आंबेडकर ने अंग्रेजों के खिलाफ आवाज क्यों नहीं उठाई?
उमेश चतुर्वेदी
तारीख 14 अगस्त 1931, इतिहास की दो महान हस्तियों के मिलन का दिन। एक ओर थे मोहनदास करमचंद गांधी यानी महात्मा गांधी और दूसरी तरफ थे डॉक्टर भीमराव आंबेडकर। इन दोनों के बीच थी चिंता और अविश्वास की चौड़ी खाईं। यह मुलाकात साइमन कमीशन की भारत यात्रा के दरम्यान हो रही थी। इसका मकसद था दलितों के मुद्दे पर उभरे आपसी मतभेदों को दूर करना।
इस मुलाकात के दौरान गांधी का लहजा नरम था, हमेशा की तरह। लेकिन, आवाज में जानी-पहचानी दृढ़ता थी। उन्होंने आंबेडकर से पूछा, ‘मैं अछूत माने जाने वाले लोगों की समस्याओं के बारे में तब से सोच रहा हूं, जब आप पैदा भी नहीं हुए थे। ऐसे में मुझे बड़ा अचरज होता है कि आप मुझे उस तबके का हितैषी नहीं मानते?
गांधी उस वक्त तक भारतीय जनमानस का केंद्रबिंदु बन चुके थे। उनकी प्रतिष्ठा अपार थी। उनकी एक आवाज पर लाखों लोग खिंचे आते थे। लेकिन, गांधी की शख्सियत का आंबेडकर पर कोई असर नहीं हुआ। उन्होंने गांधी के सवाल का एकदम तीखा जवाब दिया। आंबेडकर ने कहा, ‘अगर आप अछूतों के खैरख्वाह होते, तो कांग्रेस का सदस्य बनने के लिए खादी पहनने के बजाय छुआछूत खत्म करने को पहली शर्त बनाते।’
आंबेडकर ने गांधी को जो जवाब दिया, वह उनकी शख्सियत को समझने का सूत्र है। उनके जवाब से साफ जाहिर होता है कि आजादी का ख्याल उनके मन में दूर-दूर तक नहीं था। जब पूरा मुल्क आजादी के लिए अपना खून-पसीना एक कर रहा था, उस वक्त आंबेडकर कुछ और ही सोच रहे थे। वह उस वक्त अंग्रेजों के साथ खड़े थे, छिपे तौर पर नहीं, खुलकर।
मशहूर पत्रकार अरुण शौरी अपनी चर्चित किताब वरशिपिंग फॉल्स गॉड्स (Worshipping False Gods) में आंबेडकर की जिंदगी के ऐसे पहलुओं पर रोशनी डालते हैं, जिनपर इतिहास की कम ही नजर गई है। इसमें कोई शक नहीं कि संविधान सभा की प्रारूप समिति के अध्यक्ष होने के नाते संविधान को अंतिम रूप देने में आंबेडकर का अहम योगदान है। लेकिन यह भी सच है कि आंबेडकर ने कभी आजादी की लड़ाई में हिस्सा नहीं लिया। शौरी अपनी किताब में इसी बिंदु पर ज्यादा रोशनी डालते हैं।
वरशिपिंग फॉल्स गॉड्स के मुताबिक- आंबेडकर की नजर में स्वतंत्रता आंदोलन ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति का संघर्ष नहीं था। वह इसे हिंदुओं और मुस्लिमों का आपसी सत्ता संघर्ष मानते थे। उन्होंने संविधान सभा का सदस्य रहते हुए साल 1946 में यह बात खुलकर कही थी। उन्होंने यहां तक कह दिया था, ‘कांग्रेस मध्यवर्गीय हिंदुओं की संस्था है, जिसे हिंदू पूंजीपतियों का समर्थन हासिल है। इसका लक्ष्य भारतीयों की स्वतंत्रता नहीं, बल्कि ब्रिटेन के नियंत्रण से मुक्त होना और सत्ता प्राप्त करना है।’
भारत के स्वतंत्रता संग्राम में 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन का हिस्सा सबसे महत्वपूर्ण है। इसी आंदोलन के बाद ब्रिटिश हुकूमत को लगने लगा था कि अब भारत को आजाद कर देना चाहिए। अंग्रेजी सरकार का रेकॉर्ड बताता है कि भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान करीब 24 हजार लोग बर्बर दमन के चलते शहीद हुए। 80 हजार से ज्यादा लोगों जेलों में बंद किया गया। ध्यान रहे कि ये सरकारी आंकड़े हैं, गिरफ्तार और शहीद होने वालों की संख्या इससे कई गुना ज्यादा रही होगी। लेकिन, हैरानी की बात है कि आंबेडकर का इस आंदोलन में कोई योगदान नहीं था।
जब देश के नौजवानों से लेकर बुजुर्ग और बच्चे तक भारत छोड़ो आंदोलन का हिस्सा बन रहे थे, उस वक्त आंबेडकर वायसराय की कौंसिल के सदस्य थे। आज की भाषा में कहें, तो ब्रिटिश हुकूमत में कैबिनेट मिनिस्टर थे आंबेडकर। उस सरकार के मंत्री, जो अहिंसक आंदोलनकारियों पर बेरहमी से लाठियां और गोलियां बरसा रही थी। असल में आंबेडकर इस आंदोलन के दशकों पहले से अंग्रेजों के साथ मिलकर काम कर रहे थे।
आंबेडकर ने साइमन कमीशन के सामने दलितों के लिए अलग निर्वाचन व्यवस्था की मांग भी की। ब्रिटिश हुकूमत ने अगस्त 1932 में उनकी मांग को स्वीकार कर लिया और दलित समुदाय को दो वोट देने का अधिकार दे दिया। लेकिन, महात्मा गांधी ने इसका कड़ा विरोध किया। उनका मानना था कि ब्रिटिश सरकार इस तरह की व्यवस्था से हिंदू समुदाय को बांटना चाहती है, ताकि वह जन-आंदोलन को कमजोर कर सके।
उस वक्त गांधी दांडी यात्रा के चलते गिरफ्तार थे और पुणे के यरवदा जेल में बंद थे। उन्होंने जेल में ही दलितों के लिए अलग निर्वाचन मंडल के विरोध में आमरण अनशन किया। आखिर में गांधी की लोकप्रियता के आगे आंबेडकर को झुकना पड़ा। उन्होंने सितंबर 1932 में गांधी के साथ समझौता किया, जिसे ‘पूना पैक्ट’ के नाम से जाना जाता है।
मौजूदा भीम-मीम यानी दलित-मुस्लिम गठजोड़ की खूब बात होती है। इसके जरिए यह संदेश देने की कोशिश होती है कि आंबेडकर को मुस्लिमों से भी हमदर्दी थी। लेकिन, हकीकत इससे ठीक उलट है। उनका मानना था कि मुस्लिम देश से ज्यादा अपने मजहब के प्रति वफादार होते हैं।
पाकिस्तान का विचार मशहूर शायर अल्लामा इकबाल यानी मुहम्मद इकबाल (Muhammad Iqbal) ने दिया। लेकिन, उसे सैद्धांतिक आधार देने वाले आंबेडकर ही थे। उन्होंने अपनी किताब- थॉट्स ऑन पाकिस्तान (Thoughts on Pakistan) में तार्किक ढंग से लिखा है कि पाकिस्तान का गठन क्यों जरूरी है। इसी किताब के आधार पर राष्ट्रवादी विचारधारा के लोग अक्सर आंबेडकर पर निशाना साधते रहे हैं।
आंबेडकर भारत के लोकतंत्र का आधार माने जाने वाले संविधान के निर्माता थे। लेकिन, खुद आंबेडकर को ही भरोसा नहीं था कि भारत लोकतांत्रिक मुल्क के तौर पर कामयाब हो पाएगा। उन्होंने जून 1953 में एक इंटरव्यू कहा कि भारत में लोकतंत्र कामयाब नहीं होगा यानी संविधान बनाने और लागू होने के महज तीन-चार वर्षों में ही आंबेडकर के विचार बदल गए थे।
इसमें शक नहीं कि आंबेडकर इतिहास-पुरुष हैं। उन्होंने दलितों के उत्थान के लिए कई सफल प्रयास किए। संविधान बनाने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। लेकिन, उनकी जिंदगी से जुड़े कई असहज करने वाले तथ्य भी हैं, जिनपर वक्त की धूल पड़ गई है। उस धूल को झाड़े बिना आंबेडकर का उचित मूल्यांकन नहीं हो सकता।
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