गोत्रों में छिपा है हमारा गौरवभाव
भारत की गोत्र परंपरा भी अनूठी है। प्रत्येक गोत्र की उत्पत्ति किसी वीर क्षत्रिय से या किसी महाविद्वान के नाम से हुई है। अपने पूर्वजों के नाम को अमर बनाये रखने तथा उनके उल्लेखनीय कृत्यों की गौरवगाथा को अपने हृदय में श्रद्घा पूर्ण स्थान दिये रखने की भावना के कारण भारत में गोत्र परंपरा पायी जाती है। जो लोग भारत के लोगों का अपने इतिहास के प्रति कोई लगाव नहीं देखते या इतिहास के प्रति हिंदू मात्र पर उपेक्षाभाव प्रदर्शित करने का आरोप लगाते हैं वे भारत के लोगों का अपने गोत्रों के प्रति सम्मान भाव समझ लें तो उन्हें भारत का बहुत सा इतिहास समझ में आ जाएगा। गोत्र हमारे इतिहास बोध के प्रतीक हैं, हमारी गौरव गाथा के प्रतीक हैं।
यदि हम अपने गोत्रों को राष्ट्ररूपी माला का मोती बनाकर पिरो लें तो संपूर्ण देश गौरवभाव से भर उठेगा। हमारी सामूहिक चेतना जाग उठेगी और हम राष्ट्रप्रेम से भर उठेंगे। गोत्र हमारे किसी महापुरूष के सत्कार्यों को जीवंत बनाये रखने के लिए लगाये जाते हैं।
जिन लोगों ने गोत्र के नाम पर अपनी पहचान बनाने का कार्य किया है या कर रहे हैं-उन्हें गोत्र परंपरा की पावनता का बोध नहीं है। उनकी संकीर्ण सोच के कारण गोत्र कहीं-कहीं लडऩे-झगडऩे की वस्तु बनकर रह गये हैं, जिसे उचित नहीं कहा जा सकता, गोत्र के प्रति मोह के यौगिक अर्थ पर चिंतन करने की आवश्यकता है न कि इसके रूढिग़त अर्थ पर।
क्षत्रियों के राजवंशों पर चर्चा
बात क्षत्रियों की करें तो पहले क्षत्रिय के गुण, कर्म और स्वभाव पर चर्चा करनी उचित होगी। त्रग्वेद (10-66-8) में आया है :-
”धृतवृता क्षत्रिय यज्ञनिष्कृतो
बृहदिना अध्वं राणभर्याश्रिय:।
अग्नि होता ऋत सापों अदु हो सो असृजनु वृत्र तये।।”
अर्थात क्षत्रिय लोग नियतों के पालक यज्ञ करने वाले शत्रुओं के संहारक शुद्घ में सधैर्य युद्घ क्रियाओं के ज्ञात होते हैं। श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है-
‘शौर्य तेजो धृतिदाक्ष्यं युद्घ चाप्यपलायनम्।
दानमीश्वर भावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम्।’
अर्थात ‘क्षत्रिय का स्वाभाविक कर्म शौर्य या शूरवीरता है, वह तेजस्वी होता है धृति-धैर्यवान होता है, शोक नही करता दक्षता-बिना घबराहट के अपने कार्यों में लगा रहता है, युद्घ में कभी पीठ नहीं दिखाता, दान देता है और शासन पर अपना प्रभुत्व स्थापित रखता है।’
अब हम आगे बढ़ते हैं। भारत के इतिहास में क्षत्रियों के राजवंशों पर चर्चा करें, प्राचीनकाल में मुख्यरूप से भारत केे क्षत्रियों के दो वंश-सूर्यवंश और चंद्रवंश हमें मिलते हैं। परंतु नागवंश और अग्निवंश की दो शाखाओं को मिलाकर ये प्रमुख शाखाएं चार हो जाती हैं, जो कालांतर में 36 राजवंशों में विभक्त हो गयीं।
आर्यों का प्रथम राजवंश-सूर्यवंश ही क्यों?
विश्व की पहली राजधानी अयोध्या, पहला राजा मनु और विश्व का पहला संविधान मनुस्मृति है। ऋषियों ने सूर्य नामक आर्य क्षत्रिय की पत्नी सरण्यू से उत्पन्न मनु को प्रथम राजा बनाया। इसीलिए राजा मनु का राजवंश सूर्यवंश कहलाया। सूर्य संसार को जीवन देता है -प्रकाश देता है। देखिये-हमारे ऋषियों का चिंतन कि उन्होंने विश्व की पहली राजधानी को नाम दिया अयोध्या (जिसमें किसी का वध नहीं होता-अवध) और उस राजधानी से शासन करने वाले राजा के राजवंश को नाम दिया-सूर्यवंश का। मनु का राज्याभिषेक वायु नाम के ऋषि ने किया था। अयोध्या वैशाली और विदेह सूर्यवंशियों ने ही बसाये थे। अयोध्या का राज्य मनु के ज्येष्ठ पुत्र इक्ष्वाकु को मिला, जिससे उसके वंशज इक्ष्वाकु कहे गये। इसी राज्य को प्राचीनकाल में कोशल भी कहा जाता था। आजकल के बिहार का शासन मनु के नामनेदिस्त नामक पुत्र को मिला। इसी को तिरहुत के नाम से जाना जाता है। इस वंश में एक विशाल नाम का राजा हुआ, जिसने वैशाली बसायी और उसे अपनी राजधानी बनाया। मनु के एक करूष नामक पुत्र था, उसके करूष वंशजों ने करूष प्रांत बसाया, जिसे आजकल बखेलखण्ड भी कहा जाता है। गुजरात का राज्य मनु के शर्याति नामक पुत्र को मिला था, इसका पुत्र आनर्त था, जिससे वह प्रांत आनर्त कहलाया। आनर्त देश की राजधानी कुश स्थली थी जो आजकल द्वारिका के नाम से जानी जाती है।
इक्ष्वाकु वंश में ही आगे चलकर एक मिथि नामक राजा हुआ जिसने मिथिला नगरी बसायी। इसी वंश में राजा जनक हुए थे। अयोध्या में आगे चलकर एक प्रतापी शासक रघु हुआ तो उसके नाम से रघुवंश चल गया।
अयोध्या में ही एक राजा प्रथु हुआ। जो मनु की वंशावली में उत्पन्न हुए महाराजा काकुत्स्थ का पौत्र था। इस राजा की विशेषता यह थी कि उसने सर्वप्रथम जमीन को नपवाकर उसका सीमांकन कराया था। यह घटना लाखों वर्ष पूर्व की है, जो अंग्रेजों या मुसलमानों के उस दावे की पोल खोल देती है कि हमने भारत में सर्वप्रथम भूमि सुधार किये। प्रथु ने पृथ्वी की पैमाइश करायी, इसलिए उस चक्रवर्ती सम्राट के नाम से ही धरती का नाम पृथ्वी पड़ा। इसी प्रथु के वंश में आगे चलकर सम्राट मांधाता, सगर, भगीरथ, दिलीप, रघु और दशरथनंदन राम का जन्म हुआ।
इन राजाओं से जुड़ा है हमारे क्षत्रियों का गोत्र संबंध
लाखों वर्ष पूर्व उत्पन्न हुए इन राजाओं के नाम के गोत्र आज भी भारतवर्ष के क्षत्रियों में मिलते हैं। जिससे पता चलता है कि भारतवासी अपने इतिहास, अपने इतिहास पुरूषों और अपनी इतिहास परंपरा के प्रति कितने सजग और सावधान हैं।
कश्मीर में एक आर्य राजा शेषनाग हुआ था, उसका वंश ‘नागवंश’ के नाम से जाना जाता है। महाभारत काल में दिल्ली के खाण्डव वन में इन्हीं नागों का शासन था। जिन्हें अर्जुन ने परास्त किया था। राजा वासुकि भी इसी वंश में उत्पन्न हुए थे। काशी का दशाश्वमेधघाट अपने आप में एक इतिहास छिपाये हुए हैं, जो इन्हीं नाग राजाओं से जुड़ा है। इसी वंश में आगे चलकर एक कुषाण शाखा चली, जिसके कुषाण (गुर्जरों का कसाणा गोत्र) राजा वासुदेव के काल में नागों ने काशी में गंगा के तट पर दस अश्वमेध यज्ञ किये थे। उसी की पावन स्मृति में यहां ‘दशाश्वमेध घाट’ का निर्माण किया गया। पंजाब के ‘तक’ शासक भी नागवंश की तक्षक शाखा के शासक थे। मध्य प्रदेश के पदमावती नागों की शाखा कच्छप मध्य प्रदेश में होना डा. जायसवाल मानते हैं।
चंद्रवंश के विषय में
अब चंद्रवंश पर भी विचार किया जाना अपेक्षित है। प्रारंभिक काल में चंद्रवंश का प्रथम शासक बुद्घ था। जिसका विवाह मनु की पुत्री इला से हुआ था। इसी इला से उत्पन्न पुत्र का नाम पुरूरवा रखा गया था। जिसने अपनी राजधानी का नाम प्रतिष्ठान रखा था। जिसे आजकल पौहन गांव के नाम से जाना जाता है। इसी पुरूरवा के वंशज चंद्रवंशी कहे गये। इसका ज्येष्ठ पुत्र आयु था, जिसे पिता का राज्य मिला, जबकि दूसरे पुत्र अमावसु को कान्यकुब्ज का राज्य दिया गया। आयु के पुत्र नहुष को दो पुत्र ययाति और क्षत्रबुद्घ हुए। ययाति एक चक्रवर्ती सम्राट था। क्षत्रबुद्घ को उस समय का काशी प्रदेश मिला। इसी क्षत्रबुद्घ की छठी पीढ़ी में उत्पन्न काश नामक राजा ने काशी नगरी बसायी और उसे अपनी राजधानी बनाया।
सम्राट ययाति के यदु, दृहयु, तुर्वसु, अनु और पुरू पांच पुत्र उत्पन्न हुए। पुरू को प्रतिष्ठानपुर का राज्य मिला। जिसके वंशज पौरव कहलाये, यदु को केन, बेतवा, चंबल नदियों का क्षेत्र दिया गया। तुर्वसु को प्रतिष्ठानपुर का दक्षिणी क्षेत्र मिला। दृहयु को चंबल के उत्तर का क्षेत्र मिला। जबकि अनु को गंगा यमुना का दोआब मिला। इसी चंद्रवंश से यदुवंश की और यदुवंश से हैहय वंश की उत्पत्ति हुई। हैयवंश ने दक्षिण में अपना विशाल साम्राज्य स्थापित किया। इस यादव वंश में वृष्णि और अंधक बड़े प्रतापी शासक हुए। दृष्णि और अंधक राजाओं से ही यादवों की दो शाखाएं निकलीं। अंधक वंशीय शाखा में उग्रसेन हुए जिनका पुत्र कंस था, इनका मथुरा पर शासन था। दूसरी शाखा वृष्णि में कृष्ण हुए। यह वंश सौराष्ट्र द्वारिका से शासन करता रहा।
द्रहय वंश में राजा गांधार हुआ, जिसने गांधार देश की स्थापना की। जबकि अनु के वंशज ‘आनय’ कहे गये। इस वंश में एक राजा उसीनर हुआ। जिसके पुत्र शिवि ने शिविपुर (शेरकोट) बसाया था। जबकि आनय वंशियों में यौधेय नामक बड़े प्रसिद्घ क्षत्रिय हुए। यादवों की हैहय शाखा का कार्तवीर्य अर्जुन एक बड़ा पराक्रमी शासक था, जिसका वध परशुराम के द्वारा किया गया था।
पौरव वंश में आगे चलकर दुष्यंत नामक राजा हुआ। इसी का पुत्र भरत हुआ। कई लोगों ने भारत का नाम इसी भरत के नाम से होने की बात कही है। वस्तुत: ऐसा नहीं था। इसी भरत के वंशज हस्ति ने हस्तिनापुर की स्थापना की थी। हस्तिनापुर राज्य के शासकों ने ही पांचाल राज्य की स्थापना की थी। यह पांचाल राज्य भी उत्तरी पांचाल तथा दक्षिणी पांचाल नामक दो भागों में विभक्त हो गया। उत्तरी पांचाल की राजधानी वर्तमान बरेली जिले का रामनगर था, जिसे उस समय अहिच्छत्रपुर कहा जाता था। दक्षिणी पांचाल की राजधानी काम्पिल्य थी।
इन सभी शासकों सम्राटों के वंशज कहीं न कहीं संपूर्ण देश में बिखरे पड़े हैं और अपने पूर्वजों के गौरवपूर्ण कार्यों को किसी न किसी रूप में स्मरण रखे हुए हैं। यदि इनके भीतर अपने पूर्वजों के प्रति आज भी इतना सम्मान भाव है तो यह सहज ही कल्पना की जा सकती है कि भारत के कथित परतंत्रता के काल में यह भावना कितनी प्रबल रही होगी। जिसने इन लोगों के पूर्वजों को देश-धर्म पर मर मिटने की प्रेरणा दी थी।
अग्निवंशी राजकुल के चार राजवंश
उपरोक्त राजकुलों के अतिरिक्त प्राचीन भारत का एक अग्निवंशी राजकुल भी था। इस कुल के भी चार राजवंश हमें देखने को मिलते हैं। इनके नाम हैं-चौहान, सोलंकी, परमार तथा प्रतिहार।
अग्निवंश को कई इतिहासकार कपोल-कल्पित मानते हैं तो कई इसके समर्थन में मत व्यक्त करते हैं। कुछ भी हो इतना तो सत्य ही है कि अग्निवंश के उपरोक्त वर्णित चारों राजकुलों के वंशज भारत में आज भी मिलते हैं और अपने-अपने वंश का गौरवपूर्ण इतिहास बड़े आदरभाव से स्मरण रखने का प्रयास करते हैं।
भंडारकर की मान्यता है कि ”गुर्जर-हूणों के महत्वपूर्ण अंग थे और ये हूणों के साथ ही राजस्थान में आ बसे थे। गुर्जरों में भारतीय परंपरा के अनुसार कई विभाग हो गये थे, जैसे गुर्जर ब्राह्मण, गूजर कारीगर, गूजर वैश्य, गूजर किसान, गूजर क्षत्रिय, और गूजर शूद्र। गूजर भारत के अन्य भागों में भी मिलते हैं। कश्मीर में भेड़ चराने वाले गूजर अद्यावधि हैं। जनरल कनिंघम का मानना है कि गूजर कुशाणवंशी है।”
अग्निवंश की उत्पत्ति क्यों हुई
अग्निवंश की उत्पत्ति कैसे हुई और उसकी आवश्यकता क्यों पड़ी? इस प्रश्न का उत्तर देवीसिंह मण्डावा ने अपनी पुस्तक ‘राजपूत शाखाओं का इतिहास’ में विद्वानों के विभिन्न निष्कर्षों एवं मतों की समीक्षा करते हुए बड़े तार्किक आधार पर दिया है। उनका कथन है :-
”शनै: शनै: सारा ही क्षत्रिय वर्ण वैदिक धर्म को छोडक़र बौद्घ-धर्म को अंगीकार करता चला गया। भारत के चारों कोनों में बौद्घधर्म का प्रचार हो गया था। क्षत्रिय राजा बौद्घ हो गये थे। उन्हीं के साथ वैश्य समाज ने भी बौद्घ धर्म को अंगीकार कर लिया। क्षत्रियों के बौद्घ धर्म में चले जाने के कारण उनकी वैदिक क्रियाएं और परंपराएं समाप्त हो गयीं। इस प्रकार वैदिक क्षत्रिय जो सूर्यवंशी और चंद्रवंशी कहलाते थे, अब उन परंपराओं के समाप्त हो जाने से सूर्यवंशी व चंद्रवंशी कहलाने से डर गये। क्योंकि ये मान्यताएं तो वैदिक धर्म की थीं, जिसे वे छोड़ चुके थे तथा बौद्घ धर्म स्वीकार कर चुके थे। जिसमें ऐसी कोई मान्यताएं नहीं थीं, वैदिक परंपराएं नष्ट प्राय: हो गयी थीं और इससे अप्रसन्न होकर ब्राह्मणों ने पुराणों तक में भी यह लिख दिया कि कलियुग में ब्राह्मण और शूद्र ही रह जाएंगे। कलियुग के राजा शूद्र होंगे। ब्राह्मणों के अत्याचारों से दु:खी होकर बौद्घ धर्म ग्रहण करने वाले क्षत्रिय शासकों को भी उन्होंने शूद्र की संज्ञा दे डाली। उन्होंने दुराग्रह से यहां तक लिख दिया कि कलियुग में क्षत्रिय और वैश्यों का लोप हो जाएगा।
उस युग में समाज की रक्षा तथा शासन संचालन का कार्य क्षत्रियों का था, किंतु वे बौद्घ बन चुके थे। इसलिए वैदिक धर्म की रक्षा करने का प्रश्न ब्राह्मणों के सामने बड़ा जटिल हो गया था। तब उन्होंने किसी रूप में क्षत्रियों को वापस वैदिक धर्म में लाने के प्रयास आरंभ किये।
आबू पर्वत पर हुआ यज्ञ
उस युग के ब्राह्मणों को मुखिया कहिए या ऋषि कहिए उनके अथक प्रयासों से उन्होंने प्रारंभ में चार क्षत्रिय कुलों को बौद्घ धर्म से वापस वैदिक धर्म में दीक्षित किया और आबू पर्वत पर यज्ञ करके बौद्घ धर्म से वैदिक धर्म में उनका समावेश किया। यही अग्निकुल का स्वरूप है। वे प्राचीन सूर्यवंशी या चंद्रवंशी क्षत्रिय ही थे।
अग्निवंश के क्षत्रियों का महत्व
इस प्रकार वर्तमान हिंदूधर्म के सबसे बड़े संरक्षक ये चार कुल (चौहान, सोलंकी, परमार और प्रतिहार गुर्जर) ही हैं। जब हिंदू धर्म को बौद्घ धर्म बड़े प्रेम से निगल रहा था और वैदिक धर्म अपने अस्तित्व का संघर्ष कर रहा था, तब इन चारों कुलों ने हिंदुत्व की रक्षा हेतु स्वयं को सौंप दिया।
इस प्रकार इन चारों क्षत्रिय कुलों का महत्व इसलिए और भी अधिक बढ़ जाता है कि इन्होंने भारत को बौद्घ धर्म के मुंह में जाने से तो बचाया ही साथ ही जब समय आया तो मुस्लिमों और ईसाइयों से देश को बचाने के लिए भी अथक संघर्ष और अनुपम बलिदान दिये। इसीलिए इन चारों क्षत्रिय कुलों को जड़मूल से मिटाने के लिए और इतिहास से लुप्त करने के लिए विदेशी शत्रु लेखकों ने भी अथक प्रयास किये हैं।
बौद्घधर्म ने चीन जैसे विशाल देश को अपने रंग में रंग लिया था। कारण यही था कि चीन में बौद्घधर्म का प्रतिरोध करने वाला कोई नहीं मिला। पर भारत में सही समय पर ब्राह्मणों ने सही निर्णय ले लिया और वैदिक धर्म की रक्षार्थ इन चारों कुलों को शासन सत्ता सौंपने का संस्कृति रक्षक और धर्मरक्षक कार्य कर डाला। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि वर्तमान भारत और हिंदुत्व का जो स्वरूप हम देखते हैं- उसे बचाने में इन चार कुलों का विशेष महत्व है।
शालिवाहन से शिवाजी पर्यंत हमारी जाति के महान योद्घा शताब्दियों तक जिस संस्कृति को बचाने के लिए संघर्षरत रहे उस वैदिक संस्कृति की रक्षार्थ इन चारों राजकुलों के संघर्ष को उपेक्षित नहीं किया जा सकता। आर्य संस्कृति को बौद्घधर्म से संकट उत्पन्न हुआ तो अग्नि से जिन कुलों की उत्पत्ति की गयी उन्होंने अपनी संस्कृति को बदले हुए संदर्भों में ‘हिंदू-संस्कृति’ कहकर सम्मानित किया।
‘हिन्दू’ बन गया हमारे लिए प्रेरणा का स्रोत
कालांतर में जैसा कि सावरकर कहते हैं यही हिंदू शब्द हमारे अनेकों महापुरूषों और बलिदानियों के लिए प्रेरणास्रोत बना। सावरकर का कथन है :-
”यह ‘हिंदू’ नाम ही पदमिनी और चित्तौड़ की चिता भस्म में अंकित है। यह हिंदू नाम ही तुलसीदास, तुकाराम, रामकृष्ण और रामदास ने अपनाया था। हिंदू पद पादशाही की स्थापना ही समर्थगुरू रामदास का सदस्वप्न था। यही शिवाजी का पावन व्रत था। बाजीराव और वीर बंदा वैरागी, छत्रसाल तथा नाना साहब, प्रताप और प्रतापादित्य की आकांक्षाओं का यही धु्रवतारा था। यही नाम उस पवित्र पताका पर अंकित था जिसकी रक्षार्थ एक-एक दिन में एक-एक लाख हिंदू वीर शत्रुओं का संहार करते-करते पानीपत के समरांगण में सर्वदा के लिए सुख की नींद सो गये थे।
आज भी यही हिंदू और हिंदुस्तान नाम कोटि-कोटि मानवों के अंतस्थल को आंदोलित कर रहे हैं। इस नाम का तिरस्कार करना अपनी महान जाति के हृदयस्थल को ही काटकर फेंक देने के तुल्य होगा।” (‘हिन्दुत्व’ पृष्ठ 88)
बौद्घधर्म से वैदिक धर्म में वापस आकर देश सेवा करने की बात को अबुल फजल ने भी अपनी पुस्तक ‘आइने अकबरी’ में स्वीकार किया है।
‘पुनरूज्जीवी पराक्रम’ प्रकट हुआ
यह एक निर्विवाद सत्य है कि इन चार कुलों के वैदिक धर्म में लौटने से हिंदू धर्म को बड़ा बल मिला। यह घटना छठी या सातवीं शताब्दी की है। जिन लोगों ने वैदिक धर्म की रक्षार्थ इन कुलों के पूर्वजों को वैदिक धर्म में लाने का कार्य किया था वह कार्य अत्यंत देशभक्ति पूर्ण था। जिसे आज इतिहास से मिटा दिया गया है। यहां से एक प्रकार से वैदिक धर्म का ‘पुनरूज्जीवी पराक्रम’ प्रकट हुआ और देश पुन: हिंदुत्व के रंग में रंगता चला गया।
कुछ विद्वानों का मानना है कि यहीं से क्षत्रियों को ‘राजपूत’ कहे जाने की परंपरा भी विकसित हुई। यह बात कुछ सार्थक सी ज्ञात होती है। क्योंकि जब पहले से प्रचलित किसी परंपरा या शासन व्यवस्था से लोग मुक्ति प्राप्त करते हैं और अपनी शासन व्यवस्था स्थापित करते हैं तो उस व्यवस्था को वह अपने नाम और अपनी परिभाषाएं दिया करते हैं। इसलिए वेद के ‘राजन्य:’ शब्द को नई व्यवस्था में लोगों ने क्षत्रियों के लिए पर्यायवाची बनाकर उसका उच्चारण राजपूत कर दिया हो तो ये कोई गलत बात नहीं हो सकती। वर्तमान में ऐसे बहुत से शब्द हैं-जिनके संस्कृत शब्द से अब उनका रंगरूप कतई नहीं मिलता। पर प्रचलन में अपभ्रंश शब्द ही चल रहे हैं।
आदि शंकराचार्य का वंदनीय कृत्य
आदि शंकराचार्य ने उस समय इन कुलों को पुन: वैदिक धर्म में लाकर एक राजनीतिक और सामाजिक क्रांति का सूत्रपात किया था। उन्होंने अपनी बुद्घि और तर्क संगत योजना से भारत में बौद्घधर्म को लगभग समाप्त ही कर दिया था। इसी काल में ऋषियों ने चार अग्निवंशी क्षत्रियों के कुलों को तथा 32 अन्य वंशों को मिलाकर क्षत्रिय समाज में कुल 36 कुलों की एक नई परंपरा का श्रीगणेश किया। जिसने भारत की चेतना के जागरण में अपना अमूल्य योगदान दिया।
इस प्रकार हमारे नामों के पीछे लगने वाले गोत्र सूचक उपनामों का अपना ही महत्व और अपना ही इतिहास है आवश्यकता इन गोत्रों के वास्तविक रहस्य को समझने की है। इसी रहस्य को समझने से हमारे भीतर ‘इतिहास बोध’ का ऐसा स्रोत फूट पड़ेगा कि हम सभी आत्मिक आनन्दानुभूति से सराबोर हो उठेंगे।
क्रमश: