सत्यार्थ प्रकाश में इतिहास विर्मश ( एक से सातवें समुल्लास के आधार पर) अध्याय 29 ( ख ) इतिहास का भूत और संसार की दुर्दशा
इतिहास का भूत और संसार की दुर्दशा
जिन लोगों ने अपने धर्म स्थल या मठ या मजार आदि स्थापित करके पापी, डाकू लोगों या भ्रष्ट राजनीतिज्ञों व अधिकारियों से उनके लिए धन लेकर उन्हें यह आश्वासन देने का पाप किया है कि इससे उनके पाप क्षमा हो गए हैं,वे सभी वर्तमान संसार की दुर्दशा के लिए दोषी हैं। धर्म स्थलों पर भी यदि अनैतिकता से कमाया हुआ धन प्रयोग हो रहा है तो वहां भी शांति नहीं हो सकती। अनेक लोग हैं जो संसार से लूट खसोट कर उसमें से थोड़ा सा धन अपने इन तथाकथित धर्म स्थलों पर दान कर देते हैं और यह मान लेते हैं कि इससे उनके पाप क्षमा हो गये, वास्तव में उनकी ऐसी धारणा इतिहास का वाह भूत है जो संसार में वैदिक मत के कमजोर पड़ने के बाद जन्मा था।
स्वामी दयानंद जी महाराज के समकालीन समाज में मुल्ले मौलवी और पंडे पुजारी इसी प्रकार के नास्तिक भावों का प्रचार प्रसार कर रहे थे। स्वामी जी महाराज ने पाखंड खंडिनी स्थापित करके उन सबको एक साथ चुनौती दी। यह केवल और केवल स्वामी जी ही कर सकते थे कि एक साथ अपने लिए इतने सारे शत्रुओं को आमंत्रित कर लिया। जब उन्होंने सत्यार्थ प्रकाश लिखा तो उसका उद्देश्य भी यही था कि जो सत्य सत्य है, उसके अर्थ का प्रकाश हो जाए और जो मिथ्यावाद, पाखंडवाद संसार में फैला है, उसका विनाश हो जाए। स्वामी जी महाराज का इस प्रकार का परिश्रम उस समय के इतिहास की बहुत बड़ी घटना थी।
स्वामी जी ने दी चुनौती
वास्तव में उन्होंने ऐसा विशेष परिश्रम केवल इसलिए किया कि जिस प्रकार इतिहास की सरिता को गंदला कर दिया गया था उसको प्रदूषण मुक्त किया जा सके। यदि इस दृष्टिकोण से देखा जाए तो स्वामी दयानंद जी महाराज इतिहास की गंगा को प्रदूषण मुक्त करने वाले आधुनिक इतिहास के 'भगीरथ' हैं।
उन्होंने एक साथ राजाओं को भी चुनौती दी, धर्माधीशों को भी चुनौती दी, सत्ताधीश बने बैठे लोगों को भी चुनौती दी और पाखंडवाद को परोसने वाले लोगों को भी चुनौती थी। सामाजिक ,आर्थिक, राजनीतिक व धार्मिक सभी क्षेत्रों में उन्होंने एक साथ लोगों को चुनौती दे दी कि जिस में दम है वह मेरे से दो-दो हाथ करके देख ले। सचमुच इस प्रकार सभी को एक साथ चुनौती देने के लिए बहुत बड़े साहस की आवश्यकता होती है।
जिन लोगों को स्वामी जी महाराज इस प्रकार चुनौती दे रहे थे वे वही लोग थे जो इतिहास को दूषित – प्रदूषित कर रहे थे। स्वामी जी महाराज ने देखा कि इतिहास की गंगा को प्रदूषण मुक्त कर उसकी विमल धारा को फिर से बहाना आवश्यक है अर्थात उसका वैदिक स्वरूप स्थापित करना समय की आवश्यकता है।
पाखंडी लोगों ने यह भ्रम फैला दिया था कि जीव और ब्रह्म एक हैं या जीव और ब्रह्म एक जैसे गुणों से विभूषित हैं। दोनों को एक मानने में कोई आपत्ति नहीं है। जिसका स्वामी जी महाराज ने विद्वत्तापूर्ण समाधान सत्यार्थ प्रकाश के सातवें समुल्लास में करते हुए कहा है कि “किञ्चित् साधर्म्य मिलने से एकता नहीं हो सकती। जैसे पृथिवी जड़, दृश्य है वैसे जल और अग्नि आदि भी जड़ और दृश्य हैं; इतने से एकता नहीं होती। इनमें वैधर्म्य भेदकारक अर्थात् विरुद्ध धर्म जैसे गन्ध, रूक्षता, काठिन्य आदि गुण पृथिवी और रस द्रवत्व कोमलत्वादि धर्म जल और रूप दाहकत्वादि धर्म अग्नि के होने से एकता नहीं। जैसे मनुष्य और कीड़ी आंख से देखते, मुख से खाते, पग से चलते हैं तथापि मनुष्य की आकृति दो पग और कीड़ी की आकृति अनेक पग आदि भिन्न होने से एकता नहीं होती। वैसे परमेश्वर के अनन्त ज्ञान, आनन्द, बल, क्रिया, निर्भ्रान्तित्व और व्यापकता जीव से और जीव के अल्पज्ञान, अल्पबल, अल्पस्वरूप, सब भ्रान्तित्व और परिच्छिन्नतादि गुण ब्रह्म से भिन्न होने से जीव और परमेश्वर एक नहीं। क्योंकि इनका स्वरूप भी (परमेश्वर अतिसूक्ष्म और जीव उस से कुछ स्थूल होने से) भिन्न है।”
अनेकताओं की धारणा करनी होगी समाप्त
परमपिता परमेश्वर ने जीव के कल्याण के लिए यह संसार रचा है। उसने जीवों पर दया करते हुए सृष्टि निर्माण में अपना पुरुषार्थ लगाया है। परमपिता परमेश्वर ने अपनी व्यवस्था को चलाने के लिए सृष्टि के प्रारंभ में वेद ज्ञान हमारे ऋषियों को प्रदान किया। इस पर स्वामी जी का अटूट विश्वास था। यह सिद्धांत भी सृष्टि नियमों के अनुकूल है। परमपिता परमेश्वर ने सृष्टि के प्रारंभ में वेद देकर मनुष्य नाम के प्राणी से कह दिया कि इसमें दिए गए विधि विधान के अनुसार प्रलय-पर्यंत सृष्टि का संचालन करते रहना। इस एक सिद्धांत से ही यह स्पष्ट हो जाता है कि सृष्टि के संचालन के लिए आदि संविधान वेद के रूप में हमें पहले ही प्राप्त हो चुका है। उसके बाद किसी और धर्म पुस्तक के आने की कोई संभावना नहीं रही। ऐसे में इतिहास के इस प्रश्न का उत्तर भी मिल जाता है कि वेद के बाद जितनी भी तथाकथित धर्म पुस्तकें संसार में आई हैं, उन सबने सांप्रदायिक खेमों में संसार को बांटकर इतिहास को विकृति के गहरे गड्ढे में डाल दिया है। स्वामी जी महाराज अपने सिद्धांत की घोषणा करते हुए लिखते हैं कि :-
स्वयम्भूर्याथातथ्यतोऽर्थान् व्यदधाच्छाश्वतीभ्यः समाभ्यः ।।
-यजु० अ० 40। मं० 8।।
“जो स्वयम्भू, सर्वव्यापक, शुद्ध, सनातन, निराकार परमेश्वर है वह सनातन जीवरूप प्रजा के कल्याणार्थ यथावत् रीतिपूर्वक वेद द्वारा सब विद्याओं का उपदेश करता है।”
इस सिद्धांत को अपना लेने से एकता में अनेकता की मूर्खता पूर्ण धारणा समाप्त हो जाएगी। इसी प्रकार विखंडनवाद का सारा झगड़ा भी समाप्त हो जाएगा। स्वामी दयानंद जी महाराज संसार में वितंडावाद और विखंडनवाद के लिए सांप्रदायिक सोच और सांप्रदायिक नीतियों को सबसे अधिक जिम्मेदार मानते थे। जब लोगों ने सांप्रदायिक आधार पर सत्ता सिंहासन भी हथिया लिए और लोगों पर संप्रदाय के नाम पर अत्याचार करने लगे तो संसार में टूटन और बिखराव की यह प्रक्रिया और भी अधिक तीव्रता के साथ फैलने लगी।
स्वामी जी महाराज संस्कृत के पक्षधर थे। संस्कृत के बारे में उन्होंने इसी समुल्लास में इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कि ईश्वर ने वेदों का प्रकाश संस्कृत भाषा में ही क्यों किया ? लिखा है कि
जो किसी देश-भाषा में प्रकाश करता तो ईश्वर पक्षपाती हो जाता। क्योंकि जिस देश की भाषा में प्रकाश करता उन को सुगमता और विदेशियों को कठिनता वेदों के पढ़ने पढ़ाने की होती। इसलिये संस्कृत ही में प्रकाश किया; जो किसी देश की भाषा नहीं और वेदभाषा अन्य सब भाषाओं का कारण है। उसी में वेदों का प्रकाश किया। जैसे ईश्वर की पृथिवी आदि सृष्टि सब देश और देशवालों के लिये एक सी और सब शिल्पविद्या का कारण है। वैसे परमेश्वर की विद्या की भाषा भी एक सी होनी चाहिये कि सब देशवालों को पढ़ने पढ़ाने में तुल्य परिश्रम होने से ईश्वर पक्षपाती नहीं होता और सब भाषाओं का कारण भी है।”
जब देश का पतन हुआ और विदेशी आक्रमणकारियों ने भारत पर आक्रमण करके अपनी – अपनी भाषाओं को यहां पर थोपना आरंभ किया तो धीरे-धीरे ऐसी परिस्थितियां बनती चली गईं कि संस्कृत पीछे हटती चली गई। मनुष्य का सहज स्वभाव होता है कि वह कठिन से सरल की ओर भागता है। इस सिद्धांत के चलते जो स्थानीय बोलियां संस्कृत से निकलकर विकसित होती जा रही थीं, उन्होंने भी धीरे-धीरे अपने आपको एक भाषा कहलवाना आरंभ कर दिया। इससे भारत की मूल भाषा संस्कृत की हानि हुई। इतना ही नहीं ,कालांतर में संस्कृति की भी हानि हुई। राजे महाराजे और जिम्मेदार लोग संस्कृत भाषा से दूर और स्थानीय भाषाओं के गुलाम होते चले गए। ( समाप्त)
डॉ राकेश कुमार आर्य
मेरी यह पुस्तक डायमंड बुक्स नई दिल्ली के द्वारा प्रकाशित हुई है । जिसका अभी हाल ही में 5 अक्टूबर 2000 22 को विमोचन कार्य संपन्न हुआ था। इस पुस्तक में सत्यार्थ प्रकाश के पहले 7 अध्यायों का इतिहास के दृष्टिकोण से विश्लेषण किया गया है। पुस्तक में कुल 245 स्पष्ट हैं। पुस्तक का मूल्य ₹300 है।
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