महाभारत से हमें पता चलता है कि यादव, कुकुर, भोज, अंधक और वृष्णि नामक गणराज्य उस समय परस्पर लड़ते- झगड़ते रहते थे। उन गणराज्यों ने अपनी राजनीतिक स्वतंत्रता और पृथक सत्ता को कायम रखते हुए अपने को एक संघ के रूप में संगठित किया हुआ था। इस संघ में दो मुख्य दल थे, जिनके नेता आहुक और अक्रूर थे। इन दलों में घोर मतभेद था, और इनमें निरंतर संघर्ष चलता रहता था। ये दल संघ के मुख्यों पर कटु आक्षेप करते रहते थे। कृष्ण की स्थिति इस संघ में संघ के मुखिया जैसी थी। कृष्ण विविध ज्ञातियों (बंधु-बांधवों= परिजनों) की कटु आलोचना से सदा परेशान रहते थे। तब उन्होंने नारद मुनि से अपनी परेशानी के संबंध में प्रश्न किया। जिनका उत्तर उन्होंने यह कह कर दिया कि यह आंतरिक अर्थात अभ्यांतर विपत्ति है, जो तुम्हें परेशान कर रही है। इस विपत्ति का निवारण एक ऐसे शस्त्र द्वारा किया जा सकता है, जो लोहे का बना न होकर अत्यंत मृदु होते हुए भी हृदय को जीतने में समर्थ होता है। यह शस्त्र है दूसरों के प्रति सदा मीठी वाणी बोलना, सबका यथायोग्य रूप से आदर करना और सब का अन्न, भोजनादि द्वारा यथाशक्ति सत्कार करना। नि:संदेह लोकतंत्र शासन वाले गणराज्यों में संघमुख्यों (संघ के मुखियाओं) के लिए यह अनिवार्य है कि वे सब का मन रखें, सब के प्रति मृदुवाणी का प्रयोग करें, सब का आदर करें, और अन्न भोजनादि द्वारा सबका यथोचित रीति से सत्कार करते रहें।
इस समय अपना प्रश्न करते हुए कृष्ण ने अपनी मनोदशा को जिन शब्दों में व्यक्त किया था, वे भी बड़े ही मार्मिक थे। उन्होंने कहा था कि हे नारद! मेरी दशा जुआरियों की माता के समान है, जो न एक की विजय चाहती है, और न दूसरे की पराजय।
वास्तव में जब देश में नागरिक उपद्रव करने लगें, अराजकता और अनीति के मार्ग का आश्रय लेकर देश में अव्यवस्था को उत्पन्न करने लगें, तो उस समय जो स्थिति अपने संघों के मध्य बढ़ते मनोमालिन्य और वैर विरोध को लेकर कृष्ण की थी- वही स्थिति देश की आत्मा की हो जाती है। राष्ट्र की अंतश्चेतना तब साकार हो उठती है, और वह हर राष्ट्रवासी से प्रसन्न करने लगती है कि अब बताओ मैं क्या करूं? आरक्षण समर्थक भी मेरे ही ज्ञाति अर्थात बंधु-बांधव है, और आरक्षण विरोधी भी मेरे ही ज्ञाति हैं। मैं किस का हित और किसका अहित करूं?
आज मां भारती की आंखों में आंसू हैं, और आंसू भी खून के हैं। सर्वत्र आग लग रही है, देश जल रहा है। और ‘नीरो’ 2019 की तैयारी करते हुए आराम से बांसुरी बजा रहा है। 2019 के चुनाव की तैयारी में हर राजनीतिक दल लग गया है, और उसने चुनावी फसल काटने के लिए ‘बैशाखी’ एससी, एसटी वर्ग के आंदोलन को बना लिया है। लगभग एक दर्जन लोगों की बलि लेकर राजनीतिक दलों ने 2019 की तैयारी का आगाज दे दिया है। यह कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि बलि प्रथा की आलोचना करने के उपरांत भी यह प्रथा हमारी रगों में रच- बस गई है, और रह-रहकर उसका प्रमाण देती रहती है। हमने नरमेध या नरबलि की पशु परंपरा को छोड़ा नहीं है, अपितु उसे और भी कसकर पकड़ लिया है। गांधी की कांग्रेस ने हिंसक आंदोलन का समर्थन करने की घोषणा करके सिद्ध कर दिया है कि वह अब गांधी की अहिंसा की परिभाषा को बदल चुकी है। किसी भी राजनीतिक दल ने खुले और कड़े शब्दों में हिंसक आंदोलन की आलोचना नहीं की है, और ना ही मृतकों के परिजनों के प्रति शोक व्यक्त किया है। सचमुच राजनीति इस समय संवेदना शून्य हो चुकी है। सबको वोटों की फसल दिख रही है, और सब का प्रयास है कि वह अपनी ओर से इस फसल को काटने में शीघ्रता दिखाए अन्यथा देर हो जाएगी।
राजनीतिक दल 2019 को लेकर चिंतित थे कि उनके लिए मुद्दा क्या हो? अब विकास को छोड़ इन लोगों ने विनाश को विकास मानकर उसे ही एक मुद्दा बना लिया लगता है। राजनीति का मुख्य उद्देश्य होता है कि देश का विकास कैसे हो?- यह सुनिश्चित किया जाए।
अब हमारे राजनीतिक आचरण से स्पष्ट हो रहा है कि देश का विनाश कैसे हो?- राजनीतिक दल अपनी उर्जा इसी पर व्यय कर रहे हैं। जिस राजनीति को देश की समस्याओं के समाधान के लिए साधनारत होना चाहिए था, वही राजनीति अब समस्याओं पर घी लगा- लगाकर उन्हें अपने गंदे बोलों की हविषा के माध्यम से अग्नि को समर्पित कर रही है, और हम देख रहे हैं कि उनके हर बोल की आहुति के साथ-साथ अग्नि प्रचंड होती जा रही है। 2019 के आम चुनावों की ऐसी वीभत्स तैयारी को देख कर लगता है कि देश के लोकतंत्र को सचमुच बड़ा भारी खतरा है।
ऐसे में मां भारती के आंसुओं को पोंछने की आवश्यकता है। उसके लिए आवश्यक है कि हमारे राजनीतिज्ञ और राजनीतिक दल मीठी वाणी बोलने का अभ्यास करें, उल्टे मंत्र पढऩे की प्राणघातक परंपरा को छोडक़र सकारात्मक सोच का सहारा लें, और देशोन्नति की साधना करें। हमारे राजनीतिज्ञों के लिए नारद एक सांप्रदायिक व्यक्ति हो सकते हैं, क्योंकि वह भगवा चिंतन दे सकते हैं, परंतु ऐसे राजनीतिज्ञों को ध्यान रखना होगा कि चिंतन का कोई रंग नहीं होता है, और ना ही उसका कोई संप्रदाय होता है। वह सबका होता है, और सबका विकास करना उसका लक्ष्य होता है। भीष्म पितामह ने युधिष्ठिर को राजनीति का धर्म बताते हुए कहा था कि युधिष्ठिर! उत्तम गण तभी उन्नति करते हैं, जब वह शास्त्र द्वारा प्रतिपादित धर्म और व्यवहार को कायम रखें, और सब बातों को सही रूप में देखें। गण तभी उन्नति करते हैं, जब उनके कुलनेता अपने-अपने पुत्रों और भाइयों (परिजनों) को नियंत्रण में रखें और उनसे सही काम ले सकें। क्रोध, भेद, दंड, कर्षण, निग्रह और वघ ये ऐसी बातें हैं जिनका यदि गणों में उपयोग किया जाए तो वे शीघ्र ही शत्रुओं के वश में हो जाते हैं, तब गणों में फूट या भेद उत्पन्न होने लगे तो समझदार व्यक्ति को तुरंत ही उसे रोक देना चाहिए। गणों के लिए भीतरी भय ही महत्व का है, शत्रु लोग भेद और धन के प्रदान द्वारा ही गणों को जीतते हैं। अत: संघात ही एक ऐसा उपाय है जो शत्रु विजय में सहायक हो सकता है। देश का संविधान जाति संप्रदाय को घातक मानता है। इसलिए इनसे ऊपर उठने का निर्देश करता है और राजनीति दक्षिण में लिंगायत संप्रदाय को धर्म की मान्यता दे रही है। धर्म को जो लोग अफीम कहते हैं- वही आज धर्म की पीठ सहला रहे हैं। कहीं यह पीठ सहलाना हम में फूट डालना तो नहीं है? इसी प्रकार जाति को लोगों की सोच से बाहर करना जिस राजनीति का धर्म होना चाहिए था- वही राजनीति जाति को हिंसा का आधार बनाकर उसे सडक़ पर नंगा नाच करने के लिए प्रोत्साहित कर रही है, तो कहीं यह भी हमारे बीच विखंडन पैदा करने की शत्रु की चाल तो नहीं है? जनता को ही जागना होगा। राजनीति तो बेशर्म हो चुकी है, नंगी हो चुकी है। मित्रों! बेशर्म और नंगों के हाथों देश को नीलाम मत होने दो, दलित भाईयों के अधिकारों के रक्षक बनो और उनके प्रति अपने कर्तव्य का निर्वाह करो- समस्या का समाधान मिल जाएगा।
लेखक उगता भारत समाचार पत्र के चेयरमैन हैं।