आरक्षण पर विचार आवश्यक
भारत में आरक्षण को जातीय आधार पर देकर भूल की गयी- अब इस पर देश की युवा पीढ़ी में एक विशेष प्रकार की बहस चल रही है। जातीय आधार पर आरक्षण न देकर आर्थिक आधार पर लोगों को राजकीय संरक्षण मिलना चाहिए था- अब इस विचार से अधिकांश लोग सहमत होते जा रहे हैं। जिन लोगों को आरक्षण की व्यवस्था से विरोध है न केवल इस विचार से ऐसे लोग सहमत हैं- अपितु वे लोग भी सहमत हैं जो जातीय आधार पर मिल रहे आरक्षण से आज तक वंचित हैं। ये वही लोग हैं जिनकी जाति के कुछ बड़े लोगों ने आरक्षण लेकर और खूब धन दौलत कमाकर भी आज तक आरक्षण से अपना दावा नहीं छोड़ा है और ये अपनी ही जाति के गरीब लोगों का रास्ता रोक कर खड़े हो गए हैं। जिसके कारण एक गरीब व्यक्ति आरक्षण से आज भी वंचित है। जैसे- यदि 3 बार मुख्यमंत्री बनने के बाद अभी भी मायावती दलित हैं, उनके परिवार के लोग करोड़ों अरबों कमाकर भी दलित हंै और आज भी आरक्षण के दावेदार हैं तो इससे मायावती की बिरादरी के लोगों को ही अधिक क्षति हो रही है। जो लाभ अन्य लोगों को मिलना चाहिए उस पर मायावती आज भी अधिकार किए बैठी हैं, यह उनका अपनी ही बिरादरी के लोगों पर अत्याचार नहीं तो क्या है?
इसी प्रकार सैकडों आईएएस, पीसीएस, आईपीएस अधिकारी हैं जो लाखों श्रेष्ठ उम्मीदवार के अधिकार हडपने के बाद भी अब तक दलित हैं। आरक्षण का लाभ पाकर इन स्थानों पर जाकर बैठ गए हैं, और अब ये लोग अपने ही सजातीय पात्र लोगों के अधिकारों पर कुंडली मारे बैठे हैं। उन्हे उभरने नहीं दे रहे हैं, ये लोग किसी के लिए सीढ़ी बनने को तैयार नहीं हैं, अपितु सीढ़ी का प्रयोग कर स्वयं छत पर बैठने के बाद अब सीढ़ी को हटा देना चाहते हैं। ऐसे अधिकारियों को अब दलित नहीं माना जा सकता। क्योंकि अब ये स्वयं किसी का दलन व शोषण कर रहे हैं। इसी प्रकार हम देखते हैं कि सैकडों मंत्री, हजारों विधायक व सांसद होने के बाद भी अब तक दलित हैं तो कहना पडेगा कि समस्या मानसिकता में है।
क्या आप ने कभी सोचा कि जिस आरक्षण व्यवस्था का प्रावधान 1950 में भारत सरकार ने किया था, उस वर्ष किसी 18 वर्ष के व्यक्ति ने यदि आरक्षण का लाभ लिया होगा तो 2018 में उस की पांचवीं पीढ़ी आरक्षण का लाभ लेने जा रही है। ऐसी व्यवस्था निश्चय ही समाज के लिए अभिशाप सिद्ध हुई है।
आरक्षण की व्यवस्था हमारे देश में सामाजिक न्याय प्रदान करने के लिए अपनाई गई थी। हमारा स्पष्ट मानना है कि सामाजिक न्याय की प्राप्ति करना लोकतन्त्र में प्रत्येक व्यक्ति के लिए उसका मौलिक अधिकार है। यदि लोकतन्त्र जैसी शासन प्रणाली में लोगों को सामाजिक न्याय के लिए तरसना पड़ता है तो इसे किसी भी दृष्टिकोण से उचित और न्यायसंगत नहीं ठहराया जा सकता। हमारे संविधान निर्माताओं का चिंतन पवित्र था- इसपर भी हम सहमत हैं। हमें यह ध्यान रहना चाहिए कि संविधान सभा में सभी जाति बिरादरी के लोग थे- फिर भी उन्होनें आरक्षण को मान्यता दी तो इसके पीछे कारण यही था कि वह सभी सामाजिक न्याय प्राप्ति के समर्थक थे। आज यदि कोई व्यक्ति या वर्ग किसी एक व्यक्ति को उन्हें आरक्षण देने के लिए प्रशंसित करता है तो यह विचार भी सिरे से ही गलत है। सामाजिक न्याय हमारे संविधान सभा की सामूहिक चेतना में डोल-फिर रहा था। अत: सभी सदस्य हर व्यक्ति को विकास की गति के साथ जोडऩे की पवित्र भावना से प्रेरित थे।
हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि आरक्षण के स्थान पर आर्थिक आधार पर संरक्षण दिया जाना उचित और अपेक्षित था। यदि आर्थिक आधार पर राजकीय संरक्षण आज भी लोगों को मिल जाए तो आरक्षण को लेकर जो बेचैनी इस समय समाज में अनुभव की जा रही है उसके कुपरिणामों से समाज को बचाया जा सकता है। हमें संदेह है कि यदि आर्थिक आधार पर संरक्षण की बात सरकार ने उठाई तो जो लोग आरक्षण का लाभ लेकर इस समय दलितों और पिछड़ों के मसीहा बने बैठे हैं-उनके तन बदन में आग लग जाएगी- और वे अपने सजातीय भाइयों को विद्रोह और विरोध की भाषा अपनाने पर विवश कर देंगे। जिससे देश में जातीय संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो जाएगी। हिन्दू महासभा का चिंतन इस दिशा में देश की राजनीतिक इच्छा शक्ति का मार्गदर्शन कर सकता था- जिसने पहले दिन से ही आर्थिक आधार पर राजकीय संरक्षण देने की बात कही थी।
क्या आप को लगता है कि बाबू जगजीवन राम जो कि इंदिरा गांधी के काल में केंद्रीय मंत्री रहे, उप प्रधानमंत्री रहे, उनके परिवार की मीरा कुमार या किसी अन्य को आरक्षण दिया जाना चाहिए? क्या पी0 एल0 पूनिया जो कि उत्तर प्रदेश के मुख्य सचिव रह चुके हैं उनके परिवार के किसी सदस्य को आरक्षण की आवश्यकता है?
वर्ष 1902 में शाहू जी महाराज ने अपनी रियासत में पहला आरक्षण का प्रावधान किया था। 1908 एवं 1909 में अंग्रेजी हुकूमत ने ‘मिंटो मार्ले’ कानून बना कर भारत में आरक्षण की व्यवस्था लागू की थी। इससे अंग्रेजों को अपनी शासन को भारत में स्थायीत्व देने में सहायता मिल सकती थी, इसलिए उन्होने आरक्षण की इस नीति का अनुकरण किया। उन्हें भारतीय समाज से कोई लेना देना नहीं था। क्योंकि उनकी सोच में ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति काम करती थी।
लेकिन वर्ष 2018 में यानि की 109 साल बाद भी अगर समस्या का निदान नहीं हो पाया है तो मानना पडेगा कि व्यवस्था में कोई कमी है। 1950 से ही पब्लिक रिप्रजेंटेशन एक्ट के द्वारा हर पांच साल में आरक्षित वर्ग से लगभग 131 सांसद लोकसभा में पहुंचते है, क्या आप को लगता है कि वर्तमान चुनाव प्रणाली में कोई गरीब चुनाव लड़ सकता है?
बसपा जो कि आरक्षण का पुरज़ोर समर्थन करती है एक-एक विधायक से टिकट आवंटन के लिए मीडिया मे छपीं खबरों के अनुसार करोड़ों रुपये लेती है,क्या इन लोगों को वाकई आरक्षण की ज़रुरत है? सरकारें निशुल्क किताबें बाँट रहीं हैं, सरकारी विद्यालयों में फीस न के बराबर है, इंजिनीयरिंग तक की पढाई में वजीफे बांटे जा रहे हैं और इन सब के बाद आरक्षण और फिर पदोनन्ति के लिए आरक्षण पर आरक्षण। हर कदम पर सरकारें समाज में विद्वेष पैदा कर के इसे विभक्त किये जा रही हैं। क्या ये सरकारें जितना पैसा इन साधनों पर खर्च कर रही हैं, उसमें से यदि सरकारी विद्यालयों में शिक्षा पूर्णत: नि:शुल्क कर के अनिवार्य कर दें, विशेष कर उन के लिए जो वर्तमान में आरक्षित वर्ग है और जिस के परिवार ने अभी तक आरक्षण का लाभ नहीं लिया है तथा उन के लिए उत्कृष्ट किस्म की कोचिंग खोल दें या वर्तमान कोचिंग चलाने वालों को ऐसे विद्यार्थियों को पढ़ाने के लिए सब्सिडी दे दें, नि:शुल्क पढाई और कोचिंग, आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के सभी अभ्यर्थियों को उन की आयु के 28 वर्ष तक देती रहें- तो कितना अच्छा रहे। तत्पश्चात विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं के फॉर्म भी नि:शुल्क कर दें और अंत में योग्यता के आधार पर चयन करें तो खजाने पर बहुत बोझ नहीं बढ़ेगा। परन्तु समाज में फैलता हुआ यह विद्वेष का ज़हर अवश्य रुकेगा।
लेखक उगता भारत समाचार पत्र के चेयरमैन हैं।