सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया:।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चिद् दु:ख भाग भवेत्।।
अर्थात हे प्रभो! सब सुखी हों, सब स्वस्थ और निरोग हों, सबका कल्याण हो, कोई भी प्राणी दु:खी न हो, ऐसी कृपा कीजिए।
हे ईश! सब सुखी हों, कोई न हो दुखारी।
सब हों निरोग भगवन्, धन धान्य के भण्डारी।।
सब भद्र-भाव देखें, सन्मार्ग के पथिक हों।
दुखिया न कोई होवे, सृष्टि में प्राणधारी।।
वेद ज्ञान की निधि है, जो मनुष्य को नीति और न्याय का जीवन सिखाता है। वेद हमारी सांसारिक व्यवस्था और व्यवहार को परिष्कृत करता है, उनका उल्लंघन और पदस्खलन करने से रोकता है। वेद हमें उच्चादर्शों को प्राप्त करने के लिए हमारे हृदय को ही नहीं, अपितु हमारी आत्मा को झकझोरता है, प्रेरित करता है, आदर्श और यथार्थ की खाई को पाटता है। वेद सृष्टि में सृष्टिकर्ता का संकल्प अभिव्यक्त हो, इस बात पर विशेष बल देता है, आत्मकल्याण और लोकमंगल की भावना में अभिवृद्घि करता है। वेद कहता है-सत्य को ग्रहण करो, आत्मा में रमण करो। सबसे प्रीतिपूर्वक धर्मानुसार यथायोग्य व्यवहार करो। दिव्यता का दीप बनो, श्रेष्ठता का जीवन जीओ। यम-नियम का पालन करो। वेद किसी मजहब अथवा सम्प्रदाय के लिए नहीं, अपितु मानव मात्र के कल्याण के लिए है, जो हमें समग्र अभ्युदय अर्थात हृदय-मस्तिष्क और आत्मा के पूर्ण विकास की ओर प्रेरित करता है, विनाश से रोकता है, प्राणीमात्र की रक्षा के लिए हमें प्रतिबद्घ करता है। वेद हमारे अंत:करण चतुष्ट्य को पवित्र करता है, आत्मा को पवित्र करता है, भगवत धाम का मार्ग प्रशस्त करता है। आरोग्यता, आर्थिक सम्पन्नता, मन की प्रसन्नता के साथ-साथ परिवार और समाज की प्रसन्नता, सामाजिक, प्रतिष्ठा और प्रभु-चरणों में निष्ठा देता है-वेद। हमें आत्मबल का अमृत देता है-वेद।
वेद की महिमा का विश्लेषण करने के पश्चात इसके स्वरूप पर भी विचार किया जाए तो प्रासंगिक रहेगा। मेरे प्रिय पाठकों को भी सुविधा रहेगी। हमारे ऋषियों ने, वेदज्ञों ने, मनीषियों ने, ईश्वरीय ज्ञान-‘वेद के स्वरूप’ को तीन भागों में विभाजित किया है, जो निम्नलिखित है:-
1.शब्द-राशि :– शब्द-राशि का संबंध केवल मात्र उच्चारण से है, जो वैखरी वाणी तक ही सीमित है। सरल शब्दों में कहें, तो वेद का यह स्वरूप केवल जिह्वा तक ही सीमित है। यह व्यक्ति के सत्याचरण पर सतही प्रभाव डालता है, हृदय को स्पर्श नहीं कर पाता है।
2.अर्थ-राशि:– अर्थ-राशि का संबंध मस्तिष्क से है, बुद्घि से है, ज्ञान से है, जो व्यक्ति के चिंतन को प्रभावित करता है। मन और आत्मा को परिष्कृत करने के लिए प्रेरित करता है। इसकी विशेषता यह है कि यह हमारे हृदय को अर्थात चित्त को मार्मिक रूप से प्रभावित करता है तथा व्यक्ति के व्यवहार में आमूल-चूल परिवर्तन लाने की अपरिमित शक्ति रखता है।
3. कर्म-राशि :- कर्म-राशि से अभिप्राय उस अवस्था से है जब मनुष्य वेद के वाचिक धरातल से ऊंचा उठकर उसकी ऋचाओं व उनके गहन गम्भीर अर्थ को हृदयंगम करके अपने आचरण में क्रियान्वित करता है, अर्थात अपनी सभी न्यूनताओं और त्रुटियों का उन्मूलन करता है, पश्चात्ताप करता है तथा उनकी पुनरावृत्ति न हो, इसके लिए सच्चे हृदय से प्रतिज्ञाबद्घ होता है और अपने दिव्यगुणों का शनै: शनै: परिमार्जन करता है, उन्हें निखारता है। सरल शब्दों में कहें, तो सिद्घान्त को कर्म में परिवर्तित करता है। वास्तव में कर्म-राशि से अभिप्राय है-‘सत्य में स्थिति’ अर्थात सत्य में अवस्थित होना। ध्यान रहे, इसका सीधा संबंध मन, बुद्घि, चित्त, अहंकार के प्रक्षालन से है, आत्मा की शुचिता से है, हमारे कारण शरीर से है अर्थात भाव शरीर से है।
क्रमश: