गीता का अठारहवां अध्याय
वह परमपिता-परमात्मा इस जगत का मूल कारण है। उसी से सब प्राणी जन्म लेते हैं, उसी से यह सारा जगत व्याप्त है। उस ईश्वर की अपने कर्म से पूजा करके मनुष्य सिद्घि को प्राप्त कर लेता है। कहने का अभिप्राय है कि यदि व्यक्ति को सिद्घि को प्राप्त करना है
तो उसे एकेश्वरवादी होना पड़ेगा, क्योंकि सिद्घि की प्राप्ति परमेश्वर की पूजा करने से ही प्राप्त की जा सकती है, उसके श्री चरणों में अपने सत्कर्मों की भेंट चढ़ाने से यह कार्य सरलता से किया जा सकता है।
यदि कोई व्यक्ति अपने धर्म का शास्त्रविहित रीति से पालन नहीं करता है या ऐसा करने में चूक करता है, असावधानी या प्रमाद का प्रदर्शन करता है और दूसरे के धर्म को आसान समझकर उसमें रूचि दिखाता है तो यह गलत है। मनुष्य को हर स्थिति में स्वधर्म पालन करने की ही शिक्षा गीता देती है। स्वभाव के अनुसार नियत कर्म करना चाहिए इससे व्यक्ति को पाप नहीं लगता है।
स्वधर्म का पालन ही सर्वोत्तम है-गीता का यह आदेश है। इसका अभिप्राय यह नहीं है कि कोई मुसलमान है तो वह इस्लाम का पालन करे और कोई ईसाई है तो वह ईसाइयत का पालन करे। संसार के ये सारे धर्म तो वास्तव में सम्प्रदाय हैं, इन्हें धर्म नहीं माना जा सकता। सम्प्रदाय कभी भी मनुष्य को मनुष्य बनने की शिक्षा नहीं देता, वह मनुष्यों को बांटता है, उनमें अन्तर पैदा करके देखता है। इस प्रकार की सोच मनुष्य मनुष्य के बीच विवादों और झगङ़ों को जन्म देती है। इन धर्मों के पालन की बात गीता नहीं कर रही है। यदि सम्प्रदायों के नियमों के पालन की बात गीता करेगी तो फिर वह भी साम्प्रदायिक हो जाएगी। ‘गीता’ तो साम्प्रदायिकता को जानती तक भी नहीं है। वह बहुत ऊंची बात कह रही है। उसका कहना है कि ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम के लिए जो नियत धर्म है, कत्र्तव्य कर्म है, नैतिक नियम है-लोकहित को साधने वाली व्यवस्थाएं हैं-उनका पालन करना हर व्यक्ति का स्वधर्म है। यदि वे कत्र्तव्य कर्म, नैतिक नियम और लोकहित को साधने वाली व्यवस्थाएं पालन की जाएंगी तो व्यष्टि से समष्टि तक का कल्याण हो जाएगा। यही गीता का उद्देश्य है।
श्रीकृष्णजी का कथन है कि अर्जुन! मनुष्य को अपने सहज स्वभाव के अनुसार जो कार्य हो उसे छोडऩा नहीं चाहिए, उसमें दोष भी क्यों न हो तो भी उसे ही करना चाहिए। क्योंकि जैसे आग धुएं से ढकी रहती है वैसे ही सब कर्म किसी न किसी दोष से ढके रहते हैं। कहने का अभिप्राय है कि स्वधर्म को शास्त्रविहित विधि से पूर्ण करना चाहिए। यहां पर यह स्पष्ट किया गया है कि अपने धर्म के छोटे-मोटे दोष को देखकर उससे मुंह नहीं फेरना चाहिए। जैसे एक किसान हल चलाता है तो उसके हल में कितने ही मेंढक, कैंचुए, कीड़े, मकोड़े, सांप, कछुए आदि कट जाते हैं और उनकी मृत्यु हो जाती है तो इन्हें देखकर किसान को अपना धर्म नहीं छोडऩा चाहिए। कारण कि वह ऐसा जानबूझकर नहीं कर रहा है वह सब कुछ अनजाने में हो रहा है। किसान का वास्तविक उद्देश्य तो संसार का पालन करना है-वह उसी उद्देश्य की प्राप्त के लिए कर्म करे-यही उसका धर्म है। उसे जानबूझकर की जाने वाली हिंसा से बचना चाहिए। इसी प्रकार यज्ञ की वेदी से भी जो धुंआ निकलता है-वह कुछ सीमा तक प्रदूषण फैलाता है, परन्तु वह प्रदूषण यज्ञ के गुणों के समक्ष नगण्य है। अत: यज्ञ के धुएं से होने वाले कुछ प्रदूषण के दोष को जान समझकर यज्ञ को ही तिलांजलि दे देना स्वधर्म के पालन में प्रमाद माना जाएगा। इसे ही श्रीकृष्णजी यहां स्पष्ट कर रहे हैं और कह रहे हैं कि स्वभाव के अनुसार जो कार्य हो उसे छोडऩा नहीं चाहिए।स्वभाव के अनुसार ही करते जाओ कर्म।
याद इसे रखना सदा मानकर निज धर्म।।
गीताकार का मानना है कि जिस व्यक्ति ने सब कहीं से आसक्ति को खींच लिया है, जिसने मन को जीत लिया है, जिसने कामनाओं को त्याग दिया है-वह इस प्रकार के संन्यास द्वारा उस परमसिद्घि को प्राप्त कर लेता है, जिसे ‘नैष्ठकम्र्य’-कर्म का न होना कहा जा सकता है। वास्तव में मन को जीत लेने से और आसक्ति पर नियंत्रण स्थापित कर लेने से ही कामनाओं का त्याग किया जा सकता है, और जहां कामनाओं का त्याग हो जाता है-वहां परमसिद्घि की प्राप्ति सहज हो जाती है।
कैसे हो परमसिद्घि की प्राप्ति
परमसिद्घि की प्राप्ति के विषय में श्रीकृष्णजी बताते हैं कि हे कौन्तेय! सिद्घि को प्राप्त करने के बाद व्यक्ति ब्रह्म को कैसे प्राप्त कर लेता है?-यह जानना भी आवश्यक है। क्योंकि ब्रह्म ज्ञान की पराकाष्ठा है और ज्ञान की पराकाष्ठा पर पहुंचना ही गीता मानव जीवन का उद्देश्य मानती है। भारतीय संस्कृति की यह विशेषता है कि वह परम और चरम में विश्वास करती है, वह चाहती है कि मनुष्य अज्ञान की अवस्था से निकलकर परम ज्ञान की चरम अवस्था तक अर्थात पराकाष्ठा तक पहुंचे। अब श्रीकृष्णजी इसी विषय पर अपनी बात कहने लगे हैं। योगेश्वर कहते हैं कि विशुद्घ बुद्घि से युक्त होकर- अपने आपको धैर्य अर्थात दृढ़तापूर्वक संयम में रखकर शब्दादि इन्द्रियों के विषयों को त्यागकर राग और द्वेष को त्यागकर ज्ञान की पराकाष्ठा तक पहुंचा जा सकता है। परमज्ञान की चरमावस्था की प्राप्ति को गीता ने वर्तमान विश्व के लिए एक शानदार लक्ष्य बनाकर प्रस्तुत कर दिया है। इसमें विश्व के लिए और विश्व के व्यवस्थापकों के लिए एक चुनौती है कि हे संसार के लोगों! यदि आप वास्तव में परमसिद्घि की प्राप्ति करना चाहते हो और परम ज्ञान की चरमावस्था को अर्थात पराकाष्ठा को पाकर उससे तृप्त होना चाहते हो तो तुम्हें विशुद्घ बुद्घि से युक्त होना पड़ेगा, अपने आपको धैर्य अर्थात दृढ़तापूर्वक संयम में रखकर शब्दादि इन्द्रियों के विषयों से दूर करना होगा। भारतीय संस्कृति की यही जीवनशैली है, इसी उत्कृष्ट जीवनशैली से भारतीय संस्कृति के मूल्यों का निर्माण हुआ है। संसार यदि अपने पागलपन और अज्ञानता के कारण भारत को समझने में असफल रहा है तो भारत को तो अपने आपको समझना चाहिए। अपनी बात को और स्पष्ट करते हुए श्रीकृष्णजी आगे कह रहे हैं कि एकान्त स्थान का सेवन करने वाला, अल्पाहार करने वाला वाणी शरीर और मन को वश में करने वाला, सदा ध्यान तथा एकाग्रता में तत्पर, वैराग्य की शरण में रहने वाला-व्यक्ति परमसिद्घि की प्राप्ति कर लेता है। इस स्थान पर भी प्रयुक्त श्लोक में जिन उच्चादर्शों को अपनाकर परमसिद्घि की प्राप्ति का संकेत किया गया है-वे भी भारतीय संस्कृति के मूल्य ही हैं, जो व्यक्ति को सार्थक जीवन जीने की कला सिखाते हैं। मनुष्य जीवन की सार्थकता पशु की भांति पेट भरना और मल त्याग करना नही है, अपितु मनुष्य जीवन की सार्थकता तो परमसिद्घि की प्राप्ति के मार्ग का अनुसरण करने में निहित है। उन सांस्कृतिक मूल्यों को अपना लेने में है- जिनसे उसके मानव जीवन का कल्याण हो सके। क्रमश: