जिस प्रकार मुकुट में ‘हीरा’ लगने से मुकुट का मूल्य और महत्व अधिक हो जाता है, ठीक इसी प्रकार व्यक्ति के पास यदि ‘शील’ है अर्थात उत्तम स्वभाव है तो उसके धन दौलत, पद-प्रतिष्ठा, योग्यता (विद्या अथवा ज्ञान) और कर्मशीलता का महत्व अनमोल हो जाता है, लोकप्रियता और ऐश्वर्य का सितारा चढ़ जाता है अन्यथा शील के बिना अर्थात उत्तम स्वभाव के बिना सब कुछ शून्य लगता है, नगण्य लगता है। ऐसे समझो, जैसे नमक के बिना भोजन स्वादहीन लगता है।
ब्रह्माण्ड का कारण ब्रह्म है
कार्य कारण का क्रम,
सृष्टि में लगातार।
सृष्टि का कारण ब्रह्म है,
जिससे प्रकटा संसार ।। 1167 ।।
व्याख्या :-वर्तमान में जो स्थिति अथवा परिस्थिति है, वह भविष्य में आने वाली स्थिति अथवा परिस्थिति का कारण बनती है, बीज बनती है। इसीलिए विभिन्न शोध होती है, नई-नई गवेषणाएं होती हैं, तरह-तरह के आविष्कार होते हैं। यह क्रम सृष्टि के आदिकाल से चला आ रहा है और चलता रहेगा। कारणों के कारणों को यदि हम ढूंढ़ते चले जायेंगे तो अंततोगत्वा हमें ज्ञात होगा कि समस्त ब्रह्माण्ड का मूल ब्रह्म है।
इस संदर्भ में भगवान कृष्ण ‘गीता’ के सातवें अध्याय के छठे श्लोक में स्पष्ट कहते हैं- ‘अहं कृत्स्रस्य जगत: प्रभव: प्रलयस्तथा‘ अर्थात मात्र वस्तुओं को सत्ता-स्फूर्ति परमात्मा से मिलती है, इसलिए भगवान कृष्ण कहते हैं कि मैं संपूर्ण जगत का प्रभाव (उत्पन्न करने वाला) और प्रलय (लीन करने वाला) हूं।
प्रभव: का तात्पर्य है कि मैं ही इस जगत का निमित्त कारण हूं , क्योंकि संपूर्ण सृष्टि मेरे संकल्प से पैदा हुई। जैसे घड़ा बनाने में कुम्हार और सोने के आभूषण बनाने में सुनार ही निमित्त कारण हंै, ऐसे ही संसार की उत्पत्ति में भगवान ही निमित्त कारण है।
ध्यान रहे, ‘जीव’ भोक्ता है, प्रकृति ‘भोग्य’ है, ब्रह्म ‘प्रेरक’ है-इसे त्रिविध ब्रह्म कहते हैं। जीव, ब्रह्म, प्रकृति में श्रेष्ठता ‘ब्रह्म’ की है। ‘जीव’ प्रकृति का अधिष्ठाता ब्रह्मा है। इसलिए प्रभव और प्रलय का विशेषाधिकार ब्रह्म के पास है।
‘प्रलय’ कहने का तात्पर्य है कि इस जगत का उपादान-कारण भी मैं ही हूं, क्योंकि कार्यमात्र उपादान कारण से उत्पन्न होता है, उपादान-कारण रूप से रहता है और अंत में उपादान कारण में ही लीन हो जाता है। जैसे घड़ा बनाने में मिट्टी उपादान कारण है, ऐसे सृष्टि की रचना करने में भगवान ही उपादान कारण है। जैसे घड़ा मिट्टी से ही पैदा होता है, मिट्टी ही रहता है और अन्त में टूटकर अथवा घिसते-घिसते मिट्टी ही बन जाता है। ऐसे ही यह संसार भगवान से ही उत्पन्न होता है, भगवान में रहता है और अन्त में ब्रह्म में ही लीन हो जाता है। इसीलिए छान्दोग्य उपनिषद के ऋषि ने कितना सुंदर कहा-‘सर्व खल्विदं ब्रह्म’ अर्थात ब्रह्म का सबमें निवास है।
सृष्टि का मूल कारण ब्रह्म है। इस संदर्भ में छान्दोग्य उपनिषद का ऋषि बड़े ही मुक्त कण्ठ से कहता है-तदैक्षत बहुस्यां प्रजायेयेति। अर्थात परमपिता (6/2/3) परमात्मा ने जब यह ऐक्षत की इच्छा की अर्थात संकल्प किया कि मैं एक से अनेक हो जाऊं, तो यह सारा संसार प्रकट हो गया।
क्रमश: