बिखरे मोती-भाग 226
गतांक से आगे….
क्या कभी इस विषय पर गम्भीर चिन्तन किया है? यह नैतिक सांस्कृतिक और आध्यात्मिक पतन नहीं तो और क्या है? लज्जा-जिसे लोक लिहाज कहते हैं, उसका दिवाला नहीं तो और क्या है? यह हमारे पूर्वज ऋषि-मुनियों के दिये हुए प्रेरणास्पद प्रवचनों का अपमान नहीं तो और क्या है? यह वेदों की घोर अवहेलना नहीं तो और क्या है? वेदों के ज्ञान की उपेक्षा के कारण ही आज समाज में भ्रष्टाचार, दुराचार अत्याचार सुरसा के मुंह की तरह बढ़ रहा है। समाज की इस दयनीय दुर्दशा और दु:खद स्थिति को देखकर मेरा हृदय कराह उठता है। मुझे बड़ी पीड़ा होती है और अंदर से आत्मा कहती है-‘चलो वेद की ओर’ वेद ईश्वरीय ज्ञान है, जो मनुष्य को मनुष्यत्व से देवत्त्व को प्राप्त कराता है, भगवत्ता को प्राप्त कराता है। काश! हम वेद की महिमा को समझें।
आओ, वेद की महिमा पर विचार करें। विधाता ने अनंत ब्रह्माण्ड की सुंदरतम रचना की है, जिसमें असंख्य नक्षत्र, ग्रह, उपग्रह और उल्कापिण्ड बनाये हैं। हमारी जैसी पृथ्वी और भी अनेक हैं, सूर्य भी अनेक हैं किंतु पृथ्वी पर जीवन का केन्द्र सूर्य है। सूर्य अपने सौर-परिवार में विधाता की विष्टितम कृति है, अनुपम विभूति (देन) है किंतु सूर्य से भी अधिक महिमाशाली परमपिता परमात्मा की यदि कोई देन है, तो वह ईश्वरीय ज्ञान-वेद है जो आदिकाल में महर्षि अग्नि, वायु आदित्य, अंगिरा के द्वारा प्रकट हुआ। वेद चार हैं-ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद। इनमें ऋग्वेद को विश्व की सबसे प्राचीनतम पुस्तक माना गया है। वेद मनुष्य को मानवीय सीमा का अतिक्रमण कराके देवत्त्व को प्राप्त कराता है, यद्यपि सूर्य पृथ्वी के जीवन का केन्द्र है, उसकी रश्मियां प्राण प्रकाश और ऊर्जा देती हैं किंतु मोक्ष प्रदान नहीं करती हैं इसलिए यहां सूर्य वेद से पीछे रह जाता है।
सूर्य ब्रह्मा की यदि एक आंख है तो दूसरी आंख ‘वेद’ है। वेद में व्यक्ति से लेकर समस्त विश्व के कल्याण की अनेकों प्रकार से प्रार्थनाएं की गयीं हैं। वेद में द्यौ, अंतरिक्ष, आकाश, अन्न, औषधि वनस्पति, जल व प्राण, जीव जंतुओं, प्राणियों के लिए तथा लोक-लोकान्तरों के लिए एवं विश्व मंगल की कामना की गयी है।
वेद भौगोलिक सीमाओं को लांघकर समस्त पृथ्वी को अपना परिवार मानता है, इसीलिए कहा गया है-‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ लौकिक और पारलौकिक अर्थात भौतिक और आध्यात्मिक ज्ञान का खजाना है-वेद। सभ्यता और संस्कृति की धुरी है वेद। इन सबका मूलस्रोत है वेद। मनुष्य को जीवन विधाता ने दिया किंतु जीवन कैसे जीया जाए, इसका ज्ञान हमें वेद ने दिया। इसलिए वेद ज्ञान का दिव्य नेत्र है, ज्ञानचक्षु है। वेद हमें इन्द्रिय संयम, हृदय की पवित्रता, मानसिक स्थिरता, ईश्वर में आस्था और समर्पणका भाव सिखाता है। हमारा हृदय वेद के प्रकाश से ज्योतिर्मय होने पर ही हम सच्चे अर्थों में मानव कहलाते हैं अन्यथा हम पशुता में ही जीवन जीते हैं, जड़ता (अज्ञान और अहंकार) का जीवन जीते हैं और चैतन्य से उतना ही दूर रहते हैं। इस संदर्भ में शायर कहता है :-
जिन्दगी में हम, अपना खुदा भूल गये।
जीते तो हैं, मगर जीने की अदा भूल गये। वेद प्रकाश है, पथप्रदर्शक है, जो जीवन के अंतिम लक्ष्य को प्राप्त कराने वाला प्रेरक है अर्थात हमें अपने आत्मस्वरूप में जीने की प्रेरणा देता है। वेद यह को जानने की अर्थात संसार अथवा प्रकृति को जानने की, वह को मानने की अर्थात परमात्मा को मानने की, मैं को पहचानने की अर्थात आत्मा को पहचानने की प्रेरणा देता है।
क्रमश: