गीता का अठारहवां अध्याय
त्रिविध सुख क्या है
तीसरे सुख अर्थात तामसिक सुख के विषय में श्रीकृष्ण जी का मानना है कि तामसिक सुख प्रारम्भ से अन्त तक आत्मा को मोह में फंसाये रखता है। मोह का आवरण सबसे अधिक भयानक होता है। यह एक ऐसा आवरण है जिससे हर व्यक्ति चाहकर भी मुक्त नहीं हो सकता। इस आवरण को तामसिक सुख की श्रेणी में रखते हुए श्रीकृष्णजी कहते हैं कि जो सुख, निद्रा, आलस्य तथा प्रमाद से उत्पन्न होता है-वह सुख तामसिक है। निद्रा, आलस्य और प्रमाद ये मनुष्य के शत्रु हैं। इनसे मानव के विवेक पर मोह का आवरण पड़ा रहता है। व्यक्ति अज्ञानान्धकार में भटकता रहता है-वह तामस में अर्थात अंधकार में रहता है। यही कारण है कि तामस सुख सबसे निकृष्ट श्रेणी का सुख है।
इन तीनों प्रकार के सुखों के विषय में अन्त में श्रीकृष्णजी यह कहते हैं कि संसार में कोई मनुष्य ऐसा नहीं है और ना ही देवलोक में कोई देवता ऐसा है जो इन तीनों गुणों से मुक्त हो।
संसार में रहकर मानव को तामस सुखों की अपेक्षा राजसिक सुखों की और राजसिक सुखों की अपेक्षा सात्विक सुखों की कामना करनी चाहिए। यदि संसार में रहकर तामस से सात्विकता की ओर बढ़ा जाएगा तो ही ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ की हमारी सनातन प्रार्थना साकार और सजीव होगी। मनुष्य के कल्याण का सरल सा और सीधा सा उपाय भी यही है कि हम अंधकार से (तामस से) प्रकाश (सात्विकता) की ओर बढ़े।
सात्विकता में रम रहे करते आत्मकल्याण।
राजस को भी त्यागते पाते हैं वे त्राण।।
स्वभाव कर्म
संसार में सात्विक, राजसिक और तामसिक इन तीन प्रकार की प्रकृतियों के लोग मिलते हैं। इनके अपने-अपने स्वभाव हैं। अपने-अपने स्वभाव के कारण अपने-अपने गुण कर्म और स्वभाव हैं। इस पर गीता का मानना है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के अपने-अपने स्वभाव से उत्पन्न हुए सत्व, रज, तम इन गुणों के कारण इन के कर्म अलग अलग बंटे हुए हैं।
वास्तव में संसार में हर व्यक्ति निज स्वभाव के कारण ही ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र होता है। यह ‘स्वभाव’ ही पूर्व के अध्यायों में श्रीकृष्णजी ने व्यक्ति का ‘धर्म’ माना है। अब अंतिम 18वें अध्याय में उपसंहार के समय ‘स्वभाव’ की एक बार पुन: चर्चा आवश्यक समझी गयी है। व्यक्ति का स्वभाव जितना ही अधिक पवित्र और निर्मल होता है-वह उतना ही अधिक सर्वग्राह्य और सर्वस्वीकृत स्वभाव का धनी होता है।
ब्राह्मण के स्वभाव पर प्रकाश डालते हुए योगेश्वर श्रीकृष्णजी कह रहे हैं कि ये लोग शान्त स्वभाव, आत्मसंयम, तपस्या, पवित्रता, सहनशक्ति, सरलता, ज्ञान, अनुभव, आस्तिकता वाले होते हैं अर्थात ये इनके स्वाभाविक कर्म हैं। ब्राह्मण का स्वभाव विश्व के लिए अनुकरणीय होता है। क्योंकि उसके व्यवहार में उच्चादर्श छिपे होते हैं। ब्राह्मण हर कदम पर मर्यादाओं का पालन करते हैं और मर्यादाओं की स्थापना भी करते हैं। इनके मर्यादित व्यवहार और आचरण से लोग इनकी ओर स्वाभाविक रूप से आकृषित होते। इसका एक कारण यह भी कि ऐसे लोगों को यह भली प्रकार ज्ञात होता है कि ये लोग किसी का अहित नहीं करेंगे। एक मर्यादित और शान्त स्वभाव वाला व्यक्ति ही आत्मानुशासित हो सकता है। आत्म संयमी हो सकता है। उसके व्यक्तित्व का आत्मानुशासी गुण ही उसे अन्य लोगों की दृष्टि में महान बनाता है। सच्चा ब्राह्मण संसार के लोगों के लिए प्रेरणा का स्रोत होता है। उसकी हर बात लोगों को प्रभावित करती है और यही कारण होता है कि एक सच्चा ब्राह्मण या विद्वान व्यक्ति सर्वत्र पूजनीय हो जाता है। लोग उसके सामने स्वाभाविक रूप से नतमस्तक हो जाते हैं। उसकी उच्च तपस्या, पवित्रता, सहनशक्ति, सरलता, ज्ञान, अनुभव और आस्तिकता लोगों को अपनी ओर आकृष्ट करते हैं। इन्हीं गुणों के कारण संसार के लोग ऐसे पुरूषों का सर्वत्र बन्दन और अभिनन्दन करते हैं।
इसके पश्चात क्षत्रिय के स्वाभाविक गुणों पर प्रकाश डालते हुए योगेश्वर श्रीकृष्णजी कह रहे हैं कि वीरता, तेज, धीरता, चतुरता, युद्घ में पीठ न दिखाना, दानशीलता और शासन करना ये क्षत्रिय के स्वाभाविक गुण हैं। श्रीकृष्ण जी यहां पर किसी जाति, कुल या वंश के लक्षण नहीं बता रहे हैं-अपितु ‘वर्ण’ के लक्षण बता रहे हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि कोई व्यक्ति किसी भी वंश, में कुल में या गोत्र में उत्पन्न हो सकता है उसमें यदि ये गुण हैं तो वह चाहे जिस वंश, कुल या गोत्र में उत्पन्न हुआ हो वह स्वाभाविक रूप से क्षत्रिय है।
कृषि, गोरक्षा, व्यापार ये वैश्य के स्वाभाविक कर्म हैं। जबकि शूद्र का स्वाभाविक कर्म सेवा करना है। अपने-अपने कर्म को पूर्ण निष्ठा से करना ही उचित है। इसी को ईमानदारी कहा जाता है। जो लोग अपने-अपने कर्म को अपने स्वभाव के अनुसार पूर्ण निष्ठा से करते हैं अर्थात पूरी ईमानदारी से करते हैं -वे सिद्घि को प्राप्त हो जाते हैं।
डा. राधाकृष्णनन जी इस विषय पर लिखते हैं-”समाज एक ऐसा संगठन है, जिसमें सबको कर्म करना है सबके कर्म करने से ही यह संगठन बना रह सकता है। इस संगठन को स्वस्थ बनाये रखने के लिए हर तरह का काम समान है। वह काम न होना तो समाज बना ही कैसे रहेगा? सब मनुष्यों की क्षमताएं समान नहीं होतीं, परन्तु समाज के लिए सब मनुष्य समान रूप से आवश्यक हैं। प्रत्येक मनुष्य अपना अंशदान करता है। अंशदान के रूप में सबका मूल्य समान है।
गीताकार का मानना है कि समाज रूपी गाड़ी को चलाने के लिए हर मनुष्य को अपने स्तर पर अपने लिए मिले काम को पूरी ईमानदारी से करना चाहिए। हर व्यक्ति स्वधर्म में लगा रहेगा तो यह समाज स्वस्थ बना रहेगा और यदि लोगों ने स्वधर्म को भुला दिया तो यह समाज भी ध्वस्त हो जाएगा।
इसकी व्यवस्था ध्वस्त हो जाएगी। वर्तमान संसार में हर मनुष्य चोरी कर रहा है। अपवादों को छोड़ दें तो पता चलता है, हर व्यक्ति स्वधर्म के पालन में कोताही बरत रहा है। गीता का उपदेश है कि वर्तमान विश्व अपनी दशा और दिशा पर गम्भीर होकर चिंतन करे और यह विचारे कि मेरी यह दुदर्शा क्यों हो गयी है? निश्चित रूप से उत्तर यही आएगा कि लोगों ने स्वधर्म से मुंह मोड़ लिया है। इस स्वधर्म को समझना और समझाना विश्व के लिए आज की सबसे बड़ी समस्या है। ‘प्रोफेशनल’ शिक्षा से यह व्यवस्था और भी बिगड़ गयी है। इससे इसका सुधार सम्भव नहीं है। इसका सुधार तो नैतिक शिक्षा से ही सम्भव है। जिसे भारत की गुरूकुलीय शिक्षा प्रणाली के माध्यम से ही दिया जा सकता है। विश्व को चाहिए कि वह निष्पक्ष भाव से भारत की गुरूकुलीय शिक्षा प्रणाली पर चिंतन करे और उसे आज के परिप्रेक्ष्य में वैश्विक शिक्षा प्रणाली के रूप में मान्यता प्रदान करे।
क्रमश:
मुख्य संपादक, उगता भारत