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दयानंद महाविद्यालय गुरुकुल डौरली की स्थापना 1925 में हुई। श्री अलगू राय शास्त्री इसके प्रथम आचार्य नियुक्त हुए। इस विद्यालय की स्थापना हेतु भूमिदान पंडित शिव दयालु ने किया। यह विद्यालय प्रारंभ से ही राष्ट्रीयता की भावना को प्रभावी बनाने का कार्य करने लगा। फलस्वरूप गुरुकुल के आचार्यों, ब्रह्मचारियों तथा कर्मचारियों ने विशेषत: सन 1930 से 31 तथा सन 1942 के राष्ट्रीय आंदोलन में खूब बढ़-चढक़र हिस्सा लिया। इस गुरुकुल के स्नातक हरदत्त शास्त्री ने बताया कि 1942 में सभी छात्र व आचार्य स्वाधीनता संग्राम में योगदान करने के लिए आगे बढ़ कर हिस्सा लेते थे। जिन आंदोलनकारियों को पुलिस खोजती फिरती थी, उन्हें यहां शरण दी जाती थी। गुरुकुल के ही छात्र खतौली में ट्रेन की पटरी उखाडऩे के लिए गए थे, किंतु वह गिरफ्तार हो गए थे। सन 1940 के ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ में प्राय: सभी आचार्य तथा ब्रह्मचारी जेल गए। अंग्रेज सरकार ने गुरुकुल को क्रांतिकारियों का केंद्र बताकर गैर कानूनी संस्था घोषित कर दिया। वास्तव में उस समय यह गुरुकुल क्रांतिकारी नेताओं की शरणस्थली बन गया था।
मेरठ के तुलसीराम स्वामी महर्षि दयानन्द के उपदेशों से बहुत अधिक प्रभावित हुए। उन्होंने 1897 में ‘वेद प्रकाश’ नाम से एक मासिक पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ किया। इसमें वैदिक धर्म संबंधी उच्च स्तरीय लेख प्रकाशित होते थे। तुलसी राम उत्तर प्रदेश की आर्य प्रतिनिधि सभा के प्रधान भी चुने गए। उनके अनुज छुट्टन लाल स्वामी ने परीक्षितगढ़ आर्य समाज की स्थापना की और ‘वेद प्रकाश’ पत्र का 1915 से 1920 तक प्रकाशन-संपादन किया। इन्होंने हिन्दी के प्रचार और प्रचलन में भी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया। वह विधवा विवाह के कट्टर समर्थक थे। समाचार पत्र जन-जागृति का वह माध्यम होता है, जो आसानी से हर व्यक्ति को सुलभ हो जाता है। इसलिए मेरठ में ‘आर्य समाचार’ नामक मासिक पत्र भी प्रकाशित हुआ और इस पत्र के माध्यम से आर्य समाज का राष्ट्रीयता से ओत-प्रोत संदेश जन-मानस तक पहुंचा। प्रारम्भ में गंगा सहाय और कल्याण राय ने विद्या-दर्पण प्रेस से इस समाचार पत्र को प्रकाशित किया। तत्पश्चात पंडित घासीराम ने भी इसे निकाला। मेरठ से ही रघुवीर शरण दुबलिश ने 1911 में भास्कर प्रेस से ‘भास्कर’ तथा 1923 में ‘भारत महिला’ नाम से पत्रिकाएँ प्रकाशित कीं। इन दोनों में वैदिक धर्म से संबंधित तथा पाखंड विरोधी सामग्री प्रकाशित होती थी। आर्यसमाज के विचारों पर आधारित इन समाचार-पत्रों ने मेरठ जनपद में राष्ट्रीयता की वह अलख जगाई जिससे प्रभावित होकर मेरठ का जनमानस विदेशी राज को हटाकर स्वराज्य स्थापना के लिए संघर्षशील बन गया।
इस प्रकार स्वामी दयानंद द्वारा स्थापित आर्य समाज ने भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को मील के पत्थर की तरह दिशा बोधक चिन्ह दिए। जिनके कारण हमारा राष्ट्रीय स्वाधीनता प्राप्ति के संघर्ष के मार्ग पर दृढ़तापूर्वक आगे बढ़ सका। यह चिन्ह थे स्वदेशी, स्वभाषा, राष्ट्रीय शिक्षा और स्वराज्य। बाल गंगाधर तिलक, बिपिन चंद्र पाल, अरविंद घोष और महात्मा गांधी यह सभी आर्य समाज के इस सामाजिक धार्मिक आंदोलन से किसी न किसी रूप से प्रभावित थे। वस्तुत: आर्य समाज के कार्यक्रमों को ही यथा जाति प्रथा उन्मूलन, अछूतोद्धार, नारी जागरण, राष्ट्रीय शिक्षा, नशाबंदी, गौरक्षा, खाद्य कुटीर उद्योग, हिंदी प्रचार आदि को गांधी जी द्वारा ‘रचनात्मक कार्यक्रम’ का नाम देकर अपनाया गया। महात्मा गांधी की मान्यता थी कि धर्म ही राजनीति के गले की फांसी के समान है। राजनीति को सदा धर्म के रास्ते पर ही चलना चाहिए, वह धर्म भी धर्म नहीं, जो राजनीति से परहेज करे। उनकी इसी धारणा के कारण आर्य समाजी उनके आंदोलनों में सदैव अधिकाधिक योगदान देते रहे। यह उल्लेखनीय है कि महात्मा गांधी ने अपने शांतिमय असहयोग आंदोलन के प्रारंभ में सर्वप्रथम नमक कानून तोड़ा था, परंतु स्वामी दयानंद सरस्वती ने सन 1875 में ही नमक जंगलात के कानून की अनीति और अन्याय को अनुभव किया था। उन्होंने ‘सत्यार्थ प्रकाश’ में अपनी सम्मति प्रकट की थी कि इन से गरीब लोगों को बहुत हानि पहुंचती है। आर्य समाज के प्रचार प्रसार से मेरठ की जनता में जागृति आई तथा सामाजिक सांस्कृतिक और राजनीतिक क्षेत्र में भी परिवर्तन हुए। यद्यपि आर्य समाज ने स्वयं को सदैव एक गैर राजनीतिक संस्था बताया। परंतु उसने यह स्वीकारने में कभी संकोच नहीं किया कि उसका उद्देश्य भारतवासियों को बौद्धिक, नैतिक, धार्मिक और सामाजिक रूढिय़ों से मुक्ति दिलाना है।
स्वामी दयानंद ने धर्म प्रसार के माध्यम से स्वतंत्रता प्राप्त करने का प्रयत्न जारी रखा। स्वामी सत्यानंद ‘दयानन्द प्रकाश’ में एक स्तर पर लिखते हैं ‘महर्षि स्वामी दयानंद देश और जाति की उन्नति के विषय पर ओजस्वी और तेजस्विनी भाषा में प्रभावशाली भाषण दिया करते थे। जिन्हें सुनकर श्रोताओं में उर्जा भर जाती थी, उनका साहस बढ़ जाता था तथा उत्साह उमड़ आता था, हृदय उछलने लगता था, अंग फडक़ उठते थे और जातीय जीवन रक्त खोलने लगता था। किंतु किसी मनुष्य जाति के लिए उनके मन में घृणा और द्वेष उत्पन्न नहीं होता था। उनकी उदात, नीतिमत्ता और राष्ट्र सुधार के विचार सिद्धांत रूप से प्रकाशित होते थे’।
क्रमश: