शत्रु ने छल से घेरना आरंभ किया वीर बंदा बैरागी को

रोगग्रस्त हो गया दिल्ली दरबार
बादशाह बहादुरशाह की मृत्यु के उपरांत दिल्ली दरबार उत्तराधिकार के युद्घ के कारण रोगग्रस्त हो गया। उसकी इस अवस्था का लाभ वीर वैरागी को मिला। मुसलमानों के लिए ‘गुरूभूमि’ पंजाब जिस प्रकार की चुनौती प्रस्तुत कर रही थी-वह दिल्ली के लिए गले की हड्डी बन चुकी थी। वीर वैरागी को नियंत्रण में लेकर उसका अंत करना इसलिए मुगल सत्ता की प्राथमिकता बन गयी थी।
बैरागी की एक बार पुन: जीत हुई
जैसे ही उत्तराधिकार का मुगलिया युद्घ समाप्त हुआ, वैसे ही मुगल शासन का ध्यान पंजाब की चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों को नियंत्रण में लेने की ओर गया। नया बादशाह पंजाब की ओर सेना लेकर आगे बढ़ा, परंतु उसकी सेना को सिखों ने छापामार युद्घ के माध्यम से छकाना आरंभ कर दिया। अब तक वैरागी को भी अपनी सैनिक तैयारी का पर्याप्त अवसर मिल चुका था। क्योंकि लगभग एक वर्ष के अंतराल पर मुगल सेनाएं इस बार पंजाब की ओर आ रही थीं। बसी गांव के निकट दोनों सेनाओं में युद्घ हुआ। जिसमें वैरागी की सेना की विजय हुई। सरहिंद और करतारपुर में भी वैरागी ने पुन: विजय प्राप्त की। सरहिंद के चूहड़मल और अमीन खां ने वैरागी की अधीनता स्वीकार की। जालंधर के जागीरदार फैजअली तथा सैफुल्ला को गुरू गोविन्दसिंह से की गयी शत्रुता का दण्ड दिया गया।
बैरागी के व्यक्तित्व की विशेषता
बैरागी बहुत कुछ क्षति उठाने के पश्चात भी अपने देशवासियों की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए संघर्ष कर रहा था। वह एक संत था-परंतु उसे क्षत्रिय की भूमिका का निर्वाह करना पड़ रहा था। यह उसके व्यक्तित्व की विशेषता थी कि वह अपने संत के रूप में राजा की भूमिका का निर्वाह बड़े सुंदर ढंग से निभा रहा था। मानो वह चाणक्य की इस बात को सही साबित कर रहा था कि राजा दार्शनिक और दार्शनिक राजा होना चाहिए।
इस सबके मध्य उसे जैसे ही अवसर मिलता उसके भीतर का संत जाग उठता और उसे जंगलों व पहाड़ों की ओर भक्ति के लिए उठा ले जाता। पर जैसे ही उसे अपने देश और धर्म पर आने वाली किसी आपदा की या उसकी अनुपस्थिति का लाभ शत्रु द्वारा उठाने की सूचना किसी माध्यम से मिलती तो उस समय उसके भीतर का क्षत्रिय जाग उठता और वह अपनी भक्ति छोडक़र शक्ति का प्रतीक बनकर युद्घभूमि में आ धमकता। उसके जीवन में ऐसी घटनाएं कई बार हुई थीं।
जबरदस्त खां की जबरदस्त पराजय
जबरदस्तखां उन दिनों जम्मू का सूबेदार था। एक बार वह दिल्ली जाते हुए लाहौर ठहरा। रास्ते में गुरूदासपुर उस समय एक हिंदू राज्य बन चुका था। उसके विषय में जानकर जबरदस्त खां को जबरदस्त चोट लगी कि यह एक हिंदू राज्य होकर यहां क्यों स्थापित है? गुरूदासपुर के हिंदू स्वरूप को गिराने के लिए जबरदस्त खां ने उस पर हमला कर दिया। परंतु वह असफल रहा और अपनी पराजय से बहुत निराश हुआ। तब वैरागी ने उसके ऊपर पुन: चढ़ाई कर दी। बड़ा भयंकर युद्घ हुआ, सूबे की तोपों ने सिखों के अंदर खलबली मचा दी।
संयोग की बात थी कि तभी सिखों के एक सैनिक कहरसिंह ने देखा कि सूबा जबरदस्त खान नमाज पढऩे में व्यस्त था। वह अचानक उसकी ओर झपटा और सूबा का सिर काटकर उसे वैरागी को लाकर दे दिया। वैरागी ने शत्रु का सिर अपने सामने देखकर बड़े संतोष की सांस ली। उसने बड़ी आत्मीयता से उस सैनिक की प्रशंसा की जिसने यह साहसिक कार्य कर दिखाया था।
अब तक वैरागी के राज्य में पटियाला, गुरूदासपुर और पठानकोट के क्षेत्र भी सम्मिलित हो चुके थे। अपने जबरदस्त शत्रु जबरदस्त खां का अंत करके वैरागी पुन: पहाड़ों पर चला गया। परंतु उसके जाते ही मुस्लिम लोगों ने पुन: हिंदुओं पर अत्याचार करने आरंभ कर दिये।
बादशाह और फकीर
एक बादशाह ने एक फकीर को बेअदब समझकर पकड़वा लिया। उसे रात भर एक तालाब में खड़ा रखा। बादशाह स्वयं अपने रनिवास में जाकर राग रंग में मस्त हो गया। बादशाह का विचार था कि ठिठुरती हुई रात में पानी में खड़े रहने से फकीर सही रास्ते पर आ जाएगा और आगे से ऐसा कोई कार्य नही करेगा जो बादशाह को अप्रिय लगे। पर उसे क्या पता था कि जिस पर सच्चिदानंद स्वरूप ईश्वर के नाम की मस्ती चढ़ जाती है उनके लिए सांसारिक बातें कितनी छोटी होकर रह जाती हैं? यहां तक कि वह अपने कपड़ों की ओर भी ध्यान नही देते हैं कि वह किसी ऐसी अवस्था में तो नही आ गये हैं जिन्हें लोग उनकी बेअदबी समझ सकते हैं। उनके आत्मज्ञान की गहराई में ये ऊपरी बातें कहीं यूं ही खोकर रह जाती हैं। पर यह भी अद्भुत संयोग ही था कि जो स्वयं बेअदब रहकर भौतिक वस्त्रों में अपनी इस बेअदबी को छिपाने का ढोंग करते हैं वही लोग फकीरों से यह पूछने का साहस करते हैं कि क्या तुम्हें अदब से रहना नही आता?
बादशाह ने रात भर पानी में खड़े रहे फकीर को प्रात: अपने दरबार में बुलाया। उससे पूछा-कहिए महोदय कैसी गुजरी?
फकीर ने कहा-‘कुछ तेरी सी गुजरी कुछ तेरे से अच्छी गुजरी।’
वैरागी का आत्मघाती वैराग्य
वीर वैरागी की भी कुछ मुगलों सी गुजर रही थी तो कुछ उनसे भी अच्छी गुजर रही थी। उसका राजसिक क्षत्रिय स्वरूप उसे मुगलों का सा वैभवपूर्ण जीवन जीने के लिए प्रेरित करता था जिसे वह देशधर्म की रक्षार्थ प्रयोग करता था तो कुछ सबसे श्रेष्ठ गुजरती थी और वह उसका भक्ति का जीवन था। वैसे उसका वैराग्य उसके लिए आत्मघाती भी सिद्घ हुआ। जैसा कि भाई परमानंद जी कहते हैं:-
”बहादुरशाह की मृत्यु पर दरबार के अमीरों में कई दल बन गये। गद्दी के उत्तराधिकारियों में ऐसी तलवार चली कि एक वर्ष में ही कइयों का अंत हो गया। इन अमीरों में से दो सैयद बंधुओं की शक्ति सबसे अधिक बढ़ गयी। इनकी सहायता से फर्रूखसियर बादशाह बना, उसने भी कुछ ही वर्ष शासन किया। यद्यपि वह स्वयं सुखभोग में मस्त रहता था तो भी इसके शासनकाल की बड़ी घटना वैरागी की गिरफ्तारी और इसका वध है। यह कहना बड़ा कठिन है कि इस कार्य में उसका कितना भाग था? परंतु सिख कथाओं में फर्रूखसियर का नाम बहुत बुरी तरह से लिया जाता है। वैरागी के बाद सिखों के साथ सब प्रतिज्ञाएं भंग करके उनके साथ जो अत्याचार किये गये, उनका उत्तरदायी इसे ही ठहराया जाता है।
जिस समय दिल्ली के अमीर परस्पर दलबंदी करके अपने-अपने राजकुमारों को राजसिंहासन पर बिठाकर उनका वध करवा रहे थे, वह समय वैरागी के लिए सुअवसर था। पंजाब में वह अपना राज्य स्थापित कर सकता था। जैसा कि बाद में महाराजा रणजीतसिंह को करना पड़ा। किंतु वैरागी ने इसका विचार तक नही किया। यदि वह ऐसा करता तो बाद की घटनाएं देखने में नहीं आतीं और न फर्रूखसीयर की नीति की सफलता के लिए कोई अवसर रहता। वैरागी के जीवन भर की एक ही भूल थी कि उसके भीतर से वैराग्य की गंध सर्वथा न निकल सकी। जहां एक ओर इस आत्म त्याग में उसकी महानता पायी जाती है, वहां यह बात स्वाभाविक थी। उसने विवाह कर लिया। वैरागी लोग अब विवाह करते हैं। किंतु राज्य को हाथ में लेकर वह अपने वैराग्य को कलंकित करना नहीं चाहता था। इसका परिणाम स्वयं वैरागी के लिए तथा हिंदू धर्म के लिए प्राणघातक सिद्घ हुआ। वैदिक धर्म के अनुसार राज्य त्याग भले ही उच्च पद रखता हो, किंतु राजनीतिक धर्म की दृष्टि से यह ऐसी भूल थी जिसका सुधार नहीं हो सकता।”
अति सिद्घान्तवादिता भी होती है घातक
कहने का अभिप्राय है कि अति सर्वत्र वर्जित होती है। महाभारत काल में भी भीष्म पितामह ने अपने सिद्घांत की उस समय अति कर दी थी जब माता सत्यवती के कहने पर उत्तराधिकारी से विहीन हुए हस्तिनापुर के राज्य सिंहासन पर उसने शासक के रूप में बैठने से इंकार कर दिया था। यदि भीष्म उस समय ऐसी भूल न करके स्वयं सिंहासनारूढ़ हो गये होते तो बाद ही दुखद घटनाएं ना होतीं। सिद्घांत व्यक्ति के रक्षक होते हैं इसमें दो मत नहीं, पर जब उनके प्रति व्यक्ति अति करता है तो वही सिद्घांत उसके लिए भक्षक भी बन जाते हैं। यह ही अच्छा होता कि वैरागी स्वयं राज्य संभालता और जब मुगल सत्ता उत्तराधिकार के युद्घ में उलझी पड़ी थी, उसी समय हिंदुस्तान के उत्तराधिकारी का निर्णय कर लिया जाता। शत्रु उस समय निस्संदेह दुर्बल था और शत्रु की दुर्बलता का लाभ उठाना भी युद्घनीति का एक अंग होता है। राज्य का स्थापित करना सरल है, पर राज्य का संचालन करना कठिन है। राज्य को लोकमंगलकारी बनाकर चलाना और जनता का विश्वास सदा जीतकर रखना तो और भी कठिन है। नये राज्य की स्थापना करते समय उसे आप अपनी जागीर समझकर किसी भी व्यक्ति को यूं ही नहीं सौंप सकते। विशेषत: तब जबकि उस राज्य के लोग आपको अपना नेता मान रहे हों।
वैरागी को लोग अपना नेता (राजा) मान रहे थे परंतु वैरागी राज्य भार संभालने के प्रति अपना वैराग्य भाव दिखाकर उन्हें निराश कर रहा था। वह जितना ही उन्हें ऐसी निराशा की ओर धकेलता था उतना ही लोग उससे दूरी बनाते थे। उससे विरोधियों को यह कहने का अवसर मिलता था कि उसमें राज्य करने की क्षमताएं ही नही हैं।
लोगों को उसके विरोधियों की बातें यद्यपि अतार्किक लगती थीं-पर कुछ कालोपरांत इन अतार्किक बातों में भी कुछ तर्क दिखाई देने लगा। जब अतार्किक बातें भी कुछ तर्कसंगत लगने लगें तो उस समय समझना चाहिए कि कुछ ऐसा होने वाला है जो दुखद हो, अन्यायपरक हो, देश धर्म और जाति के लिए कष्टप्रद हो।
फर्रूखसियर ने बिछाया जाल
फर्रूखसियर दिल्ली के राज्यसिंहासन पर बैठा तो उसके बादशाह बनने से वीर वैरागी के विरोधियों की बांछें खिल गयीं। बादशाह स्वयं भी वैरागी को अपने लिए एक चुनौती मान रहा था। इसलिए वह इस चुनौती से निपटना भी चाहता था। फलस्वरूप बादशाह ने सूबा लाहौर को आदेश दिया कि वह वैरागी के सिखों को चेतावनी दे दे। बादशाह के आदेश का अनुपालन करने हेतु सूबा लाहौर सरहिंद पर सेना ले जाकर जा चढ़ा। उसने वहां के सिखों को पराजित किया। इस घटना की सूचना जब वैरागी को मिली तो वह अपनी सेना लेकर वहां आ गया। दोनों पक्षों में जमकर संघर्ष हुआ। वैरागी की पराक्रमी तलवार के समक्ष मुगलिया सेना रूक नहीं पायी और उसे युद्घक्षेत्र से भागना पड़ा।
रचे जाने लगे नये षडय़ंत्र
इस प्रकार की अपमानजनक पराजय से फर्रूखसियर को बड़ा दुख हुआ। उसने निर्णय लिया कि वैरागी को नियंत्रण में लेने के लिए कोई अन्य रास्ता अपनाया जाए। स्वाभाविक था कि यह अन्य रास्ता कोई षडय़ंत्र ही हो सकता था। फर्रूखसीयर ने माता सुंदरी के पास अपने एक हिंदू मंत्री रामदयाल को भेजा और उनसे उसने बड़े अनुनय-विनय के साथ अपने एक पत्र के द्वारा यह सूचना भेजी कि हम तो सदा ही गुरूओं के प्रति सम्मान प्रदर्शित करने वाले रहे हैं।
”हमारा वंश गुरू का सेवक है। बाबा नानक ने ही हमारे वंश को बादशाही वर दिया था। वैरागी अकारण ही प्रजा पर अत्याचार कर रहा है। इसे पत्र लिखिए कि वह अपनी अनुचित कार्यवाहियों से टल जाए। बादशाह सिखों को जागीरें देने के लिए तैयार है।”
फर्रूखसीयर की बातों में माता सुंदरी आ गयी। यद्यपि उनके परामर्शदाताओं ने उन्हें बहुत समझाया कि वह बादशाह की बातों में न आये और ना ही वैरागी को किसी प्रकार का पत्र लिखे। पर माता ने पत्र लिख दिया-”तुम गुरू के सच्चे सिख साबित हुए हो, तुमने पंथ की बड़ी सेवा की है। इसे डूबने से बचाया है। परंतु अब बादशाह जागीर देने पर राजी है। तुम जागीर स्वीकार कर लो। हमारा कहना मान जाओ और लूटमार बंद कर दो।”
भाई परमानंद जीलिखते हैं-‘वैरागी ने पत्र पढ़ा। पढ़ते ही उसका मुख लाल हो गया। उसी समय दरबार किया गया।’ अब पत्र सुनकर वैरागी ने कहा-‘स्त्री की मति उसकी खुरी में होती है। माई तुर्कों के छल को क्या समझती है। जो इसने हमें ऐसा पत्र लिखा है।’
थोड़े क्रोध में आकर वैरागी ने उत्तर लिखा ”आप सिख हो, मै वैरागी साधु हूं। मैं कभी गुरू का सिख नहीं रहा। गुरू गोविंदसिंह मुझे मिले अवश्य थे। एक बार उन्होंने मुझसे कहा था कि मेरे बच्चों का प्रतिकार लो। मैंने अपनी तलवार तथा धनुषवाण से इतना प्रदेश जीता है। इन्हीं की शक्ति से लाहौर और दिल्ली जीतूंगा। न मैं किसी की जागीर लेना चाहता हूं न किसी का उपकार मानता हूं। आप जाओ, किंतु जब तक हमारे हृदयों के भीतर गुरूपुत्रों की स्मृति शेष है हम अपने निश्चय को कभी निर्बल न होने देंगे।”
एक शाश्वत सत्य
चीनी महात्मा च्वांगत्से एक बार शाही श्मशान में से गुजरते हुए कहीं जा रहे थे। तभी उनका पैर अचानक एक खोपड़ी से टकरा गया। महात्मा रूके और खोपड़ी को दोनों हाथों में उठाकर बार-बार क्षमा याचना करने लगे। वे खोपड़ी को अपने घर ले गये और उसके सामने सिर झुकाकर क्षमा मांगने लगे। मित्रों ने यह दृश्य देखा और कहा-”च्वांगत्से तुम पागल तो नहीं हो गये हो बार-बार मृतक की खोपड़ी से क्षमा मांगने से क्या लाभ?” इस पर महात्मा ने कहा-”तुम लोग नहीं जानते कि वह किसी बहुत बड़े सम्राट की खोपड़ी है। यदि आज यह जीवित होता तो न जाने मुझे कितना दण्ड देता? इसके जीवनकाल में न जाने कितने लोग इससे भयभीतर रहे होंगे। इसके इशारे पर नाचे होंगे। इसने तो कल्पना भी नहीं की होगी कि एक दिन ऐसा भी आएगा जब उसकी खोपड़ी श्मशान में लावारिस पड़ी किसी के पांवों की ठोकरें भी खाएगी और वह कुछ नहीं कर पाएगा। मृत्यु का चिरन्तन सत्य है और इससे आज तक कोई नहीं बच पाया, यही समझने की बात है।”
माता ने मांग लिया शीश का मूल्य
माता सुंदरी ने गुरू तेगबहादुर के शीश (खोपड़ी) का कोई मूल्य नही समझा। वीर वैरागी को हतोत्साहित करने का पत्र लिखकर मानो माता ने गुरू के शीश का मूल्य मांग लिया था। जिस प्रकार मनुष्य सहित किसी भी प्राणी के लिए मृत्यु एक शाश्वत सत्य है उसी प्रकार नारी का चरित्र भी एक ऐसा शाश्वत सत्य है जिसे व्यक्ति समझ नहीं पाता। जो मां कभी शत्रु के प्रति अपने बच्चों को सजग कर उन्हें आत्म बलिदानी बनने का पाठ पढ़ाया करती थी वही मां आज ऐसे पत्र लिखने लगी जो पूरी हिंदू जाति का मनोबल तोडऩे में सहायक हो सकते थे-तो इसे आप नारी चरित्र का रहस्य कहेंगे या समय का परिवर्तन?
अंधभक्ति ने कर दिया सर्वनाश
अंधभक्ति व्यक्ति के विवेक के कपाटों को बंद कर देती है। सीमा से बढक़र व्यक्त की जाने वाली श्रद्घा आपकी अपनी बुद्घि और आपके अपने तर्क को शून्य कर देती है। इसलिए जब माता सुंदरी का वह पत्र वैरागी के पास आया तो बहुत से लोगों ने उसे यथावत मानने के लिए वैरागी को प्रेरित किया।
वैदिक संस्कृति में अनुचित अतार्किक और अन्यायपरक कथन या कृत्य का विरोध करना प्रत्येक व्यक्ति का मौलिक अधिकार भी है और मौलिक कत्र्तव्य भी।
विश्व के हर धार्मिक ग्रंथ या संविधान ने अपने-अपने नागरिकों को मौलिक अधिकार दिये हैं और उनके साथ-साथ कुछ कत्र्तव्य भी इंगित किये हैं, पर वेद से अलग विश्व के किसी धार्मिक ग्रंथ या संविधान ने कुछ ऐसी व्यवस्थाएं प्रदान नहीं की हैं, जो एक ही साथ मौलिक अधिकार भी हों और मौलिक कत्र्तव्य भी। इसीलिए वेद विश्व के सभी धार्मिक ग्रंथों तथा संविधानों में सर्वोपरि है।
वैदिक संस्कृति की मान्यता
वैदिक संस्कृति की मान्यता है कि माता-पिता और गुरू के कथन या कृत्य में भी यदि कहीं शास्त्र विरोधी (समाज विरोधी और राष्ट्रविरोधी) बात मिलती है तो उसका विरोध करना हमारा मौलिक अधिकार और मौलिक कत्र्तव्य है। इसलिए माता सुंदरी के इस पत्र का विरोध किया जाना आवश्यक था और अच्छा होता कि एक स्वर से उसे अस्वीकार कर दिया जाता, पर ऐसा हुआ नहीं। जब वैरागी का उत्तर बादशाह के दरबार में पहुंचा तो दोनों गुरू पत्नियां (माता सुंदरी और साहब देवी) ने इसे अपना अपमान समझा।
ये दोनों देवियां उन दिनों दिल्ली में ही निवास कर रही थीं और बादशाह ने एक छलपूर्ण षडय़ंत्र के अंतर्गत इन दोनों को ही वैरागी को पत्र लिखने के लिए प्रेरित किया था। फर्रूखसियर ने इन दोनों माताओं की सुख सुविधाएं बढ़ा दीं। इसलिए इन माताओं ने सिखों को लिखना आरंभ कर दिया कि तुममें से जो भी गुरू गोविन्दसिंह का सच्चा शिष्य है वह वैरागी का साथ न दे।
विनाश काले विपरीत बुद्घि
इस पत्र से प्रभावित होकर सिखों ने वैरागी का साथ देना छोडऩा आरंभ कर दिया। जब सिखों ने इन माताओं से पूछा कि यदि हम वैरागी का साथ छोड़ देंगे, तो अपने राज्य की रक्षा के लिए अगुआ किसे बनायें? इस पर माताओं ने व्यवस्था दी कि गुरू को सदा अपने अंग-संग समझो। ग्रंथ साहिब ही तुम्हारे अगुवा हैं। कभी वैरागी के सामने सिर नहीं झुकाना है।
”विनाश काले विपरीत बुद्घि” इसी को कहते हैं, जब माता के माध्यम से सारे देश को यह संदेश जाना चाहिए था कि देश धर्म की रक्षा के लिए सबके सब वैरागी के पीछे खड़े हो जाओ, तब उन्होंने देश से कहना आरंभ कर दिया कि अपना भला चाहते हो तो वैरागी का साथ छोड़ दो। शत्रु अपने षडय़ंत्र में सफल हो रहा था और हम उसके बिछाये जाल में फंसते जा रहे थे।
क्रमश:
(लेखक की पुस्तक प्राप्ति हेतु डायमण्ड पॉकेट बुक्स प्रा. लिमिटेड एक्स-30 ओखला इंडस्ट्रियल एरिया फेस-द्वितीय नई दिल्ली-110020, फोन नं. 011-40712100 पर संपर्क किया जा सकता है।
(साहित्य सम्पादक)

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