बिखरे मोती-भाग 225
‘ज्ञानचक्षु वेद की महिमा’
वेदों को विस्मृत करें,
जिसका मुझको खेद।
मनुष्यत्त्व से देवत्त्व को,
प्राप्त कराये वेद ।। 1162 ।।
व्याख्या :-भूतल पर जितने भी राष्ट्र हैं उन सब में प्राचीनतम तथा उच्चतम सभ्यता संस्कृति यदि किसी राष्ट्र की है तो वह भारतवर्ष की है, जिसका कोई सानी नहीं। मानव जीवन की उत्कर्षता अथवा सफलता उसके उचित जीवनादर्श पर निर्भर होती है। हमारी सभ्यता और संस्कृति के उच्चतम जीवनादर्श के मूल स्तम्भ ईश्वरीय ज्ञान के खजाने तथा आध्यात्मिक तथा भौतिक विकास अथवा सुख समृद्घि के प्रेरणास्रोत हमारे चारों वेद रहे हैं। इसीलिए भारतवर्ष की सभ्यता और संस्कृति वैदिक सभ्यता के नाम से विश्व विख्यात हुई, वैदिक संस्कृति के नाम से प्रख्यात हुई। यहां तक कि मानवीय संवेदनाओं को उच्चतम और पवित्रतम बनाने के लिए जिस धर्म की स्थापना हुई उसे भी वैदिक धर्म के नाम से सम्पूर्ण विश्व जानता था।
वेद से प्राणित और पोषित सभ्यता-संस्कृति के कारण भारत कभी विश्वगुरू कहलाता था। हमारा अतीत गौरवमय था। समस्त भूमंडल पर कभी आर्यों का साम्राज्य था। इस संदर्भ में स्वर्गीय राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की प्रसिद्घि पुस्तक ‘भारत-भारती’ में ‘हमारी सभ्यता’ नामक शीर्षक से कुछ पंक्तियां पाठकों के ज्ञानवर्धन के लिए उद्घृत करना चाहता हूं :-
संसार को पहले हमीं ने,
ज्ञान-शिक्षा दान की।
आचार की व्यापार की,
हां और ना भी अन्यजन,
करना न जब थे जानते।
थे-ईश के आदेश तब,
हम वेदमन्त्र बखानते।।
जब थे दिगम्बर रूप में वे,
जंगलों में थे घूमते।
प्रासाद-केतन-पट हमारे,
चन्द्र को थे चूमते।।
थी दूसरों की आपदा,
हरणार्थ अपनी सम्पदा।
कहते नहीं थे किन्तु हम,
करके दिखाते थे सदा।।
नीचे गिरे को प्रेम से,
ऊंचा उठाते थे हमीं।
पीछे रहे को घूमकर,
आगे बढ़ाते थे हमीं।।
था कौन ईश्वर के सिवा,
जिसको हमारा सिर झुके।
हां, कौन ऐसा स्थान था,
जिसमें हमारी गति रूके।।
सारी धरा तो थी धरा ही,
सिन्धु भी बन्धवा दिया।
आकाश में भी आत्मबल से,
सहज ही विचरण किया।।
मेरा कहने का अभिप्राय है कि हमारी वैदिक सभ्यता और संस्कृति इतनी उत्कर्ष को प्राप्त हुई, जो अपने आप में अनुपम थी, अप्रतिम थी और विदेशियों के लिए आकर्षण का केन्द्र थी, किन्तु आज हम अपनी सभ्यता-संस्कृति को जो वेदों से प्राणित भी पोषित थी, उसे भूलते जा रहे हैं और अपने बच्चों के सामने हॉलीवुड और बॉलीवुड की गन्दगी परोस रहे हैं, पाश्चात्य सभ्यता संस्कृति का अन्धानुकरण कर रहे हैं, बच्चों के हृदय से शुभ संकल्प और सुसंस्कारों का उन्मूलन कर रहे हैं और अपेक्षा कर रहे हैं-सभ्याचरण और सत्याचारण की, भारतीय सभ्यता और संस्कृति के विकास की। यह हमारी सभ्यता और संस्कृति का हृास नहीं तो और क्या है? यह हमारी राष्ट्रीय अस्मिता पर, राष्ट्रीय स्वाभिमान पर परोक्ष रूप से प्रहार नहीं तो और क्या है? माना कि आपके बच्चे साक्षर तो हो रहे हैं, किंतु कुसंस्कारों से सुशिक्षित कितने हो रहे हैं? क्रमश: