जालंधर कन्या महाविद्यालय और लाला देवराज जी
आर्य पुरुषों के अल्प-ज्ञात संस्मरण
यह बात उस काल की हैं जब हमारे देश में लड़कियों को पढ़ाना बुरी बात समझा जाता था। स्वामी दयानंद जी द्वारा सत्यार्थ प्रकाश में किये गए उद्घोष की नारी का काम जीवन भर केवल चूल्हा चोका करना नहीं अपितु गार्गी के समान प्राचीन विदुषी बनकर अपना कल्याण करना हैं से प्रेरित होकर जालंधर में आर्यसमाज के नेता लाला देवराज जी की प्रबल इच्छा हुई की कन्याओं के लिए विद्यालय खोल जाये जिससे उनका सुधार हो सके। उस काल की सामाजिक परिस्थितियों को इसी बात से समझा जा सकता हैं की लाला जी को अपना विद्यालय तीन बार खोल कर बंद करना पड़ा था क्योंकि कभी लड़कियों के लिए शिक्षिका उपलब्ध नहीं होती थी, अगर होती थी तो वो भी ईसाई शिक्षिका होती थी को छात्राओं को ईसाई बनाने में ज्यादा श्रम करती, कभी कोई अपनी लड़की को निशुल्क होने पर भी पढ़ने को न भेजता था। अगर कोई भेज भी देता तो कुछ समय बाद वापिस आकर लाला जी को अपशब्द कहकर अपनी लड़की को वापिस ले जाता। ऐसी अवस्था में भी लाला देवराज जी ने हार नहीं मणि और १८८६ में अपने तप, दृढ़ता और परिश्रम से जालंधर कन्या विद्यालय आरंभ हो गया। उत्तर भारत में नारी शिक्षा के प्रचार प्रसार करने में जालंधर कन्या महाविद्यालय का अग्रणी स्थान है।
शिक्षा का वातावरण पूर्ण रूप से राष्ट्रीय था। आरंभ से अल्प संसाधन होने के कारण गर्मी के महीने में भी टिन की छत के नीचे छात्राओं को पढ़ना पड़ता था जिससे वे कभी कभी अस्वस्थ भी हो जाती थी। सरकार की और से लाला जी को धन का प्रस्ताव आता था पर वह यह कहकर उसे ठुकरा देते थे की अंग्रेज सरकार विद्यालय के राष्ट्रीय वातावरण में हस्तक्षेप करने का आसान तरीका खोज रही हैं।
विद्यालय के राष्ट्रीय वातावरण की एक झलक हम एक एक वाक्य से प्राप्त कर सकते हैं।
1903 , मई का महीना था। विद्यालय में सुदूर सीमा प्रान्त से एक महिला अपनी पाँच वर्षीय लड़की को पढ़ाने की प्रबल इच्छा से लाला जी के सुपुर्द कर गयी। माता-पिता के जाने से बालिका कुछ उदास सी थी। लाला जी ने उस बालिका को अपनी गोद में बैठाया और कापी-पेंसिल लेकर उसमें गीत लिख कर सभी के साथ गुनगुनाने लगे। उस गीत के बोल कुछ इस प्रकार थे-
देश भक्ति, देश सेवा, देश रक्षा के लिए
प्राण भी जाये अगर तो भी भलाई मानिये।
देश जिसके अन्न-जल को भोगती हो रात दिन
कमर बांधों होके चैतन्य, तारो उसके सारे विघ्न।।
यह गीत लाला जी का ही बनाया हुआ था।ऐसे ऐसे देशभक्ति के गीतों को हर शनिवार को लाला जी सभी छात्राओं से बुलवाते थे।
पाठक इस कविता के गुण-दोष न देख कर उस काल में ब्रिटिश राज में जब ऐसे गीत लिखने वाले को जेल में ठूस दिया जाता था, जब स्वराज्य पटल पर महत्मी गाँधी और उनके आंदोलनों का कोई नाम तक नहीं जानता था। तब लाला जी छोटी छोटी बच्चियों को देश भक्ति की घुंटी पिलाते थे।
एक और गीत इस प्रकार हैं
मना तू वे मेरिया देश से प्रीति लगा
जननी भूमि जन्म की जो हैं ताको सीस नवा।
उच्च शिखर पर देश पहुंचाओं , यह व्रत हो सबका
तेज से ऐसा नाद बजाओ, सबको देओ जगा।।
पाठक स्वयं कल्पना कर सकते हैं की लाला देवराज जी के कन्या महाविद्यालय से कितनी देश भगत छात्राओं ने जन्म लिया होगा।
सुदूर गाँव गाँव से आई हुई छात्राओं ने देश भक्ति की अलख को कहा कहा तक पहुँचाया होगा।
उत्तर भारत में स्वाधीनता की अलख जगाने में लाला देवराज जी का योगदान चिर स्थायी रहेगा।
साभार- विशाल भारत जुलाई-दिसम्बर 1936
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