हिंदू प्रतिभा और पराक्रम
मुगलकाल का विधिवत आरंभ अकबर के काल से माना जाता है। अकबर को भी उस समय हेमू जैसे वीर योद्घा के प्रबल प्रतिरोध का सामना करना पड़ा था। इस महान योद्घा के विषय में डा. आर.सी. मजूमदार लिखते हैं :- ”मध्यकालीन और आधुनिक इतिहासकारों ने हेमू के साथ न्याय नहीं किया और वे उस विलक्षण प्रतिभावान हिंदू शासक और प्रखर व्यक्तित्व का उचित मूल्यांकन करने में असफल रहे। मुस्लिम शासकों के उत्कर्षकाल में सामान्य व्यापारी के स्तर से ऊपर उठकर धीरे-धीरे दिल्ली के राजसिंहासन तक पहुंचने वाला हेमू किसी राजवंश में उत्पन्न नहीं हुआ था न ही वह किसी राजसी वैभव का उत्तराधिकारी था।”
डा. मजूमदार के ये शब्द हिंदू प्रतिभा और पराक्रम का सम्मान है। इन शब्दों का मूल्य तब और बढ़ जाता है जब मध्यकालीन भारत में विश्व के अन्य देशों में और भारत में भी स्थान-स्थान पर मुस्लिम राज्य खड़े हो जाते थे और किसी अन्य मतावलंबी का साहस उस समय अपना राज्य खड़ा करने का नही होता था। तब हेमचंद्र उपनाम हेमू अपने साधारण स्तर से ऊपर उठकर असाधारण कार्य करने में सफल हुआ। कालांतर में उसी की परंपरा का जिन वीरों ने अनुकरण किया उनमें वीर बैरागी का नाम सर्वोपरि है।
इन दोनों महापुरूषों ने और महान योद्घाओं ने विदेशी शासन को उखाड़ फेंक बाहर फेंकने का जिस प्रकार उद्यम किया वह इतिहास की रोमांचकारी घटना है। डा. आशीर्वादीलाल श्रीवास्तव ने यद्यपि हेमू के विषय में ही अधोलिखित पंक्तियां लिखी हैं पर इन्हें वीर बैरागी के साथ भी जोडक़र देखा जा सकता है। वह लिखते हैं :-
”इतिहास का कोई भी निष्पक्ष विद्यार्थी हेमू की सफल नेतृत्व शक्ति की सराहना किये बिना नही रह सकता कि उसने देश से विदेशी शासन सत्ता को समाप्त करने की किस तत्परता से चेष्टा की। यद्यपि दुर्भाग्य से उसकी यह सफलता अस्थायी सिद्घ हुई। यदि हेमू को विदेशियों को भारतवर्ष से निकाल बाहर करने में सफलता प्राप्त हो जाती, तो इतिहासकारों ने उसके संबंध में दूसरी ही राय स्थापित की होती। 350 वर्षों के विदेशी शासन को देश से उखाड़ फेंकने और दिल्ली में स्वदेशी शासन को पुन: स्थापित करने के हेमू के साहसपूर्ण प्रयत्न की जितनी भी प्रशंसा की जाए उतनी ही थोड़ी है।” (‘मुगल कालीन भारत’ पृष्ठ 140-141)
विदेशियों को भगाने की भारतीयों की लगन
जब हेमू भारत से विदेशी सत्ता को उखाड़ बाहर फेंकने का उद्यमपूर्ण पुरूषार्थ कर रहा था तो उस समय तक विदेशी शासन सत्ता को भारत में पैर जमाये 350 वर्ष ही हुए थे। पर जब बैरागी ने अपने आपको हेमू का उत्तराधिकारी बनाने के लिए मां भारती की सेवा में प्रस्तुत किया तो उस समय तक भारत में यत्र-तत्र फैले विदेशी शासन को लगभग 600 वर्ष हो चुके थे। पर उस योद्घा को जिस प्रकार हिंदू शक्ति का सहयोग प्राप्त हुआ उससे स्पष्ट होता है कि लोग 600 वर्ष की लंबी संघर्ष गाथा से उकताये नहीं थे, उनके भीतर विदेशी शासन सत्ता को उखाड़ बाहर फेंकने की ललक और लगन पहले जैसी अवस्था में ही विद्यमान थी।
‘जयचंद’ ने अपनी ही पराजय पर उत्सव मनाया
इसी राष्ट्रप्रेमी भावना की अंतिम परिणति यह हुई कि वैरागी के चारों ओर शत्रु खड़े हो गये और सबका लक्ष्य एक ही हो गया कि जैसे भी हो इस नर केसरी को यथाशीघ्र कैद करा दिया जाए। परिस्थितियों के सामने लाचार और निरूपाय हो गये बैरागी ने अंत में धनुषवाण रख दिये। जिस दिन यह घड़ी आयी थी उस दिन उस महायोद्घा के शत्रु पक्ष ने चाहे जितनी प्रसन्नता व्यक्त की हो पर मां भारती तो इस दृश्य को देखकर करूणामयी चीत्कार कर उठी थी। अपने दुर्भाग्य पर मां भारती का किया गया रूदन किसी भी देशभक्त से देखा नहीं जा सकता था। देश की नारियों ने मां भारती का स्वरूप बनाकर इस महान योद्घा की गिरफ्तारी पर, करूणा जन्य विलाप किया था।
परंपरागत डायन ईष्र्या, डाह और अविश्वास की भावना ने हमें एक बार पुन: अपनी परीक्षा में असफल सिद्घ कर दिया। अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारकर ‘जयचंद’ ने अपनी ही पराजय पर उत्सव मनाया। भारत की वीरता पर कृतघ्नता का जंग लगाना यह भारत की वह परंपरा रही है जिसने इस देश के महान योद्घाओं के पराक्रम को कई बार अंतिम क्षणों में परास्त कराने में अहम भूमिका निभाई है। दुर्भाग्य रहा बैरागी का और सबसे बढक़र मां भारती का कि हम एक बार पुन: परास्त हो गये। स्वतंत्रता आते-आते हमसे दूर चली गयी।
बैरागी को पकडक़र काजियों के समक्ष प्रस्तुत किया गया
बड़े उत्सव भरे परिवेश में मुगल सैनिकों ने भारत के नर केसरी बैरागी को पकडक़र काजियों के समक्ष प्रस्तुत किया। किसी भी मुगल को अपनी आंखों पर भी विश्वास नहीं हो रहा था कि हमारे सामने वही वैरागी खड़ा है-जिसके नाम से भी उनकी कंपकंपी छूटती थी? उनके लिए जिस व्यक्ति को गिरफ्तार करना सर्वथा असंभव प्रतीत होने लगा था-आज वही संभव बना जब सामने दिखता था तो मुगल सैनिकों के मन में यही भाव आता था कि नहीं ऐसा नहीं हो सकता। पर सच तो सच होता है।इसलिए उन्हें जो कुछ दिखाई दे रहा था वही सच था कि भारत का नरकेसरी इस समय मुगलों की कैद में था।
इस्लाम या मृत्यु में से एक चुनने का दिया गया विकल्प
काजियों ने उस महान योद्घा को ऊपर से नीचे तक बड़े ध्यान से देखा। उन्होंने भी सोचा कि यदि ऐसा व्यक्ति मुसलमान हो जाए तो काफिरों के विनाश करने के हमारे लक्ष्य में कितना सहायक सिद्घ हो सकता है। वह भूल गये कि जिस उद्देश्य (हिंदू रक्षा) को लेकर बैरागी जैसे अनेकों महान योद्घाओं ने अपने प्राण न्यौछावर करने में तनिक भी देरी नहीं की उस परंपरा को आगे बढ़ाने वाला बैरागी वह नहीं कर सकता जो उसे करना ही नहीं था। काजियों ने अपने परंपरागत (अ) न्याय की रीति को दोहराया और उस नरपुंगव से इस्लाम या मृत्यु में से किसी एक का वरण करने का अपना पुराना वाक्य दोहराया। वैरागी जानता था कि अब क्या कहा जाएगा? इसलिए पहले से ही मन बनाये बैठे उस हिंदू नायक ने तुरंत मृत्यु का वरण करने को अपने लिए उचित माना।
‘पुरस्कार’ को सहर्ष किया स्वीकार
काजियों ने हिंदूवीर की ‘धृष्टता’ पर झुंझलाकर उसे तथा उसके अन्य सभी साथियों को मृत्यु दण्ड सुना दिया। एक सच्चे योद्घा और एक सच्चे संत के रूप ेमें बैठे बाबा बैरागी और उनके अन्य साथियों पर इस दण्ड का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। उल्टे वह इसे सुनकर और प्रफुल्लित हो उठे। मानो कह रहे हों कि जिस महान कार्य के लिए जीवन भर अथक संघर्ष किया, आज उसका पुरस्कार मिलने का समय आ गया है, इसलिए पुरस्कार को प्रसन्नता से प्राप्त करना ही श्रेयस्कर है।
एक रोचक और रोमांचकारी दृश्य
भाई परमानंद जी यहां एक रोचक और रोमांचकारी घटना या उल्लेख करते हुए लिखते हैं कि इन वीरों के हर्ष का अनुमान एक सोलह वर्ष के बालक के दृष्टांत से लगाया जा सकता है। इस बालक की बूढ़ी मां रोती पीटती जल्लादों के पास पहुंची और कहने लगी-‘मेरा पुत्र निर्दोष है। यह बिना किसी अपराध के ही पकड़ा गया है। यह वैरागी का सिख नहीं, इसे छोड़ दो।’ उसकी बारी आयी तो जल्लादों ने उसे छोड़ दिया। बालक ने कहा-‘मेरे लिए क्यों विलंब किया जा रहा है? मैं शीघ्र स्वर्गारोहण करना चाहता हूं।’ उसे बताया गया कि तुम्हारी माता तुम्हारी प्राण रक्षा के लिए प्रार्थना करती है। उसने उत्तर दिया-‘वह गलत कहती है।’ माता को संबोधित करते हुए कहा-‘तू बड़ी हत्यारी है, जो मुझे स्वर्ग से निकाल नरक में फेंकना चाहती है।’ मां बेचारी रोती हुई परे हट गयी।
हत्यारों ने बालक की वीरता को देखते हुए उसे उसकी इच्छा के अनुसार स्वर्ग पहुंचा दिया। मां तो अपनी ममता के वशीभूत होकर अपना धर्म भूल गयी, पर बालक ने अपना धर्म निभाकर देश धर्म की रक्षा की। बालक ने मां की ममता का सम्मान करते हुए उसकी आंखें खोल दीं कि जब देश धर्म की रक्षा और मां भारती के सम्मान की रक्षा का प्रश्न उपस्थित हो तो उस समय मां की ममता गौण हो जाती है। क्योंकि संसार की माता की ममता भी तभी मिल सकती है जब हमारी धरती माता दुष्टों के अत्याचारों से मुक्त हो और धरती माता को दुष्टों के अत्याचारों से मुक्त कराने के लिए बलिदानों की आवश्यकता होती है। बलिदान के क्षणों में बलिदान से पीछे हटने का अभिप्राय होता है, करोड़ों ऐसी माताओं की ममता का निरादार करना जो अपने नौनिहालों पर ममता की वर्षा से केवल इसलिए वंचित कर दी जाती थी कि वे काफिर थीं। किसी के काफिर होने को इतना बड़ा दण्ड देना मानवता को दंडित करने के समान था। इसलिए मानवता के हितार्थ उस बालक ने स्वयं ललकार कर अपनी माता को अपने और अपनी मृत्यु के मध्य से हटा दिया। इसी को वीरता कहते हैं।
सार्वजनिक स्थानों पर दिया गया दण्ड
हत्यारों के भीतर दया तनिक भी नहीं रह गयी थी। नित्यप्रति किसी न किसी योद्घा को प्राणदण्ड दिया जाता था। प्राणदण्ड को पाते हुए वीरों को तो असीम प्रसन्नता होती थी परंतु कई दर्शकों के हृदय में क्रूर सत्ता के विरूद्घ विद्रोह और घृणा केे भाव उत्पन्न होते थे। उनसे यह दृश्य देखे नहीं जाते थे। प्राणदण्ड भी सार्वजनिक स्थलों पर दिया जाता था और हिंदुओं को विशेष रूप से इन दृश्यों को देखने के लिए बुलाया जाता था। जिससे कि वह देख लें कि देशभक्ति को किस प्रकार का सम्मान दिया जाता है? कई मुस्लिमों को भी ऐसी क्रूरताओं को देखकर पीड़ा होती थी। परंतु मजहबी मान्यताओं के सामने विरोध करने का उनका साहस नहीं होता था। क्रूरता के मजहब को अपनाने से आत्मा मर जाती है।
बैरागी को वध स्थल पर लाया गया
इसी प्रकार की क्रूर यातनाओं से अनेकों हिंदू योद्घाओं को जब लगभग समाप्त कर लिया गया तो आठवें दिन बैरागी को वध स्थल पर लाया गया। उस दिन कुछ विशेष लोग भी वध स्थल पर आये। दरबार का एक अमीर मुहम्मद अमीन भी उनमें से एक था। उसने बैरागी से पूछ ही लिया कि तुमने ऐसे कार्य क्यों किये, जिनसे तुम्हें आज ऐसी दुर्दशा का सामना करना पड़ा?
इस प्रश्न को सुनते ही बैरागी के हृदय में वैदिक चिंतन उमडऩे घुमडऩे लगा। उसके शब्द चाहे जो हों-पर उसे वेद की यह सूक्ति मानो सर्वप्रथम स्मरण आयी कि ‘नमो मात्रे पृथिव्यै’ (यजु. 9-22) अर्थात पृथ्वी माता को नमस्कार।
भारत में तो लोग प्रात:काल उठते समय भी सर्वप्रथम पृथ्वी माता को ही नमस्कार करते हैं, इसलिए अपने जीवन का सबसे बड़ा पुरस्कार प्राप्त करते समय वैरागी को भी सर्वप्रथम उसी भारतमाता पृथ्वीमाता का स्मरण हो आया, जिसके लिए यह पवित्र जीवन समर्पित कर दिया था।
जो कुछ किया वह सोच समझकर किया
अमीर के प्रश्न पर वीर बैरागी ने उसे स्पष्ट कर दिया कि जिस भारत माता को विदेशी क्रूर सत्ता अपने अत्याचारों से पद दलित कर रही है, उसे मुक्त कराना हर देशभक्त का प्रथम और पुनीत कत्र्तव्य है। इसलिए मैंने जो कुछ किया वह सोच समझकर किया, अपनी मां भारती के सम्मान और प्रतिष्ठा की रक्षार्थ किया, उसका फल आपकी दृष्टि में मेरे लिए अशुभ हो सकता है, पर मेरे लिए उससे शुभ कुछ नहीं हो सकता। प्रजाहित-चिंतन शासन और शासक का सर्वप्रथम कत्र्तव्य और दायित्व होता है, यदि कोई शासन या शासक अपने इस कत्र्तव्य और दायित्व से विमुख होता है तो उसका विरोध करना हर नागरिक का कत्र्तव्य और दायित्व बन जाता है।
मर्यादा विमुख लोगों और सत्ताधीशों को न्याय पूर्ण मार्ग पर लाना हर व्यक्ति के जीवन का उद्देश्य है, क्योंकि ईश्वर ने हर व्यक्ति को संसार में मर्यादाएं स्थापित करने और कराने के लिए भेजा है, और मर्यादाओं के टूटने से संसार में अराजकता का साम्राज्य बनता है तथा मर्यादाओं के बंधन से संसार में शांति का साम्राज्य स्थापित होता है। इसलिए मैंने अपने जीवन में वही किया जो मेरा धर्म मुझे बताता है।
वध स्थल पर बादशाह भी आया
आज के इस कार्यक्रम में बादशाह भी उपस्थित था। उसने भी वैरागी को बड़े ध्यान से देखा। आज वह अंतिम बार अपने उस शत्रु को बड़े ध्यान से देख लेना चाहता था-जिसके कारण उसका दिन का चैन और रात्रि की नींद समाप्त हो गयी थी।
बादशाह अपने इस शत्रु को अपनी आंखों से मरते देखना चाहता था साथ ही अन्य लोगों के लिए अपनी उपस्थिति से इस बात की पुष्टि कर देना चाहता था कि वीर बैरागी अब इस संसार में नही रहा।
बादशाह ने सारी भीड़ को पीछे छोडक़र स्वयं आगे बढक़र वीर वैरागी की वीरता और शौर्य की परीक्षा लेनी चाही। उसने पूछ लिया। वैरागी अब तुम्हारी अंतिम घड़ी आ चुकी है। बताइये कि तुम्हें किस प्रकार मारा जाए?
जैसे चाहें वैसे मेरा वध कर सकते हैं
वीर बैरागी चिंता मुक्त खड़ा रहा। कुछ देर में बड़ी गंभीरता से उसके हृदय से शब्द उपजकर आये। उसने जो कुछ कहा वह स्वर्णिम अक्षरों में लिखने योग्य है। वैरागी ने कहा-”आप जैसे चाहें वैसे मेरा वध कर सकते हैं।” एक ही वाक्य मेें वैरागी ने बहुत कुछ कह दिया था। उसके हृदय में गीता का स्रोत फूट रहा था जो उसे प्रेरित कर रहा था कि मेरे स्थूल शरीर का अंत किया जा सकता है, परंतु मैं तो अमर हूं, अविनाशी हूं।
मेरे उस ‘मैं’ आत्मतत्व को कोई मिटा नही सकता। थोड़ी देर की पीड़ा झेलनी है जो इस शरीर को समाप्त करते समय होगी, क्यों न उसे हंसकर झेल लिया जाए। अपने एक वाक्य में भारत के इस शाश्वत चिंतन को बैरागी ने बड़ी गंभीरता से उकेरकर रख दिया था। उसने यह भी मान लिया था कि शत्रु आज किसी भी प्रकार कि निर्दयता का प्रदर्शन कर सकता है, इसलिए उसके सामने अंतिम क्षणों में प्राणों की भिक्षा मांगकर स्वयं को लज्जित करना होगा और अपनी वीरतापूर्ण मृत्यु का अपमान करना होगा। इसलिए उचित यही है कि शत्रु जैसे चाहे उसे अपना काम करने दिया जाए।
बैरागी के पुत्र के कर दिये गये टुकड़े
जिस समय भारत के इस शेर का अंत किया जा रहा था, उस समय उसके पास उसका एक पुत्र भी उपस्थित था। जिसे वधिकों ने बादशाह की आज्ञा से बैरागी की जंघाओं पर रख दिया था। बादशाह ने वैरागी को अपने हाथ से एक छुरा पकड़ाया और उस बच्चे की छाती में भोंकने के लिए कहा। ऐसी अपेक्षा किसी भी पिता से नहीं की जा सकती कि वह अपने हाथों से ही अपने पुत्र का वध करे। वैरागी के लिए पुन: एक परीक्षा की घड़ी आ गयी थी। परंतु वह पुन: गंभीर स्वर से कह उठा-‘नहीं मैं यह नहीं कर सकता।’ बादशाह की सोच रही होगी कि वैरागी संभवत: किसी प्रकार की घबराहट के वशीभूत होकर अपने पुत्र का वध कर सकता है। परंतु वीर बैरागी को उन क्षणों में भी भय कहीं छू तक नहीं गया था। वह धर्मवीर था और अंतिम क्षणों में भी अपने धर्म से विमुख होना या अपनी वीरता को त्यागना महान अपराध मानता था। इसलिए पुत्र का वध करने की बात को उसने बड़ी गंभीरता और वीरता से टाल दिया। वधिक को वैरागी के इस प्रकार के उत्तर अच्छे नहीं लग रहे थे। वह वैरागी को आतंकित और भय ग्रस्त कर देना चाहता था। इसलिए उसने बिना समय खोये और तनिक भी विलंब किये बिना अपनी तलवार से बच्चे के दो टुकड़े कर दिये।
बच्चे के रक्त की धारा बह चली। पिता का कलेजा भी आहत हुआ । पर पिता के लिए ये क्षण अपने शोक को प्रकट करने के न होकर स्वयं को ‘अशोक’ के रूप में प्रकट करने के थे। इसलिए वह पूर्णत: शांत बैठा रहा।
वधिक सोचता था कि पुत्र के दो टुकड़े देखकर वैरागी की पीड़ा आंखों से छलकेगी। पर ऐसा कुछ भी प्रभाव न देखकर वह पुन: झल्ला उठा। क्रोध की यह विशेषता होती है कि यह तभी आता है-जब आपकी किसी कामना की पूत्र्ति में किसी के द्वारा विघ्न डाला जाता है।
पुत्र का कलेजा निकालकर बैरागी के मुंह में डालने का किया प्रयास
वधिक ने पुन: अधर्म किया और पुत्र का कलेजा निकालकर वैरागी के मुंह में देने का असफल प्रयास किया। जिसे पिता ने किसी भी प्रकार से लेने से इंकार कर दिया। अब तो धर्म से क्रोध की शत्रुता खुले रूप में सामने आ गयी। वधिक पागल हो उठा।
दिया बैरागी ने अपना बलिदान
अपने बादशाह अधिकारी गण और काजियों की मौन स्वीकृति तो वधिकों के साथ थी ही, इसलिए अब वधिक निर्ममता और क्रूरता पर उतर आया। उसने लोहे की गरम सलाखों से तथा तपे हुए लाल चिमटों से मारना तथा उसके मांस के लोथड़े खींचना आरंभ कर दिया। अत्यंत कारूणिक दृश्य था वह। जिन लोगों के हृदय सचमुच धडक़ते थे उनके हृदयों की धडक़नें रूक गयीं और वैरागी के स्थान पर वे भीतर ही भीतर चीत्कार करने लगे। बैरागी के शरीर की हड्डियां दीखने लगीं पर उस शेर ने न तो कोई सी निकाली और न ही अपने देश प्रेम पर किसी प्रकार का पश्चात्ताप किया। अत्यंत करूणाजनक स्थिति में मां भारत का यह शेरपुत्र बलिदानी परंपरा पर हुतासन में बैठ गया।
भाई जी कहते हैं-”इस देश के अंदर एक वीर उत्पन्न हुआ जिसके जीवन के कारनामे अनुपम हैं, जिसकी शहादत अद्वितीय है परंतु आश्चर्य तो केवल इस बात का है कि इस जाति ने ऐसे वीर शिरोमणि को भुला दिया, यदि इसके आत्मावसान पर कोई समाधि न हो तो कोई हर्ज नहीं, यदि इसका और किसी प्रकार का कोई स्मारक न हो तो कोई परवाह नहीं, परंतु यदि हिंदू बच्चों के हृदय मंदिरों में राम और कृष्ण की तरह वैरागी का नाम नहीं बसता तो जाति के लिए इससे बढक़र और कोई अक्षम्य पाप न होगा।
वैरागी की आंख बंद होनी थीं कि सिखों की आंखें खुलीं। मायाजाल हट गया। उन्हें अब ज्ञात हुआ कि वे क्या कर बैठे हैं और उन्हें इस करनी का क्या प्रतिफल मिला है? वैरागी की कत्र्तव्य परायणता का ज्ञान उन्हें अब हुआ किंतु अब पछताये हो क्या, जब चिडिय़ा चुग गयी खेत।”