गीता का कर्मयोग और आज का विश्व, भाग-91
गीता का अठारहवां अध्याय
योगीराज श्रीकृष्णजी अर्जुन को बताते हैं कि किसी भी देहधारी के लिए कर्मों का पूर्ण त्याग सम्भव नहीं है। ऐसा हो ही नहीं सकता कि कोई व्यक्ति कर्मों का पूर्ण त्याग कर दे। कर्म तो लगा रहता है, चलता रहता है। गीता की एक ही शर्त है जिसे श्रीकृष्णजी पुन: दोहरा रहे हैं कि कर्म के फल को त्याग दो। जो ऐसा कर देगा अर्जुन! वही सच्चा त्यागी है। ऐसी स्थिति आते ही व्यक्ति को किसी बाहरी आवरण को पहनने या ओढऩे की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। तब उसे कपड़े रंगने की आवश्यकता भी नहीं पड़ेगी। जो भीतर से रंग गया उसे बाहर से अपने आपको रंगने की आवश्यकता ही कहां रहती है। कहने का अभिप्राय है कि ऐसे व्यक्ति को किसी दिखावे की आवश्यकता नहीं रहती, वह जैसे भीतर से होता है, वैसा ही बाहर से होता है। उसके आचार व्यवहार से दिखावट, सजावट, मिलावट और बनावट सब मिट जाते हैं।
जो लोग श्रीकृष्णजी की गीता के नाम पर कपड़े रंगकर निठल्ले बने घूम रहे हैं और लोगों को ठग रहे हैं उन्हें श्रीकृष्णजी के मूल विचार पर सोचना चाहिए वे क्या रहे हैं और उनकी बात किस परिप्रेक्ष्य में कही गयी है? वे कहते हैं कि जिन्होंने कर्म के फल का त्याग नहीं किया उन्हें मरने के बाद अपने कर्मों का तीन प्रकार का फल मिलता है-प्रिय, अप्रिय तथा प्रियाप्रिय। जिन लोगों ने कर्मफल का त्याग कर दिया है उन्हें कोई फल नहीं मिलता। कोई फल नहीं मिलने का अभिप्राय है कि उनके लिए उनका कर्म किसी प्रकार की बाधा नहीं डालता।
कर्मफल का त्यागकर सफल होय संन्यास।
आसक्ति को मार ले त्याग दे फल की आश।।
गीता का कर्मयोग यही शिक्षा देता है। उसके संन्यास योग और ज्ञानयोग का भी यही निष्कर्ष है।
फल की आशा और आसक्ति
अब श्रीकृष्णजी बताने लगे हैं कि यह कर्म का फल किन कारणों से मिलता है? वह कहते हैं कि कर्म का फल मिलने के 5 कारण हैं। इन कारणों को श्रीकृष्णजी कार्य का स्थान, कत्र्ता, भिन्न-भिन्न प्रकार के साधन, भिन्न-भिन्न प्रकार की चेष्टाएं तथा भाग्य के रूप में इंगित करते हैं। भाग्य ही दैव है। भाग्य को दैव इसलिए कहा जाता है कि यह हमारी समझ से बाहर की चीज है।
गीता की मान्यता है कि संसार के लोग अपने शरीर से, मन से और वाणी से जितने भर भी कार्य करते हैं-उनमें ये पांच हेतु ही कार्य करते हैं। इस प्रकार कर्म के फल के मिलने के वैज्ञानिक पक्ष को गीता ने स्पष्ट किया है। संसार के लोग इसी रहस्य को समझें और यह जानें कि उन्हें अपने कर्म का फल क्यों मिलता जा रहा है? क्यों उन्हें अपने मनोनुकूल फल नहीं मिल रहा है? तो उन्हें श्रीकृष्णजी की इन्हीं पांच बातों पर ही विचार करना पड़ेगा।
जो लोग अपने आप को कर्म का कत्र्ता मान बैठते हैं वे लोग गीता की दृष्टि में असंस्कारी होते हैं। उन्हें गीता ने दुर्मति माना है। ऐसे दुर्मति लोग कर्म का कत्र्ता मानकर अहंकार में फूले रहते हैं। जैसे दुर्योधनादि अहंकार से फूल रहे थे। वह दुर्मति था इसीलिए वह दुर्योधन हो गया। यदि वह स्वयं को कर्म का कर्ता न मानता तो वह भी सुमति बना रहता और फिर यह होता कि महाभारत का युद्घ नहीं होता।
संसार के लोगों को गीता से यही समझना है कि हमें दुर्मति बनकर दुर्गति नहीं करानी है। हमें तो सुमति बनना है और संसार को संस्कारी बनाना है। जब लोगों की ऐसी सोच हो जाती है तो वे संसार का अहित न करके संसार की हित साधना में लग जाते हैं। संसार का हित करना प्रत्येक व्यक्ति का कत्र्तव्य है। आजकल संसार के लोग संसार के हितसाधना में न लगकर संसार के अकल्याण की बातों में लगे हुए हैं। श्रीकृष्णजी की गीता ऐसे लोगों के लिए शिक्षा दे रही है कि संसार के कल्याण हेतु अपना कार्य सम्पादन करें। श्रीकृष्णजी कह रहे हैं कि जो व्यक्ति अहंकार की भावना से मुक्त है अर्थात सुमति है और निष्कामभाव में विश्वास करता है जिसकी बुद्घि सांसारिक विषय वासनाओं और भोगों में लिप्त नहीं है, अर्थात जो निर्लिप्त है -जिसने संसार केे विषयों से संग नहीं पाला है, जो निस्संग है, ऐसा व्यक्ति इन लोगों को मारता हुआ भी नहीं मारता, वह कर्म करता हुआ भी कर्म के बंधन से मुक्त रहता है।
श्रीकृष्ण जी पुन: अर्जुन को बता गये है कि अर्जुन अब तो मेरे उपदेश का अन्त ही आ गया है। अब तू निचोड़ सुन ले और यह निचोड़ यही है कि तू अहंकार शून्य होकर, निष्काम होकर , निर्लिप्त और असंग होकर युद्घ के लिए तत्पर शत्रु पक्ष पर प्रबल प्रहार कर। अपनी आत्मा को पहचान, उसका परिष्कार कर और युद्घ में भी साधु बनकर निष्काम बनकर अपने कत्र्तव्य कर्म को कर डाल। तू ‘मैं’ के भाव से ऊपर उठते यह मान ले कि ‘मैं’ कुछ नहीं कर रहा। निस्संग रहकर अपने कर्म को करने को तत्पर हो। यदि यह भावना तेरे भीतर आ गयी तो तू एक गृहस्थी होकर भी आध्यात्मिक व्यक्ति माना जाएगा। तब तू फलासक्ति से भी मुक्त हो जाएगा। उस स्थिति में तुझ पर कर्म का बंधन अपना प्रभाव नहीं डाल पाएगा।
डा. राधाकृष्णन कहते हैं कि-”मुक्त मनुष्य अपने आपको विश्वात्मा का उपकरण बना देता है इसलिए वह जो कुछ करता है वह स्वयं नहीं करता विश्वात्मा उसके माध्यम से विश्व की व्यवस्था को बनाये रखने के लिए कर्म करता है। वह भयंकर कर्मों को भी स्वार्थपूर्ण उद्देश्यों से या इच्छा के बिना करता है। केवल इसलिए कि यह उसका आदिष्ट कर्म है। यह उसका अपना कर्म नहीं भगवान का कर्म है।”
श्रीकृष्ण जी अर्जुन को यहां विश्वास का एक ऐसा ही उपकरण बन जाने की प्रेरणा दे रहे हैं, उसे समझा रहे हैं कि तू महान कार्य करने के लिए उठ तो सही तेरा हाथ पकडऩे के लिए वह विश्वात्मा परमात्मा स्वयं प्रतीक्षारत है। वे तेरा हाथ पकड़ेंगे और जिस महान कार्य को (दुष्ट लोगों का संहारकर संसार में शान्ति स्थापित करना) तू स्वयं करना चाहता है-उसे वह स्वयं संभाल लेंगे।
सब लोगों को मारता हुआ भी नहीं मारता, यह बात आज के कानून विदों के लिए या विधि विशेषज्ञों के लिए समझ में न आने वाली एक रहस्यमयी पहेली है। आज का कानून तो उसे दंडित करेगा ही जो उसे मारता हुआ दिखायी दे रहा है। क्योंकि यह अंग्रेजों का कानून है। अंग्रेजों ने अपने किसी भी डायर को फांसी नहीं दी। उसने भगतसिंह को ही फांसी दी। भारत का कानून यदि चलता तो डायर को फांसी होती और भगतसिंह को सम्मान मिलता। इसे हम इसलिए कह रहे हैं कि ‘डायर’ मानवता का हत्यारा था, उसने निरपराध लोगों का वध किया था। वह स्वार्थ में अंधा था, उसे अपने ही देश के स्वार्थ और अपनी ही जाति के स्वार्थ मानवता के स्वार्थ दिखायी देते थे। जबकि भारत का हर भगतसिंह अपनी जान को मानवता के लिए आहूत कर रहा था। वह चाहता था कि सर्वत्र शान्ति हो और हर व्यक्ति को अपनी स्वतंत्रता का उपभोग करने का अवसर प्राप्त हो। भगतसिंह के कार्य में उन लोगों की हिंसा रची-बसी थी जो अन्य लोगों की स्वतंत्रता के हत्यारे बन चुके थे। क्रमश: