श्रीरामजन्मभूमि अयोध्या के इतिहास की संघर्ष गाथा-भाग-1

अयोध्या मथुरा माया काशी कांची अवन्तिका। 
पुरी द्वारा चैव सप्तैता मोक्षदायिका।।
-अयोध्या, मथुरा, मायानगरी (हरिद्वार) काशी, कांची जगन्नाथपुरी व द्वारिका नगरी ये (पुराणों के अनुसार) सात मोक्षदायिनी नगरी मानी गयी हैं। जिनमें अयोध्या का नाम प्रथम स्थान पर अंकित है, जो मर्यादा पुरूषोत्तम श्रीराम की जन्मस्थली है। प्राचीन इतिहास के अनुसार जगद्गुरू भारतवर्ष की राजधानी अयोध्या विश्व की राजधानी थी। अवधपुरी नाम से प्रख्यात नगरी में मनु के ज्येष्ठ पुत्र इक्ष्वाकु शासक बने। अवध अर्थात जिसका वध न किया जा सके और अयोध्या अर्थात जिसे युद्घ में जीता न जा सके। इक्ष्वाकु से लेकर राम के समय तक का सूर्यवंश का इतिहास विभिन्न शास्त्रों में उपलब्ध है। अथर्ववेद (10/2/32) में उपलब्ध मंत्र को देखें :-
अष्टावक्रा नवद्वारा देवानां पूरयोध्या।।
तस्यां हिरण्यमय: कोशे स्वर्गोज्योविषावृता।।
आठ चक्रों और नवद्वारों वाली यह नगरी देवताओं द्वारा पूजित है, और उसका कोष स्वर्ण से भरा हुआ है जो स्वर्ग के समान है।
इतिहास में उल्लेख है कि चन्द्रगुप्त मौर्य, सम्राट अशोक तथा वृहद्रथ के समय में भारत की राजधानी पाटलीपुत्र (पटना) रही, परन्तु पुश्यमित्र शुंग ने अयोध्या को अपनी राजधानी बनाकर (ईसा के 185 वर्ष पूर्व) पुन: श्रीराम का गौरव बढ़ाया।
इसके बाद चौथी शती में स्कंद गुप्त ने अपनी राजधानी अयोध्या बनाई थी। जैन ग्रंथों में राम को मोक्षगामी माना गया है। जैनों के 24 तीर्थकारों में 5 का जन्म अयोध्या में ही हुआ था। इनमें से प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ (ऋषभनाथ) का जन्म भी अयोध्या में ही हुआ था।
प्रथम विदेशी आक्रमण
2167 वर्ष पहले अयोध्या पर प्रथम विदेशी आक्रमण हुआ था। ईसा वर्ष 150 के काल में मिनेंडर या मिलिन्द ने अयोध्या पर आक्रमण किया जो यवन था, परन्तु बौद्घ बन गया था (पातंजलि महाकाव्य पृष्ठ 119) यह पहला विदेशी आक्रमण था-जिसमें राम मंदिर को गिरा दिया गया था। इस घटना के 3 माह बाद ही पुष्यमित्र शुंग वंश के राजा द्युमत्सेन ने उसका प्रतिरोध किया और मिलिन्द की हत्या करके अयोध्या को पुन: अपने राज्य में मिला लिया।
द्युमत्सेन का राज्य शासन 52 वर्षों तक रहा। परन्तु राम मंदिर का पुनर्निर्माण करने का सौभाग्य चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य प्रथम को मिला जिनका शासनकाल 320 ई. से प्रारम्भ हुआ । आगामी काल खण्ड में सन 600 तक भारत ‘सोने की चिडिय़ा’ नाम से विख्यात रहा। सन 606 से 647 तक कन्नौज देश की राजधानी रही। हर्षवर्धन, यशोवर्धन आदि राजा भी इस अवधि में रहे।
दूसरा विदेशी आक्रमण
दूसरा विदेशी आक्रमण सन 1033 में हुआ-भारत पर महमूद गजनवी द्वारा 1001 से सन 1023 तक 12 बार आक्रमण किये गये। उसने 9वें आक्रमण के समय (1017 से 1019) मथुरा के कृष्ण मंदिर को ध्वस्त किया। उसके उत्तराधिकारी सालार मसूद द्वारा 1033 में अयोध्या के राम मंदिर को ध्वस्त करने का षडय़ंत्र रचा गया तथा मसूद को 50 हजार की सेना के साथ कब्र में सुला दिया गया, जिसका प्रमाण आज भी सीतापुर के पास सिधौली से 3 किलोमीटर दूर बाड़ी नामक ग्राम में बनी 5 कब्रें हैं-जिन्हें पंचपीर कहा जाता है। राजा सुहेल देव को सलार मसूद पर यह विजय 14 जून 1033 को बहराइच से 10 कोस दूर प्रयाग के निकट घाघरा नदी के तट पर मिली। सालार मसूद की मौत के बाद अजमेर से सेना लेकर मुजफ्फर खान आया, उसे भी मार डाला गया। इतिहासकार शेख अब्दुर्रहमान चिश्ती ने अपनी पुस्तक ‘मीरा-ए-मसूदी’ में लिखा है कि इस्लाम के नाम पर जो अंधड़ अयोध्या व बहराइच तक जा पहुंचा था-वह सब धराशायी कर दिया गया और इस युद्घ में अरब ईरान के हजारों घरों के चिराग बुझ गये। इसके 160 वर्ष बाद तक मुसलमान भारत पर कोई आक्रमण करने में सफल नहीं हो सके। इसके बाद अयोध्या पर गहड़वाल वंश का शासन रहा। इसी वंश के राजा गोविन्द चन्द्र भी सालार मसूद से युद्घ में लड़े थे जो राजा मदनपाल के युवराज थे।
जब वह नष्ट हो गया। इस युद्घ में अरब ईरान के हजारों घरों के चिराग बुझ गये।
उपलब्ध शिलालेखों के प्राप्त प्रमाण
अयोध्या में 6 दिसंबर 1992 को जिस विवादित बाबरी ढांचे को ध्वस्त किया गया-उसमें अनेक शिलालेख प्राप्त हुए (250 से अधिक) जो आज भी पुलिस के पास सुरक्षित हैं।
इन पुरावशेषों से यह स्पष्ट प्रमाण मिल चुके हैं कि सन 1114 से 1154 के बीच अयोध्या के राजा रहे गोविन्द चन्द्र देव एवं उनके वंशजों ने यहां मंदिर का पुनर्निमाण कराया था। इसी मंदिर को बाबर ने 1528 में तुड़वाया था।
राजा गोविन्द चन्द्र देव केे बाद मोहम्मद गोरी, गुलामवंश, खिलजी वंश, तुगलक वंश, सैयद वंश व लोदी वंश के आक्रमण व शासन भारत पर चलते रहे, किंतु इस अवधि में अयोध्या का राम मंदिर सुरक्षित रहा।
बाबर के हुक्मनामों के अनुसार उसके सेनापति मीरबाकी ने जब राम मंदिर तोडक़र बाबरी मस्जिद बनवानी प्रारंभ की तो अनुभव हुआ कि दिन में जो मस्जिद की दीवारें खड़ी की जाती हैं वे रात में गिर जाती हैं। यह विषय हिंदुओं के प्रतिरोध से स्पष्टत: जुड़ा हुआ था। लखनऊ गजेटियर के भाग 36 पृष्ठ 3 पर लिखा है-‘जन्मभूमि के मंदिर को गिराये जाने के समय हिंदुओं ने अपनी जान की बाजी लगा दी थी और एक लाख 73 हजार हिंदुओं की लाशें गिर जाने के बाद मीर बाकी ने तोप से मंदिर को गिरा दिया। 23 मार्च 1528 को राम मंदिर जमींदोज (भूमिसात) कर दिया गया था।’ तुजुक-ए-बाबरी के पृष्ठ 580 के अनुसार देवदीन पांडे नामक राजा तथा भीटी नामक स्थान के महाराजा मेहताब सिंह ने मंदिर गिराने के विरूद्घ भीषण युद्घ किया था। कुल 17 दिन चले इस युद्घ में मीर बाकी की एक लाख 75 हजार की मुस्लिम सेना के लगभग 1 लाख 30 हजार सैनिक मार डाले गये थे। मीरबाकी भी भीषण आघात लगने से मूच्र्छित हो गया था, जिसे उठाकर ले जाया गया और बाद में उसके प्राण बच गये। देवीदीन पांडे ने 70 हजार युवकों की सेना तैयार करके महाराजा मेहताब सिंह की सेना के साथ मिलकर दोनों ने मीरबाकी की सेना से भीषण रण संग्राम किया। मेहताब सिंह की सेना 8 दिन तक मुस्लिम सेना से संघर्षरत रही और 9वें दिन देवीदीन पांडे के नेतृत्व में 70 हजार युवकों की सेना साथ में जुड़ गयी। पांडे ने केवल 3 घंटे के युद्घ में 700 मुस्लिम सैनिक मार डाले। सिर में ईंट की भीषण चोट लगने पर भी वह सिर पर पगड़ी बांधकर लड़ता रहा। दोनों ही युद्घ में घायल हुए। युद्घ विराम के बाद 9 जून 1528 को देवीदीन का निधन हुआ और उसके कुछ दिन पहले ही राजा मेहताब सिंह भी वीरगति को प्राप्त हुए।
1526 से 1530 तक 4 वर्ष के बाबर काल में हिंदुओं ने चार भीषण युद्घ लड़े जिनमें 1 लाख 73 हजार लोगों का बलिदान हुआ।
हुमायूं के समय हुए 10 आक्रमण (सन 1530 से 1556 तक)
सन 1530 से 1556 तक हुमायूं के शासनकाल में हिन्दुओं ने पहले राजा रण विजय सिंह के नेतृत्व में तथा उनके बलिदान के बाद उनकी रानी जयराज कुमारी तथा स्वामी महेश्वरानन्द के नेतृत्व में लगभग 10 बार संघर्ष किये। अंत में दोनों की प्राणाहुति राम मंदिर के लिए हो गयी।
अकबर के समय 20 आक्रमण हुए
सन 1556 से 1604 तक तक अकबर के राज में अयोध्या की रक्षा के लिए लगभग 20 बार भीषण संघर्ष किये गये। स्वामी बल्लभाचार्य के नेतृत्व में सामान्य जन-समूहों द्वारा बाबरी मस्जिद की तोड़-फोड़ की गयी तो कभी हिन्दू विजयी होते रहे और कभी शाही सेना। अकबर ने विपरीत स्थिति देखकर मस्जिद परिसर के बाहर एक चबूतरा बनवाकर राम की पूजा करने की अनुमति प्रदान की। ‘दीन-ए-अकबरी’ में छपे वर्णन के अनुसार अकबर ने अयोध्या विवाद के समाधान के लिए बीरबल व टोडरमल को मध्यस्थ बनाया था। उन्हीं की सहमति से ‘राम चबूतरे’ पर पूजा की सुविधा प्रदान की गयी। यह समझौता बाद में जहांगीर (1628 से 1658) के काल तक यथावत बना रहा।
औरंगजेब के काल में 30 बार भीषण संघर्ष हुए औरंगजेब राज्यकाल (1658 से 1707)
औरंगजेब ने राम चबूतरे को नष्ट करने का आदेश दिया। सरयू किनारे बने अहिल्या घाट पर स्थित परशुराम मठ के अधिष्ठाता संत वैष्णवदास ने 10 हजार चिमटाधारी साधुओं की सेना तैयार करके राम चबूतरे की रक्षा करने का शंखनाद किया। दिल्ली से हसनअली खान के नेतृत्व में औरंगजेब ने मुगल सेना को अयोध्या कूच करने का हुक्म दिया। इसका पता चलने पर संत वैष्णवदास ने गुरू गोविन्द सिंह के पास संदेश भेजा जो उस समय आगरा में मुगल सेना से संघर्ष कर रहे थे।
समाचार पाकर गुरू गोविन्द सिंह जी अपनी सेना के साथ अयोध्या पहुंच गये। दिल्ली से चली 50 हजार की मुगल सेना को अयोध्या से 35 किलोमीटर पहले रूदौली में हिंदुओं से भीषण संग्राम करना पड़ा। फिर दूसरा संग्राम अयोध्या से 10 किलोमीटर पहले सआदतगंज के पास हुआ, जिसमें गुरू गोविन्दसिंह जी की सिख सेना ने हसन अली की मुगल सेना की तोपों को छीनकर उन्हीं के गोला बारूद से उन्हें ध्वस्त कर दिया। थोड़ी सी मुगल सेना जान बचाकर भागी और अयोध्या पहुंच गयी। जहां चिमटाधारी वैष्णवदाव सेना से उसका भीषण संग्राम हुआ। आलमगीर नामा (पृ. 623) में औरंगजेब ने लिखा कि काफिरों ने 30 हमले किये, शाही फौज हार गयी और शहजादा मनसबदार हसन अली खान भी इस लड़ाई में मारा गया। हिंदू साधुओं की सेना के शस्त्र और शास्त्र दोनों विजयी रहे और साथ में सिख सेना का उद्घोष भी सफल रहा जो बोले सो निहाल। सत श्री अकाल।
औरंगजेब के काल में हुए इन 30 भीषण संघर्षों में हिंदू सेनाओं का सहयोग करके मुगल सेना के छक्के छुड़ाने का कार्य अयोध्या के निकटवर्ती ग्रामों की जनता ने भी किया। सराय सिंसिडा के कुंवर गोपाल सिंह व जगदम्बा सिंह, राजेपुर के ठाकुर गजराजसिंह आदि की बलिदान गाथा के गीत आज भी निकटवर्ती ग्रामों में गाये जाते हैं।
अयोध्या की रक्षा के लिए मिलिन्द (150 ईसा पूर्व) व सन 1033 में सालार मसूद के आक्रमण से लेकर ब्रिटिश काल तक 79 बार संघर्ष हो चुका है। जिसमें तीन लाख से अधिक रामभक्तों का बलिदान हुआ। 1947 से वर्तमान तक हुए संघर्षों व देशभर में इस प्रसंग से जुडे सांप्रदायिक संघर्षों में भी हजारों लोग काल के गाल में समा चुके हैं।
हिन्दू मुस्लिम एकता से भयभीत हुआ ब्रिटिश शासन
1857 के स्वाधीनता संग्राम के संदर्भ में-कर्नल मार्टिन ने 1883 ई. में दिल्ली गजेटियर प्रकाशित कराया जिसमें लिखा गया 1857 संग्राम का एक भयावह प्रसंग : मुस्लिमों द्वारा स्वेच्छा से बाबरी मस्जिद सौंप देने का निर्णय ब्रिटिश शासन के लिए खतरनाक है। इसके बाद मुस्लिम पक्ष के आमिर अली और हिंदू पक्ष के रामचन्द्र दास को 18 मार्च 1857 को एक पेड़ पर लटकाकर फांसी दे दी गयी।
18 मार्च 1886 फैजाबाद जिला जज का निर्णय :-
इस मस्जिद का निर्माण बाबर ने कराया था जो कि हिंदुओं की पवित्र भूमि थी। लेकिन चूंकि घटना 358 वर्ष पूर्व घटित हुई थी, अत: आज हिंदुओं को यह भूमि वापिस देने का समय काफी लेट है।
इतिहास से शिक्षा लेकर बाबर का हुमायूं के नाम पत्र :- 
”तुम कभी धार्मिक पूर्वाग्रह को अपने मन पर हावी मत होने देना और सभी वर्गों की धार्मिक भावनाओं और रीति रिवाजों को ध्यान में रखकर निष्पक्ष न्याय करना। विशेष रूप से गोहत्या से दूर रहना। किसी भी समुदाय के पूजा-स्थल को नष्ट मत करना।
मैंने धार्मिक पूर्वाग्रह को मन में लाकर उसका दुष्परिणाम देख लिया है इसलिए तुम वैसा मत करना। किसी के पूजास्थल को नष्ट मत करना अन्यथा स्वयं ही नष्ट हो जाओगे।”

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