गीता का अठारहवां अध्याय

भारतीय संस्कृति का उच्चादर्श इस पृथ्वी को स्वर्ग बना देना है और यह धरती स्वर्ग तभी बनेगी जब सभी लोग ईश्वरभक्त हो जाएंगे, और ईश्वरभक्त बनकर ईश्वरीय वेदवाणी को संसार के कोने-कोने में फैलाने के लिए कार्य करने लगेंगे। धरती को स्वर्ग बनाना और उसके लिए जुट जाना ईश्वरीय आज्ञा का पालन करना है। गीता धरती को स्वर्ग बनाने के कार्यों में लगे लोगों को ही ईश्वर भक्त मानती है, साधु मानती है, सच्चा साधक-आराधक, भक्त मानती है। वह कहती है किजो लोग ऐसी प्रकृति के होते हैं उन पर ईश्वर की विशेष कृपा होती है।
अब श्रीकृष्णजी गीता के उपसंहार के अन्तिम सोपान की ओर बढ़ रहे हैं। वह अर्जुन से कहने लगे है कि अर्जुन! संसार में जो व्यक्ति हमारे इस संवाद का अर्थात गीता ज्ञान का अध्ययन करेगा इसे समझेगा, अध्ययन कर हृदयंगम करेगा-मेरी यह धारणा है कि वह मेरी ज्ञान यज्ञ द्वारा पूजा कर रहा होगा। वह अक्षीयमाण अर्थात नष्ट न होने वाले ज्ञान को प्राप्त करेगा।
योगेश्वर श्री कृष्णजी की बात का अभिप्राय है कि हमारे इस संवाद को समझकर जो अपने जीवन व्यवहार का उसे एक आवश्यक अंग बना लेगा-उसका जीवन संवर जाएगा। वह ज्ञान यज्ञ के माध्यम से चौबीसों घंटे परमपिता परमात्मा की पूजा कर रहा होगा। श्रीकृष्णजी कहते हैं कि जो व्यक्ति श्रद्घा से युक्त होकर, ईष्र्या से रहित होकर इस संवाद को सुनेगा वह भी मुक्त होकर पुण्य कर्म वाले लोग जहां बसते हैं-उन शुभ लोकों को पावेगा।
ईश चर्चा को जो सुने श्रद्घामयी इंसान।
शुभ लोकों को पाएगा ऐसा निश्चय जान।।
यहां एक प्रकार से श्रीकृष्णजी ने स्वाध्याय के या सद्ग्रन्थों के अध्ययन के लाभ ही बता दिये हैं। स्वाध्याय में वास्तव में ऐसी ही शक्ति होती है कि सच्चे स्वाध्यायी व्यक्ति के इहलोक और परलोक दोनों ही सुधर जाते हैं। स्वाध्याय का अभिप्राय ‘स्व’ अर्थात अपना अध्ययन करना भी है। स्वयं को पढऩा कि मैं कितना सही हूं और मैंने आत्मविजय की दिशा में कितना परिश्रम किया है? कितना करना चाहिए या और कितना करना शेष है? या मैं कितना कर पाया हूं?-जब ऐसी भावना गीता ज्ञान के प्रति भक्त की बन जाएगी तो ‘गीता’ हमारे रोम-रोम से मुखरित होकर झांकने लगेगी। उन क्षणों में हमारे जीवन में श्रीकृष्णजी और अर्जुन दोनों हर मोड़ पर हमारा मार्गदर्शन करने लगेंगे। तब हम जीवन के संग्राम से भागने वाले ‘अर्जुन’ न बनकर इस युद्घ को पूर्ण मनोयोग से लडऩे वाले महारथी बन जाएंगे और जीवन संग्राम में निश्चय ही विजयी होकर दम लेंगे।
योगेश्वर श्रीकृष्णजी अन्त में अर्जुन से पूछ रहे हैं कि ”हे पार्थ! अभी तक जो कुछ तुझे मैंने सुनाया है, बताया है, समझाया है या गीता ज्ञान दिया है। क्या तूने एकाग्रचित होकर यह सब कुछ सुना? हे धनञ्जय! अज्ञान के कारण जो तुझे ‘मोह’ उत्पन्न हो गया था-आसक्ति उत्पन्न हो गयी थी-वह तेरा मोह तुझसे दूर हुआ या नहीं?
इसका अभिप्राय है कि यदि तूने एकाग्रचित होकर सब कुछ सुन लिया है तो तेरा अज्ञानजनित मोह वैसे ही दूर हो गया होगा जैसे धूप में कपूर उड़ जाता है। यहां तक आते-आते अर्जुन के सारे प्रश्न शान्त हो गये। जब कोई गुरू अपने शिष्य की मानसिकता को समझ लेता है कि अब इसके पास कोई प्रश्न शेष नहीं है-तभी वह ऐसा कहता है कि अब तेरा अज्ञानजनित मोह दूर हुआ? बात चाहे प्रश्नवाचक चिन्ह से पूर्ण हो रही है-पर वास्तव में यहां गुरू की मानसिकता भी प्रकट हो रही है कि अब वह इस बात को लेकर सन्तुष्ट है कि उसके शिष्य की अब कोई शंका नहीं रही। वास्तव में किसी भी विषय को इतनी स्पष्टता और गहराई से समझाने के उपरान्त प्रत्येक गुरू का यह कत्र्तव्य भी हो जाता है कि वह अब भी शिष्य से पूछ ले कि यदि कोई बात अब भी शेष हो तो वह भी बता दे। श्रीकृष्णजी इसी भाव से अर्जुन से अन्त में पूछ रहे हैं और कह रहे हैं कि अर्जुन! तू इस मोह की चादर को दूर फेंक दे-इससे तेरा अहित ही होने वाला है। इसने तेरा व्यक्तित्व फीका कर दिया है।
मोह की चादर फेंक दे हाथ में ले हथियार।
ज्ञान जो मैंने है दिया, उसको कर साकार।।
ऐसा सुनकर अर्जुन ने कहा-‘हे अच्युत! (यह मेरा सौभाग्य रहा है कि) तेरी कृपा से मेरा ‘मोह’ नष्ट हो गया है। मुझे (अपने विस्मृत स्वधर्म की) स्मृति पुन: हो गयी है अर्थात मुझे क्या करना चाहिए और मेरे लिए इस समय कत्र्तव्य कार्य क्या है-यह मैंने समझ लिया है। अब मेरे सन्देह दूर हो गये हैं, कोई भ्रान्ति या शंका किसी प्रकार की मेरे हृदय में नहीं रही है, ना ही कोई प्रश्न अब मेरे लिए शेष रहा है। ऐसी परिस्थिति में मैं अब पूर्णत: स्थिरचित्त हो गया हूं। मेरी बुद्घि की सारी अस्थिरता स्थिरता में और मन की सारी चंचलता निश्चलता में परिवर्तित हो गयी है। मैं अब किसी शंका सन्देह में घिरा या फंसा हुआ नहीं हूं, और मैं अब नि:शंक होकर अपने कत्र्तव्यकर्म अर्थात यौद्घेयकर्म को करने के लिए पूर्णत: तत्पर हूं। एक प्रकार से अर्जुन यहां पर श्रीकृष्ण जी को आश्वस्त कर रहा है कि अब मैं आपकी ज्ञान गंगा में स्नान करके परमपवित्र हो गया हूं। मेरी सभी शंकाओं का समाधान हो जाने से कोई शंका शेष नहीं रह गयी है। अब मैं वही करूंगा जो आपने मुझे कहा है या मेरा कत्र्तव्य कर्म मुझे समझाया है, या मेरा धर्म मुझे बताया है।
यहां पर गीता का मूल संवाद पूर्ण हो जाता है। अब हस्तिनापुर के राजभवन की ओर चलते हैं, जहां संजय अपनी विशेष दिव्यदृष्टि के आधार पर धृतराष्ट्र को यह सब कुछ सुना रहा है। अर्जुन के उपरोक्त कथन को धृतराष्ट्र को सुनाने के पश्चात संजय ने कहा-महाराज इस प्रकार मैंने वासुदेव कृष्ण और महान आत्मा पार्थ के बीच हुए इस रोमांचकारी अद्भुत संवाद को सुना और आपको यथावत सुनाया।
संजय को यह दिव्यदृष्टि किसने दी थी? इस पर से पर्दा उठाते हुए वह अन्त में यह भी कहता है कि व्यासजी की कृपा से मैंने स्वयं इस परमगुह्य रहस्यमय योग को साक्षात स्वयं योगेश्वर कृष्ण द्वारा उपदेश दिये जाते हुए सुना। (और जैसा मैंने सुना व इसका आनन्द लिया, वैसा ही मैंने ये आपको भी सुनाया है) हे राजन! मैं अर्जुन तथा कृष्ण के बीच हुए इस अद्भुत और पुनीत संवाद को बार-बार स्मरण करके आनन्द से पुलकित हो उठता हूं।
संजय के ऐसा कहने का अभिप्राय है किकृष्णजी ने अर्जुन को ठीक ही कहा है कि तू इन आततायी अधर्मी और कुलघाती दुर्योधनादि का विनाश करने के लिए उठ खड़ा हो। यदि तू ऐसा नहीं करेगा तो स्वधर्म का पालन न करने के कारण पाप का भागी बनेगा और संसार में तेरे पलायनवाद की घोर निन्दा होगी। फलस्वरूप दुर्योधनादि की कुमार्गियों की अनीतियों से संसार के लोग ‘त्राहिमाम-त्राहिमाम’ कर उठेंगे। अत: उनका संहार करना तेरा धर्म है। कृष्णजी की इस बात पर अपनी सहमति जताकर संजय ने धृतराष्ट्र को अपने विषय में भी स्पष्ट कर दिया कि मैं तो श्रीकृष्ण जी के उपदेश से सहमत हूं। अच्छा हो कि महाराज! आप भी उससे सहमत हो जाएं। इस बात को अप्रत्यक्ष रूप से कहकर संजय ने युद्घ रोकने की एक अंतिम कोशिश करके देखी।
उसकी सोच थी कि संभवत: धृतराष्ट्र उसकी मार्मिक अपील पर विचार करेंगे और कोई ऐसा मार्ग निकाल लेंगे जो उनके पुत्र दुर्योधन को युद्घ से रोक देगा। यद्यपि संजय का यह विचार अब केवल कल्पना मात्र था, परन्तु फिर भी उसकी मनोदशा तो ऐसी थी ही। उसकी बात पर धृतराष्ट्र मौन रह जाते हैं, वह असहाय हैं और पुत्रमोह में अंधे भी हैं, क्या कर सकते हैं? तब संजय ने धृतराष्ट्र के रूप में असहाय राजा और अंधे पिता को महाभारत के युद्घ के परिणाम के विषय में अपनी निजी राय से भी अवगत करा दिया।
उसने कहा कि महाराज! जहां योगेश्वर श्रीकृष्ण हैं, और जहां धनुर्धारी अर्जुन है, वहीं ‘श्री’ होगी, वहीं विजय होगी, वहीं विभूति होगी, वही अचल नैतिकता होगी-यह मेरी निश्चित धारणा है। हमारे ग्रन्थों की यह विशेषता होती है कि वे अन्त में किसी सकारात्मक ऊर्जा से भरे सन्देश के साथ ही समाप्त होते हैं। जिससे कि विश्व की आने वाली पीढियां उस सकारात्मक ऊर्जा से भरे सन्देश से लाभान्वित होती रहें। ‘गीता’ जिन शंका संदेहों के घने बादलों के साथ आरम्भ हुई थी-उनको पूर्णत: विच्छिन्न कर अपना अन्त उसी प्रकार करती है, जैसे सूर्य गहरे काले बादलों को काटकर अपने प्रकाश से जग को प्रकाशित करने में सफल होता है। ‘गीता’ ने अन्त में न केवल अर्जुन के मोह का अन्त कर दिया, अपितु अपनी यह घोषणा भी कर दी कि जहां नीतिवान ‘कृष्ण’ और धनुर्धारी ‘अर्जुन’ होगा-विजय वहीं होगी।
यहां पर कृष्ण वेदज्ञान = ब्रह्मबल (अग्रतश्चतुरो वेदान्) के प्रतीक हैं तो अर्जुन क्षात्रबल (पृष्ठत: सशरं धनु) के प्रतीक हैं। यही भारत की परम्परा है, जिसमें ब्रह्मबल और क्षात्रबल के संयोग से बनी शक्ति की विजय निश्चित होती है। संजय की उपरोक्त घोषणा को हमें इसी सन्दर्भ में समझना चाहिए। हम ‘गीता’ के इस सनातन ज्ञान का लाभ उठाकर अपने जीवन में आने वाले हताशा-निराशा और उदासी के बादलों को छांटते रहें, जो ना चाहते हुए भी हमारा मार्ग अवरूद्घ किये रहते हैं, या अनावश्यक ही हमारे जीवन में अंधेरा किये रखते हैं। ‘गीता’ को हम अंधेरों को मिटाने वाला सूर्य मानें अपने जीवन को प्रकाश से भर लें। गीताकार का गीता ज्ञान को हम तक पहुंचाने का मन्तव्य यही होगा। संसार के लोग यदि हमारे गीता ज्ञान को अपना लेंगे तो संसार में विभाजनवाद को बढ़ावा देने वाली जितनी भर भी कृत्रिम दीवारें खड़ी हैं-ये सारी की सारी भर-भराकर स्वयं ही गिर जाएंगी। इत्योमशम:।

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