सत्यार्थ प्रकाश ‘एक अनुपम ग्रन्थ’ भाग-4

राकेश आर्य (बागपत)

महर्षि दयानन्द का तात्पर्य बिलकुल साफ है सबसे पहले वेदानुसार वे परमेश्वर को निराकार अजर, अमर, अजन्मा, सर्वशक्तिमान तो बताते ही है साथ ही साथ ईश्वर एक है और सर्व व्यापक यानि कण-कण में विद्ममान मानते है अत: उसकी कोई प्रतिमा नहीं हो सकती है। विभिन्न नामों का वर्णन जैसे भाग-3 में किया गया है उसी

प्रकार आगे भी बताते है हम उसे इस प्रकार समझ सकते है कि जैसे कृष्ण जी को गाय चराने के कारण ग्वाला, बासुरी बजाने के कारण बंशीधर, गिरिधर, कान्हा, कन्हैया, वासुदेव, देवकी नन्दन आदि विभिन्न नामों से जाना जाता है परन्तु उनका निज व मुख्य नाम कृष्ण है। बाकी सभी गौणिक नाम है तथा हनुमान जी को मारूति,

बालाजी, पवन सुत, अन्जनी पुत्र आदि अनेको नामों से जाना जाता है। परन्तु उनका निज व मुख्य नाम हनुमान ही है। ठीक इसी प्रकार परमेश्वर का निज तथा मुख्य नाम ओउम है तथा बाकी सभी गौणिक नाम है। यहाँ यह बताना भी अति आवश्यक है कि महर्षि दयानन्द श्रीराम जी को मर्यादा पुरूषोत्तम तथा श्रीकृष्ण को धर्म

संस्थापक योगऋषि मानते है क्योंकि वो कहते है कि जिसने जन्म लिया और जो मृत्यु को प्राप्त होता है वह परमेश्वर नहीं हो सकता क्योंकि परमेश्वर को वो अजन्मा व सर्वव्यापक मानते है जो कोई शरीर धारी मनुष्य हो ही नहीं सकता तथा परमेश्वर एक ही है परन्तु उसके गौणिक नामों को निम्नवत परिभाषित करते है ।

परमात्मा को सब जगत के बनाने के कारण उनका नाम ब्रह्मा, सर्वत्र व्यापक होने के कारण विष्णु, दुष्टो को दण्ड़ देकर रूलाने के कारण रूद्र, मंगलमय और सबका कल्याण कर्ता होने से शिव, जो सर्वत्र व्याप्त अविनाशि है इसलिए अक्षर, स्वयं प्रकाश स्वरूप होने से स्वराट, प्रलय में सबका काल और काल का भी काल इसलिए

परमेश्वर का नाम कालाग्नि, है परमात्मा प्रकृति के सभी दिव्य पदार्थो में व्याप्त है इसलिए उसका नाम दिव्य, जिसका आत्मा अर्थात् स्वरूप महान है अत: गुरूत्मान, वायु के समान है अनन्त बलवान होने से मातरिश्वा, जिसमें सब भूत प्राणी होते है अत: ईश्वर का नाम भूमि, आदि नाम भी परमात्मा के गौणिक नाम है।

-सामवेद प्रपाठक 7। त्रिक 8। मन्त्र 2 ।। का प्रमाण देते हुए महर्षि दयानन्द, इन्द्र को परमेश्वर का ही नाम बताते है जैसे- प्राण के वश में समस्त शरीर की इन्द्रिया रहती है वैसे- ही परमात्मा के वश में समस्त जगत् रहता है। अत: हम इस निष्कर्ष पर पहुचते है कि ओउम केवल परमात्मा का ही नाम है और अग्नि आदि नामों से

परमेश्वर के ग्रहण में प्रकरण और विशेषण नियम कारक है इससे यह भी सिद्ध हुआ कि जहाँ जहाँ स्तुति, प्रार्थना, उपासना, सर्वज्ञ, व्यापक, शुद्ध, सनातन और सृष्टिकर्ता आदि विशेषण लिखे है वही वही परमेश्वर का ग्रहण होता है जहाँ जहाँ विराट्, पुरुष, देव, आकाश, वायु, अग्नि, भूमि आदि नाम लौकिक पदार्थो के प्रमाण है वहा

उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय, अल्पज्ञ, जड़, दृश्य आदि विशेषण भी लिखे हो वहा परमात्मा का ग्रहण नहीं होता क्योंकि इन सब की उत्पत्ति होती है जहाँ जहाँ इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख-दुख और अल्पज्ञ आदि विशेषण हो वहा जीव समझना चाहिये। परमात्मा का जन्म मरण कभी नहीं होता।

क्रमश: 

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