सृष्टि नियमों के विरूद्घ मिथ्या सिद्घांत
स्वतंत्रता सच्चिदानंद ईश्वरीय व्यवस्था का स्वाभाविक विधान है। संसार में कोई भी जीव ऐसा नही है और ना ही कोई वनस्पति ऐसी है जो किसी अन्य जीव या वनस्पति के आधीन करके ईश्वर ने उत्पन्न किया हो। ‘जीवम् जीवस्य भोजनम्’ का त्रुटिपूर्ण अर्थ करके यह मिथ्या और भ्रामक प्रचार किया गया है कि जीव जीव का दास है-भोजन है। इससे उन लोगों को लाभ मिला है जिन्होंने ‘शक्तिशाली ही अपना अस्तित्व बचाने में सफल होता है’ या संसार में हर स्थान पर अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष हो रहा है, ऐसा सृष्टि नियमों के विरूद्घ मिथ्या सिद्घांत प्रतिपादित किया है। इससे सारे संसार में सर्वत्र अशांति व्याप गयी है।
इसके विपरीत हमारे ऋषियों ने शांति पाठ द्यौलोक से लेकर वनस्पतियों तक में सर्वत्र शांति का, सहयोग और परस्पर मिलकर चलने का संदेश व संगीत सुना और उसे ही संसार में प्रचारित किया। इसलिए हमारी मान्यता रही कि किसी के विकास में बाधक मत बनो अपितु दूसरों के विकास में सहायक बनो।
संसार के जीवन जगत में वहीं संघर्ष है जहां कोई किसी के अस्तित्व को मिटाने की चेष्टा कर रहा है। किसी की स्वाधीनता का अतिक्रमण कर रहा है। स्वतंत्रता के लिए संघर्ष की यह भावना सचमुच हमारे लिए प्रेरणास्पद हो सकती है। हमारे पूर्वज इसी भावना से प्रेरित होकर सदियों तक संघर्ष करते रहे कि चाहे जो हो जाए, चाहे जितने बलिदान देने पड़ जाएं और जितनी चाहे क्षति उठानी पड़ जाए पर स्वतंत्रता लेकर रहेंगे।
जीवन को सुसंस्कृत करते रहने के तीन साधन
डा. विष्णुकांत शास्त्री लिखते हैं-”जीवन को सुसंस्कृत करते रहने के तीन साधन हमारे पूर्वजों ने बताये हैं। गुणाधान (गुणों को अर्जित करना) दोषानयन (दोषों को दूर करना) और हीनांगपूत्ति (सत्कर्म के लिए अन्य लोगों से सहायता साधन प्राप्त करना)। ऋग्वेद की ही उक्ति है-”आ नो भद्राक्रतवो यन्तु विश्वत: अर्थात सभी दिशाओं से शुभज्ञान की प्राप्ति….प्रश्न उठता है कि गुण और दोष के निर्धारण का आधार क्या होना चाहिए? सीधा सा उत्तर है कि हमारी परंपरा ने सच्चिदानंद को सर्वोपरि माना है। अत: जो कुछ उनके अनुकूल है-वह दोष है। उदाहरणार्थ गीता के सोलहवें अध्याय में वर्णित दैवी संपदा को अर्जनीय गुण समूह और आसुरी संपदा को त्याज्य दोष समूह कहा जा सकता है। हमें निरंतर अपना और अपने समाज का निरीक्षण करते रहना चाहिए और गुणों का अर्जन तथा दोषों का त्याग करते रहना चाहिए, तभी हम सुसंस्कृत होंगे और समाज को सुसंस्कृत बना सकेंगे। संस्कृति के लिए यही मानदण्ड सच है। समरसता और सदभाव बनाये रखने वाली ज्ञानधारा और आनंद की वृद्घि करने वाली व्यवस्था संस्कृति है तथा उसकी विरोधी व्यवस्था विकृति है।”
जंगलों में रहने से कितने ही गांवों का जन्म हो गया
हमारे स्वतंत्रता प्रेमी पूर्वजों का पूरा संघर्ष संस्कृति की रक्षार्थ किया जाने वाला ऐसा संघर्ष था, जो विकृति का विनाश करना चाहता था। सदियों तक संघर्ष करते-करते सबका एक ही आदर्श बन गया और एक ही जीवनोद्देश्य बन गया कि स्वतंत्रता लेकर ही रहेंगे, इस संघर्ष में लोगों ने पीढिय़ों तक जंगलों में निवास किया। इसलिए शिक्षा-दीक्षा पर भी ध्यान नही दिया। जिसका फलितार्थ यह हुआ कि समाज में अशिक्षा व्याप गयी। सदियों तक और पीढिय़ों तक जंगलों में रहने से कितने ही गांवों का जन्म हो गया, जो सारे के सारे ही अशिक्षा की महाव्याधि से ग्रसित हो गये। इस स्थिति से धर्म की हानि हुई पर हमें इस हानि का अवलोकन करते समय यह देखना चाहिए कि इस हानि के पीछे वास्तविक कारण क्या था?
आंधी ने बड़े गर्व से बयार से कहा-क्या तू मेरी शक्तियों को नही जानती। मैं पल भर में विध्वंस मचा सकती हूं। जब मैं अपने सही रूप में आती हूं तो चाहे मानव हो या अन्य पशु-पक्षी या विशाल वृक्ष और छोटी -मोटी झाडिय़ां सभी मेरे उस रौद्ररूप को देखकर मारे भय के छुपे-छुपे फिरते हैं। मैंने अपने तूफान से (आतंक की आंधी से) बड़े-बड़े राष्ट्रों के अस्तित्व मिटा दिये।
बयार ने आंधी की गर्वीली भाषा का कोई उत्तर नही दिया। वह शांत रहकर आंधी के सामने से चली गयी। आंधी की गर्दन अभी भी गर्व से अकड़ी हुई थी। बयार शहर की ओर बढ़ी तो लोगों ने उसका अभिनंदन किया नदी, नालों-पहाड़ों-पर्वतों, जंगल की वनस्पतियों, पेड़ पौधों की ओर बढ़ी तो उन्होंने पंक्तिबद्घ खड़े होकर उसको नमन किया और आगे बढ़ी तो अन्य जीव-जंतुओं ने पंक्तिबद्घ खड़े होकर मंगल गीत गाये। चारों ओर समुधुर संगीत गूंज उठा।
विकृति और संस्कृति की उपासना एक साथ नहीं
आंधी ने सोचा भी नहीं था कि बयार का सर्वत्र इतना सम्मान है। उसे बयार की शक्ति का पता चल गया। अत: जो अंतर आंधी और बयार में है वही अंतर विकृति और संस्कृति में है। हम संस्कृति के रक्षकों की संतान होकर आंधी और विकृति के उपासक नहीं हो सकते। इसलिए आंधी और विकृति के गुणगान से भरे हुए इतिहास से हमारे पूर्वजों का सम्मान नहीं हो सकता। कहने का अभिप्राय है कि प्रचलित इतिहास को हर स्थिति में हमें विदा कहना होगा। इस स्थिति को हम जितनी शीघ्रता से विदा कह देंगे-उतना ही हमारा कल्याण होगा।
वीर वैरागी के जीवन का संघर्ष
वीर वैरागी के जीवन का संघर्ष भी भारत के अन्य महान स्वतंत्रता सेनानियों की भांति संस्कृति के लिए विकृति के विरूद्घ किया गया संघर्ष था। वह संघर्ष कर रहा था और उसके संघर्ष को अब मुगल बादशाह अपने षडय़ंत्रों से मसलकर समाप्त करने की तैयारी कर रहा था। बादशाह को उसके विश्वस्त और निकटस्थ लोगों ने यह परामर्श दिया कि वह बैरागी के साथ चल रही ‘ततखालसा’ को भी विभेद उत्पन्न कर अपने साथ ले ले, तो इस व्यक्ति का और इसके संघर्ष का अंत हो सकता है।
बादशाह ने इस परामर्श पर कार्य करना आरंभ कर दिया। उसने ‘ततखालसा’ के लिए एक पत्र लिखा-” खालसा मेरे साथ शत्रुता दूर कर दे। बाबर और बाबा एक ही बात है। वैरागी फसाद की जड़ है। वह तो गद्दी पर बैठना चाहता है। इसने माता का अपमान किया है। इस विष वृक्ष को उखाड़ देना चाहिए। आप अमृतसर बैठे बिठाये दस हजार मुझ से ले लो और संधि कर लो।”
इस पत्र ने वैरागी के विरूद्घ वातावरण बनाने में आग में घी का कार्य किया। स्वार्थ और लालच या लोभ बड़े से बड़े आंदोलन की हवा निकाल देते हैं। ये दोनों मानव स्वभाव की ऐसी विकृतियां हैं जो मानव को एक दूसरे से दूर कर देती हैं। शत्रु ने मानव स्वभाव की इस दुर्बलता का लाभ उठाने के लिए कई बार सफल प्रयास किये और ऐसे कई लोग निकलकर सामने आए जिन्होंने समय आने पर अपने ही नेता से विश्वासघात किया। यह भारत का दुर्भाग्य था कि जिन शिष्यों को गुरूओं ने भारत के धर्म और उसकी संस्कृति की रक्षार्थ तैयार किया था वे ही समय आने पर अपने नेता का साथ छोडऩे को उद्यत हो गये। उन्होंने शाही राज्य में लूटमार न करने और वैरागी का साथ न देने की बादशाह की बात मान ली। इतना ही नहीं उन्होंने यह भी मान लिया कि यदि कोई शत्रु लाहौर पर आक्रमण करता है तो सिख उस समय मुगल अधिकारी की सहायता के लिए आगे आएंगे।
बादशाह ने किया मित्रता का झूठा नाटक
बादशाह ने अपनी ओर से सिखों को भी आश्वस्त करने का प्रयास किया। उसने कहा कि बादशाह किसी भी सिख को दी गयी जागीर को नहीं छीनेगा। किसी हिंदू का बलात् धर्मांतरण नही किया जाएगा और ना ही कोई मुसलमान किसी हिंदू के सामने गाय काटेगा।
वास्तव में बादशाह ने अपनी ओर से जिन शर्तों को लिखकर दिया, वे केवल सिखों की आंखों में धूल झोंकने के लिए दी गयी थी। उसका वास्तविक उद्देश्य अपने राज्य की ढहती हुई दीवारों को रोकना था और इसके लिए वह हिंदुओं की सहानुभूति प्राप्त करना चाहता था। इससे भी बढक़र वह अपने वास्तविक सरदर्द बने बैरागी का अंत करना चाहता था।
अंतिम क्षण तक युद्घ करना चाहता था बैरागी
इन सब स्थितियों से अनभिज्ञ बैरागी को जब इस सबके बारे में पता चला तो उसके उपरांत भी उसे पीछे हटना स्वीकार नही था। वह वीर था और वीर की भांति अंतिम क्षणों तक मां भारती की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करना चाहता था। इसलिए उसने किसी भी प्रकार के विश्वाघात या छल की चिंता किये बिना लाहौर पर आक्रमण करने की योजना बनानी आरंभ की। यद्यपि कई साथी बैरागी का साथ छोडक़र या तो चले गये थे या साथ छोडऩे के लिए तत्पर थे। पर बैरागी के मनोबल पर इन सब विपरीत परिस्थितियों का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। वह अपने निर्णय पर अडिग रहा। वह इतिहास को परिवर्तन की ओर ले जाना चाहता था। वह युग का निर्माण करना चाहता था और संपूर्ण भूमंडल को विकृति युक्त बनाकर ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के भारतीय आदर्श को स्थापित कर मानवता की वास्तविक सेवा करना चाहता था।
लाहौर से बैरागी की भिड़ंत
उस समय लाहौर का सूबा असलम था। उसके पास उस समय दस हजार की सेना थी। बंदा बैरागी ने लाहौर पर धावा बोल दिया। उसके भीतर अदम्य साहस का समुद्र ठिठोले मार रहा था। उसे नहीं लगता था कि कोई भी बाधा उसके साहस का सामना कर पाएगी। वह आगे बढ़ा और लाहौर से जा भिड़ा।
वीर ने फेंक दिये हथियार
पर इस बार शत्रु के दुर्बल होने के उपरांत भी शत्रुपक्ष प्रबल था। क्योंकि बैरागी के अपने लोग ही विश्वासघात कर चुके थे। मीरसिंह खालसा की ओर से अपने दल का नेतृत्व कर रहा था। असलम खां की सेना को वीर बैरागी की सेना ने बड़ी वीरता से काटना आरंभ कर दिया। सर्वत्र शव ही शव दिखाई देने लगे। एक बार तो लगा कि अंतिम विजय वीर वैरागी की होगी, परंतु शत्रु पक्ष ने अपनी पराजय को आसन्न देखकर पुन: छल का प्रयोग किया। उसने तत्तखालसा को आगे कर दिया। जिन पर वैरागी की तलवार चलने से ठिठक गयी। अपने ही भाइयों को और बंधु बांधवों को अपने समक्ष खड़ा देखकर एक बार पुन: ‘अर्जुन’ मोह में फंस गया और कायरों की भांति हथियार फेंककर कहने लगा-‘युद्घ नहीं करूंगा।’ आज हमारे ‘अर्जुन’ को कोई ‘कृष्ण’ गीतोपदेश देने के लिए नही था। इसलिए पराजय को स्वीकार कर ‘अर्जुन’ घर लौट आया। यह घटना सन 1715 ई. की है। यह भारत के दुर्भाग्य के क्षण थे जिन्होंने बने बनाये खेल को बिगाड़ दिया। इस एक घटना ने हमें पुन: दुर्भाग्य के विरूद्घ देर तक लड़ते रहने के लिए अभिशप्त कर दिया।
असीम वेदना से भर उठा बैरागी
इस घटना से बैरागी को भी वेदना हुई। उसने ‘पराजय’ नाम की चिडिय़ा का नाम तक नही सुना था। पर आज उसे पराजय की पीड़ा ने भीतर तक छलनी कर दिया था।
उसने इन वेदनापूर्ण क्षणों में आत्मावलोकन किया और निर्णय लिया कि जैसे हो वैसे ही हमें खालसा को प्रसन्न करना चाहिए। उसने खालसा के लिए लिखा है-”तुम लोग धोखे मेें आ गये हो। गुरू गोबिन्दसिंह के उपदेश को तुमने मिट्टी में मिला दिया है, हमारे शत्रु फूट डलवाकर हमें नष्ट कर देंगे। सोचो समय फिर नहीं लौटेगा। मैं तो साधु हूं-मेरा क्या बिगड़ेगा? तुर्क तुम्हारे धर्म को और तुम्हें नष्ट कर देंगे। तुम्हारा सर्वस्व जाता रहेगा। अब भी समझ जाओ, और शत्रु का साथ छोड़ दो, आओ पहले शत्रु से निपट लें फिर आपस में लड़ेंगे।”
अपनों ने ही बिगाड़ दी बनी बनाई बात
कुछ लोगों का इस पत्र को पढऩे से हृदय परिवर्तन भी हुआ। पर बात बनी नहीं। वैरागी का यह सद्प्रयास भी विफल रहा और उसके लिए लोगों ने यह उचित समझा कि पहले वह अमृत चखें सच्चे सिक्ख बनें, तभी हम उसका साथ देंगे। इस शर्त को वीर बैरागी स्वीकार करने को तत्पर नहीं था। इसलिए उसने शत्रु का सामना अंतिम क्षणों तक अपने भुजबल से ही करते रहने का निर्णय लिया।
बैरागी की एक प्रकार से प्रतिष्ठा दांव पर लग गयी थी। उसने अपने पुरूषार्थ से और गुरू गोबिन्दसिंह के आशीर्वाद से जिस भारत के निर्माण का सपना संजोया था-वह सपना चूर-चूर होने लगा था।
एक नया भारत बनाने का लिया संकल्प
मतभेदों को लोग मिटाने के स्थान पर मनभेद तक बढ़ाने में लग गये थे, इसलिए उत्पन्न हुई परिस्थितियों पर गंभीरता पूर्वक विचार करने के उपरांत उसने पुन: अपने पुषार्थ से ‘एक नया राज्य और एक नया भारत बनाने’ का संकल्प लिया। उसने कलानौर के नवाब को परास्त किया, और अपनी आधीनता स्वीकार कराने पर विवश किया। वह स्यालकोट की ओर बढ़ा तो किसी ने उसका विरोध करने का साहस नही किया। इन दोनों विजयों ने वीर वैरागी के उखड़े हुए पैरों को जमा दिया। जिससे उसे गुजरात और वजीराबाद की ओर बढऩे का अवसर मिला। कई महत्वपूर्ण वीर इस वीर हिन्दू योद्घा के साथ आकर मिल गये। कितने ही हिंदू अपने इस नायक के हाथ-मजबूत करने के लिए उसके साथ आ गये। जिससे वैरागी को भी लगता था कि संभवत: हम पुन: अपने लक्ष्य की साधना में सफल होंगे और अपनों ने जो घाव दिये हैं उनका उपचार हो जाएगा।
अब्दुल समंद को बैरागी के विरूद्घ भेजा गया
बैरागी के पुनरूत्थान से बादशाह फर्रूखसीयर को असहनीय पीड़ा हो रही थी। वह नहीं चाहता था कि हिंदुओं का कोई सर्वमान्य नेतृत्व उभरे और उन्हें स्वतंत्रता के लिए उपद्रव विप्लव और विद्रोह करने सिखाये। ऐसी परिस्थितियों में बादशाह ने बैरागी का अंत कराने के लिए 1716 ई. में अब्दुल समंद को तीस हजार की सेना के साथा दिल्ली से रवाना किया। उसने दूसरे अधिकारियों को भी निर्देशित किया कि वे अपनी सेना बैरागी के विरूद्घ भेजें। अब्दुल समंद खां ने वैरागी को छल से अपने आधीन करने का नाटक किया। उसने अपने लोगों से वैरागी के पास संदेश भेजा कि वह उसका चेला बनना चाहता है। पर वैरागी को उसकी बातों पर विश्वास न हुआ। बादशाही सेना ने गुरूदासपुर के पास अपना डेरा डाल दिया। उसके साथ जालंधर से भी सेना आकर मिल गयी।
अब शहर को चारों ओर से घेर लिया गया। सैनिकों के लिए अन्न आदि की आपूर्ति पूर्णत: बाधित कर दी गयी। किले के भीतर बंद वैरागी के सैनिकों में भूख के मारे असंतोष उत्पन्न होने लगा। कहा जाता है कि एक दिन किसी प्रकार 500 सैनिक किले से बाहर निकलकर भोजनादि का प्रबंध करने के लिए कुछ दूरी पर जाने में सफल हो गये, पर जब उनके दुस्साहस की सूचना शत्रु पक्ष को मिली तो उसने एक साथ बड़ी प्रबलता से इन सैनिकों पर प्राण घातक आक्रमण कर दिया और ये पांच सौ के पांच सौ योद्घा भारतमाता के लिए बलिदान हो गये।
भाई परमानंद जी कहते हैं-
इस घटना का वर्णन करते हुए भाई परमानंद जी लिखते हैं कि-”जब अंदर वाले भूख से तंग आ गये तो वैरागी के विरूद्घ शिकायतें करने लगे। इस प्रकार चार मास गुजर गये। लाहौर के शासक ने आज्ञा घोषित की कि जो सिख शाही पताका के नीचे आ जाएंगे, उन्हें अभयदान दे दिया जाएगा। कुछ सिख शत्रु से जा मिले, परंतु इन्हें कैदकर लिया गया। लडक़र मर जाना सरल है, किंतु भूखे रहकर मरा नही जाता। वैरागी ने अंतिम बार अपने साथी एकत्र किये और आक्रमण कर दिया। परंतु इतनी बड़ी सेना के सामने कुछ पेश न चली। जब वे भूख से विवश हो गये तब बैरागी के सामने याचना करने लगे। इसने सांत्वना देते हुए शांतिपूर्वक उत्तर दिया-स्मरण रहे, संसार में सुख और दुख दोनों मनुष्य के लिए है। सुख के साथ दुख सहना भी अनिवार्य है। मैं भी तुम्हारे साथ हूं। जब तक तुम भूखे हो मैं एक दाना तक मुंह में नहीं डालूंगा। घेरे के भीतर के मनुष्यों की यातनाओं का अनुभव नहीं किया जा सकता था। सब भूखे एक दूसरे की ओर देखते थे, कोई किसी की सहायता न कर सकता था। इस असहाय अवस्था में शत्रु कड़ी परीक्षा में डाल रहा था कि बहुत से योद्घा बाहर आ गये। परंतु इन्हें शत्रु के वचन पर विश्वास न था। जब आधीनता को छोड़ अपने बचने का और कोई उपाय नहीं रहा तो विवश होकर किले के दरवाजे खोल दिये गये। मुसलमानी सेना ने भीतर प्रवेश किया। बैरागी भूख के मारे अस्थि पंजर हो गया था। परंतु किसी सैनिक को साहस न हुआ कि उसके पास जाए। मरते हुए सिंह के समीप भी जाते हुए भय लगता है। अंत में वैरागी ने देख लिया कि होनी होकर रहेगी। होनी के सामने हुज्जत करना व्यर्थ है। अपने आप ही अपना धनुषबाण रख दिया और मुसलमान सैनिकों से कहा कि उसे नि:संकोच गिरफ्तार करें। उन्होंने इसे जंजीरों से बांध लिया। अब्दुल समंद खां को इस विजय से बड़ी प्रसन्नता हुई। यह समाचार सुनकर सब जगह मुसलमान सुख की नींद सोये। हिंदुओं की आशाओं पर पानी फिर गया। इनके घरों में शोक होने लगा। स्त्रियां भी फूट फूटकर रोती थीं कि उनका एक मात्र सहारा चला गया। वैरागी एक उज्जवल तारे के समान चमकता रहा और चौदह वर्ष पर्यन्त अपने प्रकाश से संसार को प्रकाशित करके धूमकेतु के समान टूट गया।”
यजु. (1-17) में आया है-‘भ्रातृव्यस्य वधाय।’ अर्थात तुम शत्रु के विनाश के लिए हो।
भारत के हर सैनिक ने प्राचीनकाल से ही वेद के इस सूत्र वाक्य के अनुसार युद्घ किया है। परंतु जब पेट खाली हो और शरीर अस्थि पंजर रह गया हो तो उस समय असहायावस्था में धनुषवाण फेंक देना भी धर्म संगत है। धनुषबाण फेंकना एक अलग बात है पर युद्घ जिनकी रक्षा के लिए किया जा रहा था- देखने वाली बात है कि उन ‘चोटी और जनेऊ’ को तो अस्थि पंजर बने शरीरों ने भी नहीं गंवाया। यह भी वीरता की पराकाष्ठा ही थी कि स्वयं को गिद्घों के सामने स्वयं परोस दिया कि जैसे चाहों नोंच लो।
(लेखक की पुस्तक प्राप्ति हेतु डायमण्ड पॉकेट बुक्स प्रा. लिमिटेड एक्स-30 ओखला इंडस्ट्रियल एरिया फेस-द्वितीय नई दिल्ली-110020, फोन नं. 011-40712100 पर संपर्क किया जा सकता है। (साहित्य सम्पादक)
मुख्य संपादक, उगता भारत