गीता का अठारहवां अध्याय
त्रिविध कत्र्ता और गीता
त्रिविध कर्म के पश्चात श्रीकृष्णजी त्रिविध कत्र्ता पर आते हैं। इसके विषय में वह बताते हैं कि कत्र्ता भी सात्विक, राजसिक और तामसिक-तीन प्रकार के ही होते हैं। सात्विक कत्र्ता के बारे में बताते हुए श्रीकृष्णजी कहते हैं कि ऐसा कत्र्ता आसक्ति से मुक्त रहता है, उसका चित्त निर्मल रहता है, इसलिए उसके व्यवहार में भी निर्मलता और अहंकारशून्यता रची-बसी होती है, वह सभी से आत्मीय भाव से वात्र्तालाप करता है। ऐसी कोई बात नहीं कहता- जिससे दूसरे के मन को कष्ट हो। ऐसा कत्र्ता आसक्ति और अहंकार से दूर रहने के कारण धैर्य और उत्साह से युक्त रहता है। उसके धैर्य और उत्साह उसे निरन्तर उन्नति और प्रगति की ओर लेकर चलते हैं। वह सफलता और असफलता में निर्विकार रहता है। ऐसे कत्र्ता पर संसार के राग-द्वेष आक्रमण नहीं कर पाते। वह इन सबसे परे हो जाता है।
जो कत्र्ता राजसिक होता है-वह राग और आसक्ति से प्रेरित होता है। राजसिक कत्र्ता के कार्यों में राग-द्वेष हावी रहते हैं। ऐसे कत्र्ता से न्याय की अपेक्षा नहीं की जा सकती। क्योंकि ऐसे कत्र्ता के विचारों में राग-द्वेष समा जाने से उनके कर्म की निष्पक्षता संदिग्ध हो जाती है।
भारत में हिन्दू परिवारों में आज भी ‘कत्र्ता’ का प्रमुख पद होता है। इसी को कुछ लोग अपनी-अपनी स्थानीय भाषा में ‘कत्र्ता-धत्र्ता’ या ‘काराधारी’ कहकर भी पुकारते हैं। हिन्दू परिवारों में ‘कत्र्ता’ उसी को माना जाता है जिसके कर्म में किसी प्रकार का अहंकार न हो, वह न्यायप्रिय हो, शालीन और सौम्य स्वभाव का हो, परिवार के सभी सदस्यों के बीच न्याय करने की जिसकी क्षमता हो और सबको साथ लेकर चलने की जिसकी सोच हो, वह आसक्ति से मुक्त हो और सभी परिजनों का हृदय से सम्मान करता हो, साथ ही सभी के अधिकारों का रक्षक हो। ऐसा कत्र्ता सात्विक होता है।
भारत ने यदि अपने परिवारों में आज भी ‘कत्र्ता’ का पद सृजित कर रखा है तो उसे गीता के भारतीय जीवन शैली पर पडऩे वाले प्रभाव के रूप में ही देखा जाना चाहिए। हजारों वर्षों के उपरान्त भी भारत गीता को नमन कर रहा है और गीता भारत का सफलतापूर्वक मार्गदर्शन कर रही है। भारत में बड़े-बड़े शोधपत्र लिखे जाते हैं, कितने ही विषयों को लेकर सर्वेक्षण कराये जाते हैं-परन्तु कभी भी न तो कोई शोधपत्र इस विषय पर लिखा गया और न ही कोई सर्वेक्षण कराया गया कि गीता का वर्तमान भारतीय समाज पर क्या प्रभाव है? यदि गीता की इस व्यवस्था को यदि शेष संसार के लोग भी अपना लें और एक निष्पक्ष व न्यायप्रिय ‘कत्र्ता’ को परिवार में चुन लें तो उनके देश के ‘कत्र्ता’ अर्थात प्रधानमंत्री का भी न्यायप्रिय होना निश्चित हो जाए। हमने परिवार को आदर्श बनाया तो परिवारों ने मिलकर राष्ट्र को आदर्श बनाया। जीवन जीने का और विश्वशांति स्थापित करने का सर्वोत्तम उपाय भी यही है।
‘तामस-कत्र्ता’ के विषय में श्रीकृष्ण जी का मानना है कि ऐसा ‘कत्र्ता’ अयुक्त होता है, उसका चित्त कहीं नहीं टिक पाता, वह प्राकृत होता है, प्राकृतिक रूप से जैसे आया था वैसे का वैसा बना रहता है। प्रकृति से सभी शूद्र रूप में उत्पन्न होते हैं-कहना न होगा कि ऐसा व्यक्ति जीवनभर शूद्र ही रह जाता है। ‘तामस-कत्र्ता’ अशिक्षित और असंस्कृत होता है, स्तब्ध है-हठी है, शठ है-धोखेबाज है। नैष्कृतिक है-निस्+कृत=काटना, छेद करना, दूसरों के काम में छेद करता रहता है, वह दूसरों की कमियां खोजता रहता है, वह ‘अलस’ है-आलसी है। ऐसे कत्र्ता को अपने ही कार्यों के करने में आलस्य और प्रमाद आ घेरता है, जिसके कारण वह अपने ही कार्यों को सही समय पर और सही प्रकार से नहीं कर पाता है। ऐसा ‘कत्र्ता’ जीवनभर संसार में रहते हुए सर्वत्र दु:ख ही दु:ख देखता है, ऐसे दु:ख उसे अपने ही कार्यों को विवेकपूर्ण ढंग से, अर्थात सही समय पर सही निर्णय लेते हुए न करने के कारण मिलते हैं। ऐसा व्यक्ति ‘दीर्घसूत्री’ होता है, हर काम को वह या तो टालता जाता है, या हर काम में देर करता रहता है। उसके कार्य समय से पूरे नहीं होते और कल पर ही टाले जाते रहने के कारण उसके कार्यों में कोई तारतम्यता नहीं होती, कोई सामञ्जस्य नहीं होता, कोई समन्वय नहीं होता। जिसका परिणाम यह आता है कि लोग उसपर अधिक विश्वास नहीं करते।
आजकल के समाज में ऐसे ‘तामस-कत्र्ताओं’ की ही भरमार है। जिससे समाज का और संसार का वातावरण अविश्वसनीय हो गया है। लोगों को एक दूसरे की बातों पर विश्वास नहीं होता। सब एक दूसरे का मूर्ख बनाते रहते हैं, इसी को लोग अपना ‘बौद्घिक चातुर्य’ समझते हैं। इसी को कुछ लोग किसी व्यक्ति की ‘बिजनेस माइण्ड’ होने की बातें कहकर प्रशंसित करते हैं। जबकि गीता इस प्रकार के ‘बौद्घिक चातुर्य’ और ‘बिजनेस माइण्ड’ को सबसे निम्न स्तर की बात मानती है, और उसे मनुष्य जाति के लिए सबसे अधिक खतरनाक घोषित करती है। आज के संसार को गीता के इस रहस्य को समझना चाहिए।
त्रिविध बुद्घि और गीता
श्रीकृष्णजी अर्जुन को अपना उपदेश निरन्तर जारी रखते हुए अब त्रिविध बुद्घि के विषय में बताने लगे हैं। वह कहते हैं कि हे धनञ्जय! अब तू सत्व-रज-तम-इन तीन गुणों के अनुसार ‘बुद्घि’ और ‘धृति’ के तीन भेदों को सुन, जिन्हें मैं पूरी तरह से अलग-अलग करके तुझे बताना चाहता हूं।
त्रिविध बुद्घि के विषय में बताते हुए श्रीकृष्णजी कहते हैं कि बुद्घि भी सात्विकी, राजसी, और तामसी तीन प्रकार की होती है। इनमें से सबसे पहले आने वाली सात्विकी बुद्घि के विषय में बताते हुए श्रीकृष्णजी कह रहे हैं कि यह बुद्घि मनुष्य के प्रवृत्ति मार्ग और निवृत्ति मार्ग के भेद को स्पष्ट करती है। बताती है कि कौन सा कर्म करने से मनुष्य प्रवृत्ति मार्गी हो जाता है, और कौन सा कर्म करने से मनुष्य निवृत्ति मार्गी हो जाता है? ऐसी बुद्घि इस बात को समझती है कि किससे हमें डरना चाहिए और किससे नहीं डरना चाहिए? क्या वस्तु आत्मा को बंधन में डालने वाली है और क्या बन्धन से मुक्त करने वाली है? ऐसी बुद्घि मनुष्य की सच्ची सहायिका होती है। सात्विकी बुद्घि का मनुष्य संसार में रहकर बन्धनों में जकड़ता नहीं है, अपितु वह बन्धनों के बन्धन को शिथिल करते-करते एक दिन उनसे मुक्ति पा लेता है।
सात्विक, राजसी, तामसी होतीं बुद्घि तीन।
सात्विक सबसे श्रेष्ठ है तामसी होती हीन।।
राजसी बुद्घि के विषय में श्रीकृष्णजी कहते हैं कि जिस बुद्घि के द्वारा मनुष्य धर्म और अधर्म को, कार्य और अकार्य को ठीक-ठीक नहीं समझ पाता-वह बुद्घि राजसी होती है।
आजकल के संसार में ऐसे अनेकों लोग हैं जो धर्म और अधर्म की परिभाषा नहीं जानते। अधिकतर लोग सम्प्रदायों को धर्म मानते हैं और जिसे उसका धर्म कहे अर्थात सम्प्रदाय कहे-उस कर्म को वह करने योग्य और जिस कर्म को उसका सम्प्रदाय न करने के लिए कहे-उसे वह अकार्य मान लेता है। यदि किसी का सम्प्रदाय यह कहे कि अमुक व्यक्ति विपरीत सम्प्रदाय का है-विधर्मी है-काफिर है, तो इसकी सम्पत्ति को लूटना हमारा धर्म है-ऐसा समझकर उस कार्य को करे, तो यह राजसी बुद्घि का कार्य है। इसी प्रकार अकार्य के विषय में समझना चाहिए।
तामसी बुद्घि पर चर्चा करते हुए श्रीकृष्णजी अर्जुन को बता रहे हैं कि जिस बुद्घि के द्वारा अन्धकार के आवरण से घिरा हुए मनुष्य अधर्म को धर्म समझने लगता है, और सब बातों को उल्टा देखने लगता है-वह बुद्घि तामसी बुद्घि कहलाती है।
क्रमश: