शम्भाजी राजाराम और शाहू बने छत्रपति की विरासत के स्वामी
हमारा राष्ट्रीय जीवन और व्यक्तिगत जीवन
हमारे व्यक्तिगत जीवन की भांति हमारा एक राष्ट्रीय जीवन भी होता है। जैसे हम व्यक्तिगत जीवन में कभी अपने शुभकार्यों के परिणाम के आने पर प्रसन्नता और अशुभकार्यों के परिणाम के आने पर अप्रसन्नता प्रकट करते हैं, वैसे ही हमारे राष्ट्रीय जीवन में भी कभी-कभी ऐसे क्षण आते हैं-जब हम किन्हीं परिणामों पर प्रसन्नता तो किन्हीं परिणामों पर अप्रसन्नता प्रकट करते हैं। कई बार हम अपनी ही दृष्टि में अपने आपको सराहते हैं तो कई बार स्वयं को क्षुद्र मानकर कोसते हैं।
विद्वानों ने ऐसे कई अवसर माने हैं जब व्यक्ति स्वयं को क्षुद्र मानने लगता है। जैसे जब हम किसी ऐसे व्यक्ति के सामने दीनता प्रकट करते हैं जो हमारी सहायता नहीं कर सकता, या करना नहीं चाहता है तब हमें उसका सच ज्ञात होने पर क्षुद्रता का अनुभव होता है।
जब हम कठिनाईयों से भरे कत्र्तव्य मार्ग को छोडक़र सुगम और सुखदायी मार्ग को चुनते हुए उस पर आगे बढ़ चलते हैं तो परिणाम अपेक्षित न मिलकर भी हमें आत्महीनता की अनुभूति होती है, जब हम अपराध करें और करने के पश्चात भी प्रायश्चित न करें अपितु कह दें कि ऐसा तो चलता रहता है।
यदि क्षुद्रता मापक इन तीनों बातों को हम अपने राष्ट्रीय जीवन में उतारकर देखें तो ज्ञात होगा कि हमने अपने राष्ट्रीय जीवन में कई बार कई घटनाओं से शिक्षा नहीं ली। कई लोगों ने कष्टों से घबराकर या दमन चक्र की पीड़ा को अपने लिए असहज मानकर या किसी अन्य प्रकार के लोभ लालच में फंसकर अपना मतांतरण कर लिया और हिंदू से मुसलमान बन गये उनके इस सुगम मार्ग को अपनाने की प्रवृत्ति से राष्ट्रवादी शक्तियों को आघात लगा।
हमने अपना कोई सम्राट नहीं चुना
इन लोगों ने भारत के राष्ट्रीय आंदोलन की दीर्घकालीन लंबी श्रंखला को अपने कृत्य से दुर्बल कर दिया। इसके अतिरिक्त चाहे ऐसे कितने ही अवसर आये कि जब हमने संयुक्त रूप से राष्ट्रीय मोर्चे बनाये और शत्रु को परास्त किया, परंतु एक बार भी ऐसा अवसर नहीं आया जब राजनीतिक रूप से सर्वसम्मत निर्णय अपने किसी भारतीय हिंदू नरेश को भारत का सम्राट घोषित कर उसके नेतृत्व में राष्ट्रीय आंदोलन चलाने का निर्णय लिया हो। यदि हमने राणा सांगा, महाराणा प्रताप, वीर शिवाजी, छत्रसाल या बंदा वैरागी को अपना सर्वसम्मत नेता चुन लिया होता और तत्कालीन राजनैतिक परिस्थितियों में इनके पीछे आ खड़े होते तो इतिहास की दिशा को समय रहते मोड़ा जा सकता था। निस्संदेह पुरूषार्थ किया गया, पराक्रम दिखाया गया, पौरूष प्रदर्शन भी हुआ, परंतु परिणाम अपेक्षित नहीं आ पाये। इस तथ्य पर विचार किया जाना भी अपेक्षित है। पर इस तथ्य की ओर संकेत करने के पीछे हमारा आशय अपने पूर्वजों के पुरूषार्थ पराक्रम, तथा पौरूष को कम करके देखने का अभिप्राय नहीं है। उनके महान कार्यों को सम्मान मिलना ही चाहिए, परंतु जहां हमसे चूक हुई उसकी ओर संकेत करना भी हमारा लेखकीय धर्म है।
शिवाजी के ‘मर हटा’ राज्य की ओर
अब पुन: अपने विषय पर आते हुए हम शिवाजी के मराठा राज्य की ओर चलते हैं। शिवाजी यद्यपि अल्पायु में ही संसार से चले गये थे, परंतु उन्होंने अपने इस अल्पजीवन में ही जिस विशाल राज्य की स्थापना की उसे औरंगजेब भी उखाडऩे में असफल रहा। इतिहासकार ओझा शिवाजी के यशस्वी जीवन पर प्रकाश डालते हुए ‘राजपूताने का इतिहास’ (पृष्ठ 322-323) पर लिखते हैं-”परंतु इस पद (राजा) का उपभोग वह बहुत काल तक नहीं कर सका, क्योंकि गद्दी पर बैठने के छह वर्ष पीछे 51 वें वर्ष के आरंभ में ही विक्रमी संवत 1737 (ई. सन 1680) में उनका देहांत हो गया। अपनी नीति निपुणता और उत्तम बर्ताव से शिवाजी ने मरहठा मात्र के (एक प्रकार से यह ‘मर हटा’ शब्द उस समय हर उस हिंदू के लिए प्रयुक्त किया जाता था जो युद्घ क्षेत्र से मरके ही हटता था) अंत:करण में एक प्रकार का जोश और जातीय भाव उत्पन्न कर दिया था, जिसके पीछे उनकी उन्नति का नक्षत्र थोड़ा सा चमका परंतु फिर परस्पर ईष्र्या, द्वेष, फूट और लूटपाट का बाजार गरम रखने से राष्ट्रीय संगठन की रक्षा करने के बदले उन्होंने उसको विध्वंस कर दिया। जिससे उस उन्नति के नवांकुरित पौधे का शीघ्र ही विनाश हो गया। शिवाजी ने मरने के पूर्व अपने बड़े पुत्र शंभाजी को दुश्चरित्र होने और किसी ब्राह्मण स्त्री पर बलात्कार करने के दण्ड स्वरूप कैद में रख दिया और छोटे पुत्र राजाराम को गद्दी का अधिकारी बना दिया।”
सर यदुनाथ सरकार ने लिखा है-”उन्होंने हिंदुओं को अधिक से अधिक उन्नति करने की शिक्षा दी। शिवाजी ने बताया कि हिंदुत्व का वृक्ष वास्तव में मरा नहीं है। वह फिर बढ़ सकता है और इसमें नई-नई पत्तियां और शाखाएं आ सकती हैं। यह अपना शिर आकाश तक उठा सकता है।”
राजाराम के विषय में
हिंदुत्व का यह महान शिल्पकार जब संसार से गया तो उसके राज्य के होने वाले उत्तराधिकारी उनके कनिष्ठ पुत्र राजाराम की अवस्था उस समय मात्र दस वर्ष की थी। शिवाजी अपने सिद्घांतों के प्रति समर्पित रहने वाले व्यक्ति थे। स्त्री के प्रति उनके हृदय में अति सम्मान भाव था और मुगलों के हृदय में नारी केवल वासनापूत्र्ति का एक साधन मात्र थी। शिवाजी अपने समकालीन समाज में मुगलों की नारी के प्रति इस दुर्भावना को समाप्त करने का संघर्ष कर रहे थे। इसलिए उन्होंने अनेकों बार अपनी ओर से ऐसे संकेत दिये कि नारी नारी है और उसका सम्मान करना प्रत्येक व्यक्ति का धर्म है।
शिवाजी का उच्च चरित्र: बलात्कारी पुत्र को दी सजा
दुर्भाग्यावशात जब शिवाजी के सुपुत्र शम्भाजी ने नारी के प्रति अपने दानवपन का परिचय देते हुए एक ब्राह्मण स्त्री से बलात्कार किया तो शिवाजी ने नीति और न्याय का समर्थन किया। उन्होंने अपने पुत्र को भी उसके घृणित कार्य के लिए अधिकतम दण्ड देना ही उचित समझा। इसके पीछे कारण यही था कि शिवाजी राजधर्म को सबसे बड़ा धर्म मानते थे और राजधर्म के किसी पतित स्वरूप को देखना उन्हें प्रिय नहीं था। इसलिए देश के उन सभी राजाओं, नवाबों या सुल्तानों या बादशाहों को एक उदाहरण प्रस्तुत करना चाहते थे जो राजधर्म के निर्वाह में नारी के प्रति अपनी दानवता को अपना एक विशेषाधिकार मानकर चलते थे।
अत: ऐसी परिस्थितियों में शिवाजी ने अपने पुत्र शंभाजी को उसके कृत्य का दण्ड देते हुए उसे अपने राज्य के उत्तराधिकारी पद से ही वंचित कर दिया। वास्तव में शंभाजी के लिए इससे बड़ा और कठोर दण्ड कोई नहीं हो सकता था।
राजाराम का राजतिलक और शंभाजी का विद्रोह
अपने पति शिवाजी की अंतिम इच्छा का सम्मान करते हुए शिवाजी की पत्नी सोयराबाई ने अप्रैल 1680 ई. में राजाराम का राजतिलक शिवाजी के उत्तराधिकारी के रूप में करा दिया। राजाराम के राजतिलक की औपचारिक प्रक्रिया को रायगढ़ के दुर्ग में पूर्ण किया गया।
उधर पन्हाला किले में बंद शंभाजी भी सारे घटनाक्रम पर दृष्टि गड़ाये बैठा था। उसने राजाराम के राजतिलक को अपना अपमान समझा और इस अपमान का प्रतिशोध लेने के लिए उसकी आत्मा मचल उठी। वह विद्रोही बन चुका था और अपने पिता के काल से ही उसके भीतर विद्रोही भाव उत्पन्न हो चुके थे। परंतु शिवाजी के पराक्रमी व्यक्तित्व का सामना करना तो उसके वश की बात नहीं थी। पर अब एक दस वर्षीय बालक को अपने पिता का उत्तराधिकारी बना देखकर वह उसे समाप्त करने के लिए आतुर हो उठा।
शम्भाजी ने राजाराम को डाल दिया जेल में
अपनी योजना को सिरे चढ़ाने के लिए शम्भाजी ने प्रथम चरण में पन्हाला दुर्ग के किलेदार की हत्या कर दी और उस किले पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया। दूसरे चरण में उसने प्रधान सेनापति हम्मीर राव मोहिन्ते को अपने पक्ष में लेने की तैयारी की। मोहिन्ते ने शंभाजी का साथ देना स्वीकार कर लिया। तत्पश्चात दोनों ने एक साथ मिलकर रायगढ़ दुर्ग पर आक्रमण कर दिया। इस आक्रमण में भी शंभाजी और मोहिन्ते को सफलता मिली और वह राजाराम और सामरताई को गिर$फ्तार कर जेल में डालने में सफल रहा।
इस प्रकार शिवाजी की महान राष्ट्र साधना पर गृहक्लेश के राहुकेतु बैठ गये। जो हिन्दुत्व के इस महान शिल्पकार की शिल्कारी को ही कलंकित करने का प्रयास करने लगे।
अपराधी और अपराध बोध
अपराधी को अपराध बोध कराने के लिए भी दण्ड दिया जाया करता है। अपराधी के लिए आवश्यक है कि वह अपने अपराध के लिए प्रायश्चित करे। इसी प्रायश्चित को ही हमारे शास्त्रों ने तप की संज्ञा दी है। तपस्वी व्यक्ति प्रायश्चित के माध्यम से अपने अपराध बोध से मुक्त हो जाता है। संसार में ऐसे लोग बिरले ही होते हैं जो अपराध बोध से मुक्त होने का प्रयास करते हैं। अधिकतर लोग ऐसे होते हैं जो दण्ड बोध से मुक्त होने का प्रयास करते हैं, जेल तोड़ते हैं, जेल अधिकारी की हत्या करते हैं, दण्ड देने वालों के प्रति विद्रोह करते हैं या ऐसा ही कोई अन्य कार्य करते हैं। ऐसे लोग दण्डबोध से मुक्त होकर भी दण्ड की दलदल में और अधिक फंस जाते हैं। क्योंकि लोक मान्यता सदा उनके विपरीत होती है। लोक धारणा और लोकनीति सदा उनकी विरोधी होती है।
जनता शम्भाजी के विरूद्घ थी
शंभाजी के साथ भी यही हुआ। वह दण्डबोध से मुक्त होने का प्रयास कर रहा था-पर अपराध बोध से मुक्त होना नहीं चाहता था। इसलिए उसने ऐसा मार्ग अपना लिया जिससे उसका दण्ड और अधिक बढ़ गया। जनता ने उसके कृत्य का समर्थन नहीं किया। वह एक चरित्रहीन व्यक्ति था, इसलिए वह अपनी प्रजा में कभी लोकप्रिय नहीं हो सका। भाई राजाराम और माता सोयराबाई को जेल में डालकर कुलकलंक शंभाजी ने 30 जनवरी 1681 ई. को अपना राज्याभिषेक कराया।
उसके साथ लोकमत नहीं था इसलिए वह एक लोकप्रिय शासक नहीं था। लोग उसे शिवाजी का उत्तराधिकारी नहीं मान रहे थे। यद्यपि उसने अपने पक्ष में लोकमत बनाने और स्वंय को लोकप्रिय बनाने के लिए बहुत से लोगों को पुरस्कार वितरित किये और बड़ी-बड़ी पदवियों से उन्हें अलंकृत किया। परंतु उसके सारे प्रयास व्यर्थ ही गये। उसके दरबारी भी नहीं चाहते थे कि शिवाजी महाराज की अंतिम इच्छा के विपरीत शंभाजी को राजा बने रहना चाहिए।
अत: दरबारियों ने उसकी हत्या की योजना बनायी। परंतु किन्हीं स्रोतों से शंभाजी को अपनी हत्या की योजना की भनक लग गयी। इस पर उसने अपने बहुत से सामंतों तथा अपनी सौतेली मां की हत्या करा दी। अब उसने अपने विश्वासपात्र लोगों को अपना दरबारी नियुक्त किया और जिस व्यक्ति पर उसे तनिक सा भी संदेह उत्पन्न हुआ कि यह शिवाजी महाराज का विश्वास पात्र रहा है उसी को उसने चलता कर दिया।
औरंगजेब ने किया शम्भाजी का अंत
जिस समय मुगल दरबार में औरंगजेब के पश्चात कौन? को लेकर संघर्ष चला तो औरंगजेब का एक शाहजादा भागकर उस समय शंभाजी की शरण में आ गया। इससे औरंगजेब शंभाजी से रूष्ट हो गया कुछ समयोपरांत औरंगजेब के द्वारा ही शंभाजी मारा गया।
शंभाजी को अपने किये का दण्ड मिल गया, परंतु इसके कुकृत्यों से परिवार की प्रतिष्ठा तो धूमिल हुई ही साथ ही भारत के स्वातंत्र्य समर को भी दक्षिण में झटका लगा।
‘भारतीय इतिहास के छह स्वर्णिम पृष्ठ’ के तृतीय भाग के पृष्ठ 3 पर वीर सावरकर लिखते हैं-”यदि कोई विदेशी शत्रु हमारे धर्म पर आक्रमण करे तो उसका भी प्रतिकार राजनीतिक आक्रमण की भांति ही करना चाहिए। उस युद्घ में भी जैसे को तैसा क्रूर से सवायी क्रूरता, कपटी से सवाया कपट और हिंसक से सवायी हिंसा बरतना ही धर्म है शूरों का कत्र्तव्य है।”
शंभाजी में पिता का कोई भी गुण नही था
शिवाजी महाराज के चिंतन में ऐसी ही नीतियों का वास था, इसीलिए वह ंिहन्दुत्व के सिरमौर बन गये थे। परंतु उनके पुत्र शंभाजी में पिता का कोई भी गुण नही था। इसलिए वह कायरों की मौत मारा गया। लोगों ने उसकी मृत्यु पर कोई शोक प्रकट नहीं किया। इसीलिए सावरकर जी अन्यत्र लिखते हैं-”नवयुवकों! जिन लोगों ने धर्म प्रचार के लिए शरीर धारण किया और आज जो हुतात्मा समझे जाते हैं उनकी ओर देखो। ईसामसीह सूली की ओर देखते थे, सम्मान की तरफ नहीं। कैद होने के बाद राज्याभिषेक का सपना शिवाजी महाराज ने कभी नहीं देखा था। अपने धर्म व देश की सेवा करते हुए बढ़ो। कार्यारम्भ करते समय सोच लो कि तुम्हारा मार्ग कांटों से भरा हुआ है।”
राजाराम निकल भागे जेल से : हिन्दू समाज में आई नई चेतना
शंभाजी मारा गया तो बादशाही सेना की बांछें खिल गयीं। बादशाह के सेनापति ऐतकाद खां का साहस कुलांचे मारने लगा। उसने रायगढ़ को जीत लिया और अपने नियंत्रण में लेकर इस दुर्ग पर अपनी ध्वजा फहराने में सफल हो गया। इस समय हिंदुओं के नाम और सम्मान दोनों पर धब्बा लग रहा था। पर शिवाजी महाराज का दूसरा पुत्र राजाराम किसी प्रकार जेल से निकल भागने में सफल हो गया। जिससे एक प्रकार से हिंदू समाज को पुन: कुछ ऊर्जा मिली। राजाराम यद्यपि अपने पिता के समान तो पराक्रमी नही था परंतु वह अपने पिता का एक योग्य और साहसी पुत्र अवश्य था। उसने शिवाजी महाराज के नाम को कलंकित करने वाला कोई कार्य नही किया। इतना ही नही उसने बादशाही सेना से एक से अधिक युद्घ किये। 1697 ई. में वह जुल्फिकार से पराजित होकर सतारा की ओर चला गया और उसी को अपनी राजधानी बनाकर वहीं से शासन करने लगा।
शंभाजी की पत्नी व पुत्र पर औरंगजेब के अत्याचार
बादशाह औरंगजेब के लिए शिवाजी और शंभाजी में कोई अंतर नहीं था। उसके लिए वे दोनों काफिर थे। जितना शंभाजी का प्रयोग उसे करना था, उतना कर लिया और फिर उसे जहन्नुम की आग में धकेल दिया। जब शंभाजी मारा गया तो उसकी रानी और पुत्र शाहू को बादशाह ने जेल में डलवा दिया। जेल में उन दोनों को धर्म परिवर्तन करने के लिए भांति-भांति के प्रलोभन दिये जाने लगे, जब इन प्रलोभनों से कार्य नहीं बना तो उन्हें क्रूर यातनाएं दी जाने लगीं। फतहलाल गुर्जर ‘अनोखा’ ने अपनी पुस्तक ‘मराठा राजवंश : इतिहास का सच’ के पृष्ठ 70 पर लिखा है-”शाहू को और शंभाजी के परिवार को धर्म परिवर्तन से मुक्ति तब मिली जब प्रतापराव गुर्जर के व जगजीवनराव गुर्जर ने शाहू को मुक्ति के लिए मुस्लिम धर्म ग्रहण कर महान जाति बलिदान दिया।”
महान हिन्दू जाति
हिन्दू के विषय में स्वातंत्रय वीर सावरकर ने लिखा है :-”विश्व में हिन्दू ही एक ऐसी महान जाति है जिसने अनेक भूकंपों के प्रचण्ड आघातों को सहन कर जल प्रलयों में खेलकर भी अपने इतिहास को सुरक्षित रखा है। हमारा यह पावन इतिहास वेदों से प्रारंभ होता है। वेद ही हमारी जाति के महान इतिहास के प्रथम अध्याय हैं। प्रत्येक हिंदू पालने में ही जो लोरियां सुनता है, वे सभी गीता के ही गीत हैं। हममें से कुछ महाराज रामचंद्र को ईश्वर का अवतार मानते हैं, तो कुछ उन्हें एक महापुरूष और वीराग्रणी के रूप में मान्यता देकर उनके सम्मुख नतमस्तक होते हैं। किंतु इतना तो अकाट्य सत्य है कि हम सभी की दृष्टि में भी राम एक सार्वभौम सम्राट थे। हनुमान और भीमसेन प्रत्येक युवक के लिए शक्ति के अखण्ड स्रोत और पराक्रम के प्रखर पुंज हैं। सावित्री एवं दमयंती प्रत्येक हिंदू महिला के लिए अखण्ड पतिव्रत धर्म और निष्कलंक प्रेम के ही पावन आदर्श के रूप में परम वंदनीय हैं। गोकुल के ग्वाल कृष्ण पर राधा (वस्तुत: राधा एक काल्पनिक पात्र हैं) ने जो पावन प्रेम प्रदर्शित किया था उसी की प्रतिध्वनि जहां-जहां प्रतिध्वनित होती सुनाई पड़ती है।
कौरव पांडवों का महायुद्घ कर्ण और अर्जुन तथा भीम और दु:शासन का दुर्धर्ष युद्घ सहस्रों वर्ष पूर्व कुरूक्षेत्र की धरती पर हुआ था किंतु आज भी निर्धन की झोंपड़ी से लेकर धनियों के राजप्रासादों तक हृदय को आंदोलित कर देने वाले गीतों के रूप में उसकी गाथा गायी जाती है। बालवीर अभिमन्यु के बलिदान की गाथा सुनकर समग्र हिंदुस्तान का हिंदू नेत्रों में जल भर लाता है।
मुट्ठी भर बालू के कणों के समान यदि कोई हमें दशों दिशाओं में यत्र-तत्र फेंककर तितर-बितर भी कर दे तब भी केवल रामायण और महाभारत ये दो महान ग्रंथ ही हमें पुन: एकत्रित कर एक जाति के रूप में संगठित कर देने में पूर्णत: समर्थ सिद्घ होंगे।” (‘हिन्दुत्व ‘ पृष्ठ 93)
संघर्षशील योद्घा हिंदू जाति के स्वाभाविक नायक
हमने यह उद्घरण यहां पर इसलिए दिया है कि यह हिंदू जाति वीरों की पुजारी रही है। यह इसलिए भी आवश्यक है कि जितनी लंबी कहानी इस हिंदू आर्य जाति की है, उतनी अन्य किसी की नहीं। इतनी लंबी कहानी का निर्माण संघर्षों से ही होता है। अत: संघर्षशील योद्घा हिंदू जाति के स्वाभाविक नायक बन जाते हैं। यही कारण है कि लोगों के हृदय में शिवाजी के लिए आज भी असीम श्रद्घा है। जबकि उनके पुत्र शंभाजी के प्रति लोगों में उतना सम्मान भाव नहीं है। हां, शिवाजी महाराज के जिस बेटे राजाराम ने अपने पिता का अनुकरण करने का प्रयास किया, लोग उन्हें सम्मान से स्मरण करते हैं।
शिवाजी द्वितीय का शासन
राजाराम के मरने के उपरांत उसका पुत्र शिवाजी द्वितीय सिंहासनारूढ़ हुआ। पर वह अभी अल्पव्यस्क था। अत: उसकी माता ताराबाई ने उसकी संरक्षिका बनकर राजकार्यों में सहयोग देना आरंभ किया। इसने अपने खोये हुए कई दुर्गों को पुन: प्राप्त करने में सफलता प्राप्त की। औरंगजेब की मृत्यु के पश्चात शाहजादे आजम ने शाहूजी को जेल से मुक्त कर दिया। जिसने ताराबाई से सतारा का राज्य छीन लिया। ताराबाई ने कोल्हापुर जाकर वहां से राज्य करना आरंभ कर दिया। बालाजी विश्वनाथ शाहू का पेशवा (प्रधानमंत्री) था। इसने धीरे-धीरे राज का सारा कार्य अपने हाथ में ले लिया। परिस्थितियां ऐसी बनीं कि पेशवा की शक्ति दिनों-दिन बढऩे लगी। इसके पश्चात (1721 ई. से) पेशवाओं का राज्य आरंभ हुआ। शाहू की राजनीतिक शक्तियां नाममात्र की रह गयी थीं। इस प्रकार एक राजवंश का सूर्य अस्ताचल की ओर चला गया, यह वही सूर्य था जिसके तेज प्रकाश से आंखें मिलाने का साहस बादशाह औरंगजेब को भी नहीं होता था। क्रमश:

लेखक सुप्रसिद्ध इतिहासकार और भारत को समझो अभियान समिति के राष्ट्रीय प्रणेता है