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गीता का कर्मयोग और आज का विश्व संपादकीय

गीता का कर्मयोग और आज का विश्व, भाग-80

गीता का पंद्रहवां अध्याय और विश्व समाज
जो लोग अपनी ज्ञान रूपी खडग़ से या तलवार से संसार वृक्ष की जड़ों को काट लेते हैं और विषयों के विशाल भ्रमचक्र से मुक्त हो जाते हैं- उनके लिए गीता कहती है कि ऐसे लोग अभिमान और मोह से मुक्त हो गये हैं, उन्होंने आसक्ति के दोषों को भी जीत लिया है। ये आत्मा में निमग्न हो उसके आनन्द लोक को समझ लेते हैं और उस आनंदलोक के वासी होने से इनकी सभी कामनाएं भी शान्त हो जाती हैं। सारे द्वन्द्वों का ताप भी इन्हें नहीं सताता। इस प्रकार ऐसे लोग अविनाशी पद को प्राप्त कर लेते हैं।
यह अविनाशी पद ही परमधाम है, यही मोक्षानन्द है। इस ऊंचाई पर पहुंचने के पश्चात किसी का लौटना संभव नहीं है। भारत में किसी व्यक्ति के मरने के पश्चात कहा जाता है कि उन्हें ‘ऊपर वाले’ ने बुला लिया है। ‘ऊपर वाले ने बुला लिया है’-इसका कितना बड़ा और कितना प्यारा अर्थ है? हम किसी के जाने के पश्चात भी उसे सम्मानवश यही कहते हैं कि उसे ‘ऊपर वाले’ ने बुला लिया। यह मृत्यु में भी आनंद खोजने की भारत की सद्परम्परा है। जिसे सही अर्थों में लेने की आवश्यकता है। गीता कहती है कि वहां से कोई लौटकर नहीं आता। वैसे तो वहां से सभी लौट आते हैं। पर जिन्हें मोक्ष प्राप्त हो जाता है उन पर यह बात लागू नहीं होती। यद्यपि मुक्ति से पुनरावृत्ति की बात भारत की वैदिक संस्कृति में मानी जाती है, पर वह पुनरावृत्ति बहुत देर बाद होती है। ‘ऊपर वाले’ के द्वारा जब जीवन्मुक्त आत्माएं बुला ली जाती हैं तो वे आत्माएं ‘ऊपर वाली’ ही होकर रह जाती हैं। यह बहुत बड़ी बात है-इसे समझने की आवश्यकता है। वह ऐसा लोक है जहां न वहां सूर्य को प्रकाश देना पड़ता है न चन्द्र को और न अग्नि को।
गीता में जीव का वर्णन
गीता में जीव को ईश्वर का अंश कहा गया है इसे श्रीकृष्णजी ने ‘ममैवांश’ अर्थात मेरा ही एक अंश-ऐसा कहा है। वह कहते हैं कि यह सदा से है, सनातन है-अब से पूर्व भी था, आज भी है और जैसा आज है वैसा ही आगे भी रहेगा। इसीलिए यह सनातन है, सदा विद्यमान रहने वाला है। जैसे वर्तमान काल सदा विद्यमान है वैसे ही सनातन सदा विद्यमान है, उपस्थित है, वर्तमान है, मौजूद है। ईश्वर का अंश होने का अभिप्राय यही है कि जीव ईश्वर के समान अविनाशी है। वह सनातन है। सनातन ही सनातन का अंश हो सकता है। अंश का अभिप्राय टुकड़ा नहीं है, जैसा कि कुछ लोग भ्रांति वश कह दिया करते हैं या मान लेते हैं। जब यह जीव पांचों इन्द्रियों और छठे मन को अपनी ओर खींच लेता है अर्थात उनसे युक्त हो जाता है तो जन्म हो जाता है। जब यह जीव इस शरीर को छोड़ता है तो इन छहों को साथ ले जाता है अर्थात जन्म लेता है तो पहले इन्हें धारता है और शरीर छोड़ता है तो भी इन्हें साथ ले जाता है। यह ठीक वैसे ही है जैसे वायु गन्ध को अपने आशय से अपने उद्गम स्थान से अपने साथ ले जाती है।
आजकल वायुयानों में एक ‘ब्लैकबॉक्स’ नाम का उपकरण होता है, जो वायुयान की किसी भी प्रकार की भयंकरतम दुर्घटना में भी नष्ट नहीं होता है। उसमें किसी भी दुर्घटना के कारण भी समाविष्ट होते जाते हैं। इसीलिए वैज्ञानिक लोग किसी भी विमान की दुर्घटना के समय उसके ‘ब्लैक बॉक्स’ को देखकर पता लगा लेते हैं कि विमान दुर्घटना ग्रस्त क्यों हुआ? इसी प्रकार जीव के साथ जाने वाले अंत:करण में यहां का बहुत कुछ समाहित होता है। उसकी रील को देखकर पता चल जाता है कि यह मनुष्य संसार में रहकर क्या करता रहा या वहां से क्या करके आया है? इसी बात को श्रीकृष्णजी यहां पांचों इन्द्रियों और छठे मन की बात को कहकर समझा रहे हैं। जब यह जीव संसार में शरीर धारण करके रहता है तो यह कान, आंख, त्वचा, जीभ, नाक, और मन का आश्रय लेकर विषयों का सेवन करता है।
ऋग्वेद के पुरूष सूक्त (10-90-3) में आया है कि ब्रह्म के एक पाद से-एक अंश से यह विश्व बना है, तीन पाद तीन अंश उसके द्युलोक में हैं। सत्यव्रत सिद्घान्तालंकार जी कहते हैं कि इसका अभिप्राय ये है कि यह जो चराचर जगत दिखायी देता है वह तो उसका कुछ ही अंश है द्युलोक में देखें तो न जाने कितनी दूर तक यह सृष्टि चली गयी है?
वेद की इसी बात को आधार बनाकर गीताकार ने जीव को ब्रह्म का अंश बता दिया है। अंश पर शंकराचार्य जी का कथन है कि जैसे आकाश सर्वव्यापक है, परन्तु घड़े का आकाश, घट के भीतर का आकाश घटाकाश-सठाकाश उसके अंश कहे जा सकते हैं वैसे ब्रह्म का जीव अंश है।
इस देह में जो ब्रह्म जीव रूप में वर्तमान है वह ब्रह्म का अंश है-‘ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्म नापर:।’
योगेश्वर श्री कृष्णजी ने जीव के शरीर से निकलने और नये शरीर में प्रवेश करने की वैज्ञानिक और तर्क संगत बात कही कि पांच इन्द्रियों तथा छठे मन के संघात का नाम लिंग है। आगे श्रीकृष्ण जी कहते हैं कि जब यह जीव इस शरीर से निकल जाता है या इसमें आकर स्थित हो जाता है अर्थात नया शरीर धारण कर लेता है तो वह प्रकृति के तीन गुणों अर्थात सत्व, रज और तम के संपर्क में आकर भोगों को भोगता है। भोगों को भोगने का क्रम इस प्रकार तभी चलता है जब जीव का शरीर के साथ संयोग हो जाता है। बिना शरीर के जीव भोगों को नहीं भोग सकता। भोगों को भोगने वाले इस जीव को मूढ़ अज्ञानी लोग नहीं देख पाते। वैसे तो वे बेचारे अज्ञानान्धकार में ही भटकते रहते हैं, उनके लिए यह शरीर कुछ पुर्जों का संघात मात्र भी नहीं है। वे तो सोचते हैं कि यह शरीर बस यूं ही मजाक -मजाक में ही बन गया और अब हम इसे प्रयोग कर रहे हैं। इसके पीछे का विज्ञान वह नहीं जानते। इसलिए उन्हें इस शरीर के भीतर रहने वाला जीव दिखायी नहीं देता। परन्तु जो लोग ज्ञानी हैं- वे इसे देख पाते हैं। जिन्होंने इस शरीर के विज्ञान को समझा है, जाना है-वे जानते हैं कि इसके भीतर रहने वाला जीव क्या है? कौन है? कहां से आया है और क्यों आया है?
गीता कहती है कि पूर्ण मनोयोग से अर्थात यत्नपूर्वक साधना में लगे हुए योगीजनआत्मा में परमात्मा का दर्शन कर लेते हैं। आत्म साक्षात्कार इसी को कहते हैं। वह ज्योतियों का ज्योति परमात्मा ऐसे योगी जनों को उनके हृदय में दिखायी दे जाता है। वे उसके आनन्द में लीन हो ब्रह्मलीन हो जाते हैं।
जो लोग ‘बुद्घि से पैदल’ होते हैं-बुद्घि से काम नहीं लेते हैं, मुठमर्दी का बर्ताव करते हैं -उन्हें ‘गीता’ ‘अचेता’ कहती है। मानो ये अचेतावस्था में रहते हैं। अन्न के नशे में पड़े सड़ते रहते हैं। मोटी बुद्घि होने के कारण ज्ञान-विज्ञान की बातों को समझने का प्रयास तक नहीं करते। ये चित्त से या बुद्घि से काम नहीं लेते हैं। ये अपने अंत:करण को शुद्घ नहीं कर पाये अर्थात कृत-कृत्य नहीं कर पाये, इसलिए इस प्रकार के लोगों को गीता अकृतात्मा कहकर सम्बोधित करती है। इसका अभिप्राय ये है कि मनुष्य को मानव जीवन पाकर अन्त:करण की शुद्घि पर विशेष ध्यान देना चाहिए। यदि अन्त:करण की शुद्घि पर ध्यान नहीं दिया तो परमात्मा को चाहकर भी नहीं देख पाएंगे।
क्रमश:

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