‘ईस्ट इंडिया कंपनी’ के नाम का रहस्य
जिस समय मुगल साम्राज्य अपने चरमोत्कर्ष पर था। उसी समय भारत में अंग्रेजों और कुछ अन्य यूरोपियन जातियों का आगमन हुआ। सन 1600 में भारत में अकबर का शासन था, तभी ‘ईस्ट इंडिया कंपनी’ की स्थापना हुई। इस कंपनी को ‘ईस्ट इंडिया कंपनी’ इसलिए कहा गया कि कोलंबस ने जिस अमेरिका को भारत समझ लिया था, उसे उसने ‘वैस्ट इंडिया’ कहा। हम आज भी उस स्थान को विश्व मानचित्र में ‘वैस्ट इंडीज’ के नाम से जानते हैं। तब इंग्लैंड की स्थिति ऐसी थी-
जब ‘ईस्ट इंडिया कंपनी’ भारत में आयी उस समय इंग्लैंड वासियों की स्थिति बड़ी दयनीय थी। वह व्यापार करने के लिए भारत आये। उनकी सामाजिक और आर्थिक स्थिति पर विचार करते हुए इतिहासज्ञ डे्रपर ने लिखा है :-
”किसानों की झोंपडिय़ों नरसलों और छडिय़ों की बनी हुई होती थीं। जिनके ऊपर गारा पोत दिया जाता था। घर में घास जलाकर आग तैयार की जाती थी। धुएं के निकलने के लिए कोई जगह न होती थी। जिस तरह का सामान उस समय के एक अंग्रेज किसान के घर में होता और जिस प्रकार से वह जिंदगी बसर करता था, उससे मालूम होता था कि गांव के पास नदी के किनारे जो ऊदबिलाव मेहनत से मांद बनाकर रहता था, उस ऊदबिलाव की हालत में और उस किसान की हालत में अधिक अंतर न था। सडक़ों पर डाकू फिरते रहते थे, निर्दयी समुद्री लुटेरे और लोगों के कपड़ों और विस्तरों में जुएं। आमतौर पर लोगों की खुराक होती थी मटर, उड़द, जड़ें और दरख्तों की छालें। कोई ऐसा धंधा न था, न कोई व्यापार था, जिससे वर्षा न होने की स्थिति में किसान दुष्काल से बच सकें। मौसमी सख्ती से बचने के लिए मनुष्यों के पास कोई उपाय न था। आबादी बहुत कम थी, जो महामारी तथा अन्न के अभाव से घटती रहती थी। शहर के लोगों की हालत भी गांव के लोगों से कुछ अच्छी न थी। शहर वालों को बिछौना, भूसे का एक थैला होता था और तकिये की जगह लकड़ी का एक गोल टुकड़ा। जो शहर वाले खुशहाल थे-वे चमड़े के कपड़े पहनते थे और जो गरीब होते थे, वे अपने हाथ और पैरों पर पुआल की पूलियां लपेटकर अपने को सर्दी से बचाते थे।….जिन शहरों में शीशे या तैलपत्र की कोई खिडक़ी तक न होती थी-वहां किसी तरह के कारीगर के लिए कहां गुंजायश थी? कहीं कोई कारखाना न था, जिसमें कोई कारीगर आराम से बैठ सके। गरीबों के लिए कोई वैद्य नहीं था। सफाई का कहीं कोई इंतजाम नहीं था।”
यूरोपवासियों का नैतिक चरित्र
यूरोपवासियों का नैतिक चरित्र भी कितना पतित था, इसे भी डे्रपर के शब्दों में ही समझना उचित होगा वह अन्यत्र लिखता है-
”जिस तेजी के साथ गरमी की बीमारी उन दिनों तमाम यूरोप में फैली उससे इस बात का स्पष्ट पता चलता है कि लोगों में दुराचार कितने भयंकर रूप में फैला हुआ था? यदि हम उस समय के लेखकों पर विश्वास करें तो विवाहित या अविवाहित ईसाई पादरी या मामूली
गृहस्थ, पोप लियो दसवें से लेकर गली के भिखमंगे तक कोई वर्ग ऐसा नहीं था जो इस रोग से बचा रहा हो। इंगलिस्तान की आबादी पचास लाख से भी कम थी। किसान अपनी जमीन का मालिक न होता था। जमीन जमींदार की होती थी और किसान केवल उसका मजदूर चौकीदार होता था ऐसी स्थिति में दूसरे देशों की तिजारत ने समाज में हलचल मचानी आरंभ की। आबादी इधर से उधर जाने लगी। दूसरे देशों से तिजारत करने के लिए कंपनियों बनायी गयीं। ये अफवाहें या खतरे सुनकर कि दूसरे देशों में जाकर जल्न्दी से खूब धन कमाया जा सकता है लोगों के दिमाग फिरने लगे। सारी अंग्रेज जाति इतनी अशिक्षित थी कि संसद के ‘हाउस ऑफ लॉर्ड्स’ के बहुत से सदस्य तक न लिख सकते थे और न पढ़ सकते थे। ईसाई पादरियों में भयंकर दुराचार फैला हुआ था। खुले तौर पर कहा जाता था कि इंगलिस्तान में एक लाख औरतें ऐसी हैं, जिन्हें पादरियों ने खराब कर रखा है। कोई पादरी यदि बुरे से बुरे जुर्म भी करता था, तो उसे केवल थोड़ा सा जुर्माना देना पड़ता था। मनुष्य हत्या के लिए पादरियों को केवल छह शिलिंग आठ पेंस (लगभग पांच रूपये) जुर्माना देना पड़ता था।
सत्रहवीं शताब्दी के अंत में लंदन का शहर भर गंदा था। मकान भद्दे बने हुए थे और स्वच्छता का कोई प्रबंध न था। जंगली जानवर हर जगह फिरते थे। बरसात में सडक़ें इतनी खराब हो जाती थीं कि उन पर चलना कठिन था। देहात में अक्सर लोग रास्ता भूल जाते थे, तब उन्हें रात-रात भर बाहर ठण्डी हवा में रहना पड़ता था। खास-खास नगरों के बीच में भी कहीं-कहीं सडक़ों का पता न होता था जिसके कारण पहियेदार गाडिय़ों का चल सकना इतना कठिन था कि लोग अधिकतर लट्टू टट्टुओं के पलानों में दायं-बांऐ असबाब के साथ-साथ असबाब की तरह लदकर एक जगह से दूसरी जगह आते जाते थे। सत्रहवीं शताब्दी के अंत में जाकर तेज से तेज गाड़ी दिन भर में तीस मील से पचास मील तक चल सकती थी और वह उडऩे वाली गाड़ी कही जाती थी। टाइन नदी के स्रोत पर जो लोग रहते थे वे अमरीका के आदिम निवासियों से कम जंगली न थे। उनकी आधी नंगी स्त्रियां जंगली गाने गाती फिरती थीं और पुरूष अपनी कटार घुमाते हुए लड़ाईयों के नाच नाचते थे, जबकि पुरूषों की यह हालत थी कि उनमें से बहुत थोड़े ठीक-ठीक लिखना पढऩा जानते थे। तब यह सोचा जा सकता है कि स्त्रियां कितनी अशिक्षित रही होंगी? समाज की व्यवस्था में जिसे हम सदाचार कहते हैं, उसका कहीं पता न था। पति अपनी पत्नी को कोड़ों से पीटता था। अपराधियों को टिकटिकी से बांधकर पत्थर मार-मारकर मार डाला जाता था। औरतों की टांगों को सरे बाजार शिकंजों में कसकर छोड़ दिया जाता था, लोगों के दिल अत्यंत कठोर हो गये थे। गांव के लोगों के मकान झोंपड़े होते थे-जिन पर फूस छाया होता था। लंदन में मकान अधिकतर लकड़ी और प्लास्टर के होते थे, गलियां इतनी गंदी होती थीं कि बयान नहीं किया जा सकता। शाम होने के बाद डर के मारे कोई अपने-अपने घर से न निकलता था क्योंकि जो चाहे, अपने ऊपर के कमरे की खिडक़ी खोलकर कहीं भी गंदा पानी नीचे फेंक देता था। लंदन की गलियों में लालटेनों का कहीं निशान न था। उच्चश्रेणी के लोगों में सदाचार की आमतौर पर यह हालत थी कि उनमें यदि कोई मनुष्य मरता था तो लोग यही समझते थे कि किसी ने जहर देकर मार दिया होगा। सारे देश में दुराचार की एक बाढ़ आयी हुई थी।”
(संदर्भ : ‘द इंटैक्चुअल डेवलपमेंट इन यूरोप’ जॉन विलियम डे्रपर खण्ड 2 पृष्ठ 233-244)
भारत में अंग्रेज शासन करने नहीं आए थे
उपरोक्त वर्णन से स्पष्ट है कि अंग्रेजों के अपने देश की स्थिति उस समय अत्यंत दयनीय थी। ऐसी स्थितियों में जब अंग्रेज जाति स्वयं अत्यंत दरिद्र और पूर्णत: अशिक्षित थी-भारत जैसे सांस्कृतिक रूप से समृद्घ और ‘विश्वगुरू’ रहे देश पर शासन करने आयी हो, यह नहीं कहा जा सकता।
अंग्रेज भारत में व्यापार करने भी नहीं आये क्योंकि भूखे नंगे लोग व्यापारी नहीं हो सकते, मजदूर अवश्य हो सकते हैं। इसलिए ये लोग भारत में केवल अपनी भूख मिटाने के लिए आये। उनका लक्ष्य भारत को किसी प्रकार की आधुनिक शिक्षा देकर सभ्य बनाना भी नहीं था। क्योंकि शिक्षा तो वह देता है जो शिक्षा का मूल्य समझता हो या जो स्वयं भी शिक्षित हो। जिस देश की संसद के अधिकांश सदस्य पूर्णत: अशिक्षित हों वह दूसरों को क्या शिक्षा देगा? यही कारण था कि अंग्रेज यद्यपि 1600 ई. में भारत आ गये थे परंतु २५० वर्षों तक (मैकाले के 1835 में भारत आगमन तक) उन्होंने भारत को किसी प्रकार से शिक्षित करने का यत्न नहीं किया। उनके पादरियों के दुराचारों के कारण हो सकता है कि वह भारत की धार्मिक व्यवस्था को अपने से अधिक पवित्र और उच्च मानते रहे हों, इसलिए यहां रहकर अपने प्रारंभिक काल में धर्मांतरण पर भी किसी प्रकार का बल नहीं दिया।
क्या कहता है मानव स्वभाव का अध्ययन
मानव स्वभाव का अध्ययन किया जाए तो किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता को छीनने का प्रयास वही व्यक्ति या वर्ग अथवा समुदाय कर सकता है जो स्वयं किसी का दास हो, या जिसे स्वतंत्रता की पता ही न हो और दासता की कष्टप्रद जीवन प्रणाली को ही वह मनुष्य के लिए स्वाभाविक मानता हो। जिसके पास मनुष्य जीवन को उन्नत करने और बनाने की अपनी पूर्ण योजना हो और उस योजना को वह क्रियान्वित भी करता हो-उस देश से किसी अन्य देश या जाति को अपना दास बनाने की अपेक्षा नहीं की जा सकती, जैसा कि भारतदेश है। अंग्रेजों के अपने समाज में दासता थी, अशिक्षा थी, अत्याचार थे, अनाचार था, पापाचार था और हर प्रकार का दुराचार था। अत: उनसे भारत को अपने इन अवगुणों से बढक़र कुछ देने की अपेक्षा नहीं की जानी चाहिए।
इंग्लैंड में होते थे मानवता के विरूद्घ अपराध अंग्रेजों के यहां व्यक्ति के विचार स्वातंत्रय की स्थिति पर डे्रपर का कहना है-
”ऑक्सफोर्ड के विश्वविद्यालय ने यह आज्ञा दे दी थी कि बकेनन मिल्टन और बेक्सटर की राजनीतिक पुस्तकें स्कूलों के आंगनों में रखकर खुले तौर पर जला दी जाएं। राजनीतिक या धार्मिक अपराधों के बदले जिस तरह की सख्त सजाएं दी जाती थीं उन पर विश्वास होना कठिन है। लंदन में टेम्स नदी के पुराने टूटे हुए पुल पर इस तरह के अपराधियों के डरावने सिर काटकर लटका दिये जाते थे इसलिए कि उस भयंकर दृश्य को देखकर जनसामान्य कानून के विरूद्घ जाने से रूके रहें। उस समय की उदारता का अंदाजा उस एक कानून से लगाया जा सकता है, जो 8 मई सन 1685 को स्कॉटलैंड की संसद ने पास किया। कानून यह था कि जो मनुष्य सिवाय बादशाह के संप्रदाय के दूसरे किसी ईसाई संप्रदाय के गिरजे में जाकर उपदेश देगा या उपदेश सुनेगा उसे मौत की सजा दी जाएगी और उसका माल असबाब जब्त कर लिया जाएगा। इस बात के बहुत से प्रमाण हमारे पास उपलब्ध हैं कि इस प्रकार के निंदनीय भाव केवल कानूनों के अक्षरों में ही बंद न रह जाते थे। स्कॉटलैंड में कवेनेंटर (एक ईसाई समुदाय) लोगों के घुटनों को शिकंजों के अंदर कुचलकर तोड़ दिया जाता था और वे दुख से चिल्लाते रहते थे, स्त्रियों को लकडिय़ों से बांधकर समुद्र के किनारे रेत पर छोड़ दिया जाता था और धीरे धीरे समुद्र की बढ़ती हुई लहरें उन्हें बहा ले जाती थीं या उनके गालों को दागकर उन्हें जहाजों में बंद करके, जबरदस्ती गुलाम बनाकर अमरीका भेज दिया जाता था। केवल इस अपराध में कि वे सरकार के बताये हुए गिरजे में जाने से इंकार करती थीं। राजकुल की स्त्रियां, यहां तक कि स्वयं इंगलिस्तान की मलिका भी स्त्रियोचित दयाभाव और मामूली मनुष्य को भूलकर गुलामों के इस क्रय विक्रय के नारकीय व्यापार में भाग लेती थी।”
अंग्रेजों से भारत क्या सीख सकता था?
भारत ने मनुष्य मात्र और नारी के प्रति ऐसी क्रूरता का व्यवहार कभी नहीं किया। अत: जब मुसलमानों के अत्याचारों से कराहते हुए भारत को अंग्रेज या अन्य यूरोपीयन जातियों के संपर्क में आने का अवसर मिला तो वह उसके लिए और भी अधिक पीड़ादायक था।
आधुनिक और कथित रूप से प्रगतिशील कहे जाने वाले इतिहासकारों के ये दावे पूर्णत: मिथ्या और भ्रामक हैं कि अंग्रेजों या अन्य यूरोपीय जातियों के भारतीयों के संपर्क में आने से भारतीयों को इन जातियों के खुले विचारों और सभ्य जीवन शैली को सीखने समझने का अवसर मिला। जो स्वयं खुले नहीं थे और स्वयं सभ्य नहीं थे उनसे भारत क्या सीख सकता था? हां, यह तो हो सकता है कि उन जातियों ने भारत से कुछ नहीं बहुत कुछ सीखा हो, और इसकी मानवता को सीख-समझकर मानव का मानव के साथ संबंध सरस और सहज बनाया हो।
यूरोपीयन जातियों का भारत आगमन निश्चित रूप से एक दुखद अनुभव था। ‘दि इंग्लिश इन इंडिया-सिस्टम ऑफ टैरिटोटियल एक्वीजीशन’ के लेखक विलियम हाविट ने लिखा है-
”जिस तरीके से ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारतवर्ष पर अपना नियंत्रण स्थापित किया, उससे अधिक वीभत्स और ईसाई सिद्घांतों के विरूद्घ किसी दूसरे तरीके की कल्पना नहीं की जा सकती। यदि कोई कुटिल से कुटिल उपाय या ढंग हो सकता था, जिसमें नींच से नीच अन्याय की कोशिशों पर न्याय का बढिय़ा मुलम्मा चढ़ाने की कोशिश की गयी हो, यदि कोई तरीका अधिक से अधिक निष्ठुर क्रूर उपयुक्त और दयाशून्य हो सकता था तो यही वह तरीका है-जिससे भारतवर्ष की अनेक देशी रियासतों का शासन देशी राजाओं के हाथों से छीनकर ब्रिटिश सत्ता के चंगुल में जमा कर दिया गया। जब कभी हम दूसरी कौमों के सामने अंगरेज कौम की सच्चाई और ईमानदारी का जिक्र करते हैं तो वे भारत की ओर संकेत करके बड़ी हिकारत के साथ हमारा मजाक उड़ा सकते हैं। जिस तरीके पर चलकर लगातार सौ वर्ष से ऊपर तक देशी राजाओं से उनके क्षेत्र छीने जाते रहे और वह भी न्याय और औचित्य की आड़ में उस तरीके से बढक़र दूसरों को यंत्रणा पहुंचाने का तरीका राजनीतिक या धार्मिक किसी मैदान में किसी भी जालिम हुकूमत ने पहले कभी ईजाद न किया था, संसार में उसके मुकाबले की कोई दूसरी मिसाल नही मिल सकती।”
अंग्रेजों की दुष्टता का बखान
अंग्रेज भारत के लिए कितने दुष्ट रहे और किस प्रकार के निंदनीय और अमानवीय अत्याचारों के आधार पर वे भारत पर शासन करने लगे? इस पर एक अंग्रेज मनीषी हर्बर्ट स्पेंसर ने 1851 ई. में लिखा था-
”पिछली शताब्दी में भारत में रहने वाले अंग्रेज जिन्हें वर्क ने भारत में शिकार की गरज से जाने वाले परिन्दे बतलाया है अपने मुकाबले के पेरू और मेक्सिको निवासी यूरोपियनों से कुछ ही कम जालिम साबित हुए। कल्पना कीजिए कि उनकी करतूतें कितनी काली रही होंगी, जबकि कंपनी के डायरेक्टरों तक ने यह स्वीकार किया है कि भारत के आंतरिक व्यापार में जो बड़ी-बड़ी पूंजियां कमाई गयी हैं वे इतने जबरदस्त अन्यायों और अत्याचारों द्वारा प्राप्त की गयी हैं जिनसे बढक़र अन्याय और अत्याचार कभी किसी देश या किसी जमाने में सुनने में नहीं आये। अनुमान कीजिए कि वंसीटार्ट ने समाज की जिस दशा को बयान किया है वह कितनी वीभत्स रही होगी, जबकि वंसीटार्ट हमें बताता है कि अंग्रेज भारतवासियों को विवश करके जिस भाव चाहते थे उनसे माल खरीदते थे और जिस भाव चाहते थे उनके हाथ बेचते थे। जो कोई इंकार करता था-उसे बेंत या कैदखाने की सजा देते थे। विचार कीजिए-उस समय देश की क्या हालत रही होगी, जबकि अपनी किसी यात्रा को बयान करते हुए वारेन हेस्टिंग्स लिखता है कि हमारे पहुंचते ही अधिकांश लोग छोटे-छोटे कस्बों और सरायों को छोड़-छोडक़र भाग जाते थे। इन अंग्रेज अधिकारियों की निश्चित नीति ही उस समय बिना किसी अपराध के देशवासियों के साथ दगा करना थी। देशी नरेशों को धोखा दे-देकर उन्हें एक दूसरे से लड़ाया गया, पहले उनमें से किसी एक को उसके विपक्षी के विरूद्घ मदद देकर गद्दी पर बिठाया गया और फिर किसी न किसी दुव्र्यवहार का बहाना लेकर उसे भी तख्त से उतार दिया गया। इन सरकारी भेडिय़ों को किसी न किसी गंदे नाले का बहाना सदा मिल जाता था। जिन अधीन देशी सरदारों के पास इस तरह के क्षेत्र होते थे, जिन पर इन लोगों के दांत लगे होते थे-उनमें बड़ी-बड़ी अनुचित रकमें बतौर खिराज के लेकर उन्हें निर्धन कर दिया जाता था और अंत में जब वे इन मांगों को पूरा करने के अयोग्य हो जाते थे तो इसी संगीन अपराध के दण्ड स्वरूप उन्हें गद्दी से उतार दिया जाता था। यहां तक कि हमारे समय 1851 ई. में भी उसी तरह के जुर्म जारी हैं। आज दिन तक नमक का कष्ट कर हजारा और लगान की वही निर्दय प्रथा जारी है-जो निर्धन प्रजा से भूमि की लगभग आधी पैदावार चूस लेती है। आज दिन तक भी वह धूत्र्ततापूर्ण स्वेच्छा शासन जारी है जो देश को पराधीन बनाये रखने तथा उस पराधीनता को बढ़ाने के लिए देशी सिपाहियों का ही साधनों के रूप में उपयोग करता है। इसी स्वेच्छाचारी शासन के नीचे अभी बहुत वर्ष नहीं गुजरे कि हिंदोस्तानी सिपाहियों की एक पूरी रेजीमेंट को इसलिए जानबूझकर कत्ल कर डाला गया कि उस रेजीमेंट के सिपाहियों ने बगैर पहनने के कपड़ों के कूच करने से इंकार कर दिया था। आज दिन तक पुलिस के कर्मचारी धनवान लफंगों के साथ मिलकर निर्धनों से बलात् धन ऐंठने के लिए सारी कानूनी मशीन को काम में लाते हैं। आज के दिन तक साहब लोग हाथियों पर बैठकर निर्धन किसानों की फसलों में से जाते हैं और गांव के लोगों से बिना कीमत दिये रसद वसूल कर लेते हैं। आज के दिन तक यह एक आम बात है कि दूर के ग्रामों में रहने वाले लोग किसी यूरोपीयन का चेहरा देखते ही जंगल में भाग जाते हैं।”
(संदर्भ : ‘सोशल स्टैटिक्स’ हर्बर्ट स्पेंसर) पाठक अनुमान लगायें-
इस खण्ड में हम मुगल बादशाह के अंतिम दिनों में अंग्रेजों की बढ़ती जा रही शक्ति पर विचार करेंगे। उपरोक्त उद्घरण यहां केवल इसलिए दिये गये हैं कि जिससे पाठकगण आने वाले कष्टकर समय का स्वयं अनुमान लगा लें। जिस आक्रांता जाति के विद्वान स्वयं अपने शासकों के अत्याचारों पर गहन दुख और क्षोभ व्यक्त कर रहे हों, उनसे हमारे पूर्वजों को उस समय कितनी पीड़ा रही होगी? यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। अगले अध्यायों में हम घटनाओं का क्रमवार अनुशीलन करने का प्रयास करेंगे।
क्रमश:
मुख्य संपादक, उगता भारत