाग 223
गतांक से आगे….
15. यक्ष-जिसके मित्र अधिक होते हैं, इससे क्या लाभ है?
युधिष्ठिर-महाराज! जिसके मित्र अधिक होते हैं, उसके कभी काम नहीं अटकते हैं।
16. यक्ष-धर्म का पालन करने वाले को क्या मिलता है?
युधिष्ठिर-महाराज! धर्मनिष्ठ व्यक्ति को सद्गति प्राप्त होती है। इतना ही नहीं, ऐसा व्यक्ति आत्मा को जान लेता है। इसलिए मनुष्य को धर्मरत रहना चाहिए। धर्मरत व्यक्ति के रजोगुण, तमोगुण में कमी आती है और सतोगुण मंा वृद्घि होती है। सत्वगुण की प्रधानता के कारण ही व्यक्ति को प्रभु की समीपता मिलती है।
17. यक्ष-सबसे अधिक धनवान व्यक्ति कौन होता है?
युधिष्ठिर-महाराज! जिस व्यक्ति के पुण्य कर्मों के कारण आकाश और पृथ्वी सुरभित हैं, वह सबसे धनवान व्यक्ति होता है। ऐसा व्यक्ति पृथ्वी पर ही नहीं अपितु स्वर्ग में भी यशस्वी और समृद्घिशाली होता है, उसका आसन स्वर्ग में भी श्रेष्ठ होता है।
18. यक्ष-मिथ्याचार क्या है?
युधिष्ठिर-महाराज! इन्द्रियों को तो विषय से रोक लिया किन्तु विषयों का ही स्मरण करते रहना, यह मिथ्याचार है।
19. यक्ष– आर्जवता क्या है?
युधिष्ठिर-महाराज! चित्त की समता अथवा सरलता आर्जवता कहलाती है।
20. यक्ष– मत्सर क्या है?
युधिष्ठिर-महाराज! हृदय की जलन को ईष्र्या अथवा मत्सर कहते हैं।
21. यक्ष-मृतक के साथ क्या जाता है?
युधिष्ठिर-महाराज! दान और पुण्य मृतक के साथ जाते हैं।
22. यक्ष-आंख खोलकर कौन सोता है?
युधिष्ठिर-महाराज! मछली आंख खोलकर सोती है।
23. यक्ष-पंचमहाभूतों में ऐसा कौन सा अतिथि है जो सबके यहां पहुंच जाता है?
युधिष्ठिर-महाराज! अग्नि तत्व ऐसा अतिथि है, जो सबके यहां पहुंच जाता है।
24. यक्ष-‘दम’ क्या है?
युधिष्ठिर-महाराज! मन को ज्ञान के द्वारा वश में करना ‘दम’ कहलाता है।
25. यक्ष-दिशाएं क्या हैं?
युधिष्ठिर-महाराज! जिस प्रकार दिशाएं किसी वस्तु की स्थिति का बोध कराकर मार्ग प्रशस्त करती हैं, ठीक इसी प्रकार व्यक्ति को सन्मार्ग का बोध सत्पुरूष कराते हैं। इसीलिए नीतिकारों और मनीषियों ने सत्पुरूषों को दिशाएं कहा है।
‘आध्यात्मिक तेज की महिमा’
सोमपान जो जन करे,
होवै ना अक्षिपात।
देव-मनुज सब शान्त हों,
जब करै दृष्टिपात ।। 1160।।
अक्षिपात अर्थात आंख का पतन, यानि कि दृष्टि का पतन सोमपान आनन्दरस का पान, भक्तिरस का पान।
व्याख्या:-यदि व्यक्ति प्रभु-भक्ति दिखाने के लिए नहीं करता है, प्रभु के प्रेम रस में डूब जाता है उस सच्चिदानन्द के आनन्दरस का पान करता है तो उसकी आंख का पतन नहीं होता है अर्थात उसकी दृष्टि पवित्र हो जाती है, उसकी सोच महान हो जाती है। उसका नजरिया ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ का बन जाता है, उसे कण-कण में भगवान दिखाई देता है, उसका हृदय कह उठता है-‘सर्व खल्विदं ब्रह्म’ अर्थात ब्रह्मा का सब में निवास है। ऐसा व्यक्ति जाग्रत पुरूष होता है, कोई सिद्घ पुरूष होता है, आध्यात्मिक तेज का धनी होता है। उसकी दृष्टि पैनी और पवित्र होती है, जिसमें अद्भुत तेज होता है। वह ज्ञान और तेज का सूर्य होता है, जिसके सामने सामान्य मनुष्य ही नहीं अपितु देवगण भी बड़े अदब से सिर झुकाकर और खामोश होकर बैठते हैं। इस सन्दर्भ में एक दृष्टान्त देखिये-जब महर्षि अगस्त्य के आध्यात्मिक तेजपुंज को देखकर माता सीता हत्प्रभ रह गयीं।
अपने वनवास काल में जब भगवान राम, माता सीता और लक्ष्मण महर्षि अगस्त्य के आश्रम में पहुंचे तो वहां माता सीता वनवास में होने वाले कष्टों को कुछ क्षण के लिए भूल गयीं। जैसे ही उन्होंने महर्षि अगस्त्य के दर्शन किये तो उनका सुकोमल हृदय प्रफुल्लता की अनुभूति से गद्गद हो गया। इस विलक्षण अनुभूति का कारण उन्होंने भगवान राम से पूछा-भगवान राम ने प्रत्युत्तर में कहा, सीते! जो महान विभूति अथवा पुण्यात्मा होते हैं, उनके दर्शन मात्र से हृदय पवित्र हो जाता है, प्रफुल्लित हो जाता है, ठीक इस प्रकार जैसे सूर्य की उष्ण किरणें ठंड का हरण करके व्यक्ति को सुकून दिया करती हैं। माता सीता ने पुन: प्रश्न किया-केवल दर्शन मात्र से? भगवान राम ने कहा, हां सीते! जो महान विभूति होती है, उनके आभामण्डल (ह्रह्म्ड्ड) से निकलने वाली सकारात्मक किरणें व्यक्ति के ‘कारण शरीर’ पर ‘भाव शरीर’ पर गहरा और स्थायी प्रभाव डालती है, जो हृदय (चित्त) को परिवर्तित कर देती हैं, अतुलित आनंद देती हैं क्योंकि उनकी दृष्टि पवित्र होती है जिसमें ‘आध्यात्मिक तेज’ होता है। संसार में ऐसी महान विभूतियां अथवा पुण्यात्मा दुर्लभ ही मिलती हैं। हे सीते! तुम्हारे सुकोमल हृदय में जो आनंदानुभूति हो रही है, उसका एकमात्र कारण और गम्भीर रहस्य महर्षि अगस्त्य के अनोखे आभामण्डल का ‘आध्यात्मिक तेज पुंज’ है जो तुम्हारे मानस को गदगद कर रहा है। ऐसी विलक्षण विभूतियां इस वन की नहीं अपितु समस्त वसुंधरा की शोभा हैं भूसुर हैं अर्थात पृथ्वी के देवता हैं। ऐसे व्यक्ति ज्ञान और तेज के सूर्य होते हैं। इनका कभी अक्षिपात नहीं होता है। वे जब दृष्टिपात करते हैं, तो सब शान्त हो जाते हैं। उनके मुखारबिन्द से ज्ञान की अमृत वर्षा होती है। जिनसे मानव मात्र का हृदय पवित्र और प्रफुल्लित होता है। उनके हृदय (चित्त) से निकलने वाली रश्मियां सुसंस्कारों का निरंतर विकीरण करती हैं। जिनसे मानवता का कल्याण निर्बाध रूप से होता रहता है।