अंग्रेजों ने राष्ट्रवाद और देशभक्ति को भारतीयों से सीखा
आरंभिक दिनों में अंग्रेजों की भारत में स्थिति
प्रो. केडिया की पुस्तक ‘रूट्स ऑफ अण्डर डेवलपमेंट’ से हमें ज्ञात होता है कि जिस समय महारानी एलिजाबेथ के पत्र के साथ उसका प्रतिनिधि अकबर से (सन 1600 ई. में) मिला था, उस समय उसने बादशाह को 29 घोड़े भी उपहार स्वरूप भेंट किये थे। बादशाह ने इस प्रतिनिधिमंडल का अच्छा स्वागत सत्कार भी
किया और अंग्रेजों को व्यापार करने की अनुमति देने हेतु आवश्यक औपचारिकताएं पूर्ण करने को भी कह दिया। परंतु उसके पश्चात बादशाह कुछ ऐसी समस्याओं में फंस गया कि वह अंग्रेजों की ‘इच्छा’ पूर्ण नहीं कर पाया।
1605 ई. में बादशाह अकबर की मृत्यु हो गयी तो उसके पश्चात जहांगीर सिंहासनारूढ़ हुआ। जहांगीर के काल में 24 अगस्त 1606 को विलियम हॉकिंस अपने राजा जेम्स प्रथम के पत्र के साथ बादशाह से मिला। बादशाह ने उसे अपने दरबार में अपने साथ रहने की शर्त पर उसके लोगों को व्यापार करने की अनुमति दे दी।
विलियम हॉकिंस को जहांगीर इंग्लिश खां कहकर बुलाया करता था। इस इंग्लिश खां को बादशाह की सारे दिन बड़ी सेवा और चाटुकारिता करनी पड़ती थी। अंत में 2 नवंबर 1611 ई. को यह इंग्लिश खां इंग्लिस्तान के लिए वापस चला गया।
उस समय जितने यूरोपीयन लोग (डच, फ्रांसीसी, पुर्तगाली, अंग्रेज) भारत में व्यापार के लिए आये थे उन सब में आपस में बड़ा संघर्ष होता था, जिसे भारतीय लोग मनोरंजन के रूप में देखा करते थे। इन्हें हमारे देशवासी क्षत्रिय या राजा न मानकर साधारण व्यक्ति ही माना करते थे। ना ही इनसे भारत के लिए कोई खतरा माना
जाता था। क्योंकि इनमें से किसी का भी उद्देश्य भारत पर शासन करना नहीं था।
ब्रिटिश इतिहासकार सीले ने लिखा है-”भारत में बाद में जो जीत अंग्रेजों को प्राप्त हुई, उसके पीछे कभी भी कोई निश्चित प्रयोजन से किये गये कार्य नहीं थे, और यह विजय संयोग मात्र थी।”
प्रो. केडिया का मत है कि भारत में कंपनी के जो भी गवर्नर आये थे वे सभी बेरोजगार लडक़े होते थे। जिनका कार्य कंपनी का प्रबंधन करना होता था। वह कोई राजपुरूष नहीं होते थे और ना ही उनका उद्देश्य भारत पर शासन करना होता था। क्लाइव भारत के बंगाल प्रांत का गर्वनर माना जाता है, जबकि सच यह था कि वह
बंगाल का गवर्नर न होकर ‘कंपनी का प्रबंधक’ मात्र था। वह एक लिपिक से ऊपर उठकर मैनेजर बना था। उस समय भारत केे लिए ब्रिटेन से जो भी लुटेरे भेजे जाते थे-उन सबके साथ ब्रिटेन के राजा या रानी का यह लिखित अनुबंध होता था कि उन्हें भारत में जो भी ‘लूट का माल’ मिलेगा उसमें राजा या रानी का भी
हिस्सा होगा। अत: भारत में आकर हर व्यक्ति भारत को लूटने का प्रयास करता था क्योंकि लूट उसका धर्म था और उस लूट को ब्रिटेन के राजा ने क्षम्य इसलिए बना दिया था कि उनके द्वारा मचायी गयी लूट में उस राजा का अपना हिस्सा होता था।
यह बड़ा अजीब खेल था जिसमें कर्मचारी अपने आपको भ्रष्ट होकर भी भ्रष्ट नहीं मानता था और राजा उस कर्मचारी को या अधिकारी को उसके मानवपन पर नहीं दानवपन पर पुरस्कृत करता था। भारत के राजा खेल को दूर से देखने के लिए कानून से बंधे थे क्योंकि उन्होंने अपने-अपने राज्यों में इन लुटेरों को व्यापार करने की
अनुमति दे दी थी।
लुटेरा लॉर्ड क्लाइव और अंग्रेजों की सभ्यता
भारत के व्यापारियों और अधिकारियों में यह लूट का कुसंस्कार 17वीं शताब्दी के प्रारंभ में प्रविष्ट हुआ और आज तक जारी है। इस लूट के विरूद्घ ही हमारा स्वतंत्रता संग्राम लड़ा गया, पर व्यवस्था में यह घुन समाप्त नहीं हुआ और वेष बदलकर यह घुन रूपी राक्षस हमें आज तक दुखी कर रहा है।
क्लाइव ने भी बंगाल में जी भरकर लूट मचाई और अपने इसी गुण के कारण वह उन्नति करते-करते कंपनी के प्रबंधक पद पर जा पहुंचा। हम इस लुटेरे को इतिहास में एक महान प्रतिभा संपन्न व्यक्तित्व के रूप में पढऩे के लिए अभिशप्त हैं।
जिन मानवीय दुर्बलताओं को या मानव चरित्र के अवगुणों को भारत ने उच्च संस्कार युक्त मानव समाज के निर्माण के लिए सदा अनुचित माना, उन्हें अंग्रेजों ने (यथा-चोरी, डकैती, हत्या, बलात्कार, शीलहरण, छल कपट, षडय़ंत्र, घात इत्यादि) सभ्यता कहकर सम्मानित किया। यह दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है कि भारत के अधिकांश
इतिहास लेखक इन अवगुणों से युक्त अपने इन अंग्रेज आकाओं को आज तक भारत के लिए आदर्श मानते हैं। प्रो. केडिया का मत है कि भारत में अपने आगमन के 100 वर्षों तक अंग्रेजों को कोई सफलता नहीं मिली और वह केवल मिर्चो का ही व्यापार करते रहे। सच्चिदानंद भट्टाचार्य का मानना है कि मिशनरी उन्माद से भरे
अंग्रेजों के लिए भारत में टॉमस रो ने बड़े यत्न से धंधा जमाया था। उन्होंने जहांगीर के साथ ही विजय नगर राज्य के हिंदू शासकों को भी प्रसन्न कर व्यापार की अनुमति प्राप्त कर ली।
सर टॉमस रो की चालाकी
प्रो. केडिया का मत है कि सर टॉमस रो ने हिंदुस्थान के तत्कालीन बादशाह जहांगीर को अपने बौद्घिक चातुर्य के जाल में फंसाकर 1617-18 ई. में कंपनी का व्यापार बढ़ाने के लिए कुछ विशेषाधिकार प्राप्त कर लिये थे। उसने ही 1640 ई. में विजय नगर साम्राज्य के शासकों के प्रतिनिधि से मद्रास नगर के व्यापार के बारे में
अधिकार प्राप्त किये थे। 1669 से 1677 ई. के मध्य कंपनी ने मुंबई में अपना कारोबार और उसके भवन आदि विकसित किये और तब 1683 ई. में कंपनी का मुख्यालय सूरत से मुंबई लाया गया।
कोलिकाता के विकास की कहानी
आजकल के कोलिकाता शहर की नींव भी इसी काल में पड़ी। कंपनी के एक सेवक जॉब चार्नाक ने बंगाल के नवाब को प्रसन्न कर गंगा की दलदली भूमि में बसे सूतानारी नामक गांव में अपनी फेक्टरी और अपने कार्यालय स्थापित करने की अनुमति प्राप्त कर ली। इसी सूतानारी नामक गांव के साथ कालांतर में कोलिकाता और
गोविन्दपुर नामक गांवों को भी सम्मिलित कर लिया गया। इस प्रकार एक शहर विकसित होने लगा। जिसे हम आजकल कोलिकाता के नाम से जानते हैं।
‘यथा राजा तथा प्रजा’
इस प्रकार हम देखते हैं कि बड़ी चालाकी से अंग्रेजों ने भारत ेंमें अपना व्यापार प्रारंभ किया। उसमें नैतिकता नाम की किसी चीज के लिए कहीं कोई स्थान नहीं था। इसका कारण यही था कि उनके सभी अनैतिक कार्यों को उनके राजा या रानी की खुली सहमति प्राप्त थी। ‘यथा राजा तथा प्रजा’ वाली कहावत चरितार्थ हो
रही थी।
भारत के राजा और नवाब सभी किसी भयावह भविष्य की ओर बढ़ते जा रहे थे। उनको घटनाक्रम की स्वाभाविक दिशा का ज्ञान नहीं हो पा रहा था कि अंतत: हम जा किधर रहे हैं? यह ज्ञात नहीं होता था कि हम स्वयं अंधकार की ओर बढ़ रहे थे या अंधकार स्वयं हमारी ओर बढक़र हमें मिटा देना चाहता था। सब कुछ
अनिश्चितता का एक कारण यह भी था कि अंग्रेजों या अन्य यूरोपीय जातियों ने अपनी कार्यशैली से यह कोई संकेत नहीं दिया था कि व्यापार से अलग उनका कोई अन्य राजनीतिक लक्ष्य भी है।
व्यापारी के रूप में लुटेरे
उस समय राजनीतिक लोग जिस अभियान का नेतृत्व कर रहे होते थे उन्हीं के विषय में यह माना जाया करता था कि ये लोग कोई राजनीतिक उद्देश्य लेकर हमारे देश में आये हैं। अब से पूर्व जो भी हमलावर आये थे उनका नेतृत्व भी किसी राजनीतिक व्यक्ति ने ही किया था। पर यूरोपीय लोगों के साथ ऐसा नहीं था। वह व्यापारी
के रूप में लुटेरे थे, इससे आगे कुछ भी नहीं। यह कहना भी गलत होगा कि यूरोपियन लोग बहुत चालाक-चतुर थे और वह अपने गुप्त एजेंडा को छिपाकर भारत में आये थे। उनका अंतिम लक्ष्य भारत पर शासन करना था। ऐसा कहना भी इन लुटेरों को अपेक्षा से अधिक सम्मान देने के समान होगा। जिसे उचित नहीं कहा जा
सकता। ये लोग भारत में प्रविष्ट हुए और यहां जितना लूटते थे उसके लिए जी भर कर संघर्ष करते थे। अंग्रेजों को रानी ने कह दिया कि जो कुछ भी करना है उसे अपने भरोसे पर करना। हमारी सरकार के भरोसे पर नहीं। ‘लूटो और मौज करो’ यह मेरा आशीर्वाद है।
भारत में राष्ट्रवाद और अंग्रेज
कुछ प्रगतिशील लेखक भारत में राष्ट्रवाद के सूत्रपात को अंग्रेजों की देन बताते नहीं थकते। इसके लिए अंग्रेजों के द्वारा भारत में रेल चलाने, डाक तार आदि की व्यवस्था करने जैसी अंग्रेजों के द्वारा प्रदान की गयी सुविधाओं की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट किया जाता है। इन कथित प्रगतिशील इतिहास लेखकों का कहना है कि
इस प्रकार के कार्यों से भारतीय लोग एक दूसरे के निकट आये और उनमें राष्ट्रवाद की भावना का विकास होने लगा। भारत के समृद्घ सांस्कृतिक इतिहास की समझ न रखने वाले इन लोगों के द्वारा ऐसी मिथ्या और भ्रामक धारणाओं का कल्पित भवन बना लिया गया है।
अब तनिक विचार किया जाए कि भारत को कथित रूप से राष्ट्रवाद का पाठ पढ़ाने वाले अंग्रेजों का अपना भी कोई राष्ट्र था या नहीं? जबकि भारत के विशाल क्षेत्रफल और विपरीत भौगोलिक परिस्थितियों के विपरीत इंग्लैंड का अपना क्षेत्रफल अति लघु है और भौगोलिक परिस्थितियां भी भारत की अपेक्षा विषम नहीं हैं। जॉन ओ
फेरेल (‘एनअटरली इम्पार्शल हिस्ट्री ऑफ ब्रिटेन’ और ‘टू थाउजैंड ईयर्स ऑफ अपर क्लास इडियट्स’) लिखते हैं कि 17वीं शताब्दी तक इंग्लैंड स्वयं में एक राष्ट्र नहीं था। यह (छोटा सा देश) बीस से अधिक टुकड़ों में (रियासतों में) विभक्त था। जिनमें परस्पर युद्घ होते रहते थे। (हमारे राजाओं के परस्पर के युद्घों को
हमारे भीतर राष्ट्रवाद की भावना न होने का प्रमाण मानने वाले लोग तनिक ध्यान दें कि उस समय परस्पर युद्घरत रहकर अपना वर्चस्व स्थापित करने की प्रतिस्पद्र्घा इंग्लैंड में भी थी। यदि उनकी यह भावना उन्हें राष्ट्रवाद में बांधे रख सकती थी तो हमारे राजाओं को भी बांध सकती थी, यह विचार करना अपेक्षित है-लेखक) इन
बीस राजाओं में से इंग्लैंड में छह प्रमुख राजा ऐसे थे-जिनमें से प्रत्येक संपूर्ण इंग्लैंड पर अपना आधिपत्य स्थापित करने के लिए प्रयासरत था। उक्त लेखक का कथन है कि 1688 ई. में इंग्लैंड की संसद ने एक कानून पारित कर प्रोटेस्टेन्ट अंग्रेजों को यह अधिकार दे दिया था कि वह कैथोलिक अंग्रेजों को उनकी तनिक सी भी
अशिष्टता किये जाने पर उसे कठोर दण्ड दे सकता है। उस समय इंग्लैंड की संसद कुछ लॉडर््स, बिशपों तथा कुछ अन्य धनिक लोगों से बनती थी। जनता का प्रतिनिधि उसमें प्रदेश नहीं, पा सकता था। जनसाधारण को पढऩे-लिखने और राजनीतिक गतिविधियों में भाग लेने का अधिकार नहीं था। इसलिए इंग्लिश बहुत थोड़े
लोगों की गंवारू भाषा थी।
अशिक्षित इंग्लैंड
16वीं शताब्दी के प्रारंभ में पादरियों से अलग कुछ अन्य लोगों को पहली बार पढऩे का अधिकार दिया गया। इससे पूर्व उनके पढऩे पर प्रतिबंध था। जबकि भारत तो सृष्टि प्रारंभ से ही मनुष्य को ज्ञान प्राप्त कर मोक्ष पद पाने के लिए विद्या ग्रहण को उसका मौलिक अधिकार घोषित करके चला था। इंग्लैंड में 16वीं 17 वीं शताब्दी
तक भी महिलाओं को पढऩे का अधिकार नहीं था। इतना ही नहीं महिलाओं के विषय में यह धारणा भी रूढ़ थी कि उनमें आत्मा ही नहीं होती।
जिस इंग्लैंड की अपनी यह स्थिति थी वह हमें राष्ट्रवाद का पाठ भला कैसे पढ़ा सकता था? यह तथ्य विचारणीय है। उपरोक्त लेखक के माध्यम से ही हमें यह भी पता चलता है कि 17वीं शताब्दी तक इंग्लैंड की कोई राष्ट्रीय सेना नहीं थी। जागीरदार लोग अपने रक्षक दल स्वयं रखा करते थे और उनकी सेना के लोग दूसरे किसी
जागीरदार से अधिक वेतन का लालच मिलते ही शीघ्रता से अपनी निष्ठा में परिवर्तन कर लिया करते थे। सब कुछ स्वार्थमय था और स्वार्थों की पूत्र्ति के लिए ही लोग परस्पर संघर्ष करते रहते थे। व्यवस्था नाम की कोई चीज इंग्लैंड के जंगली और असभ्य समाज में दूर-दूर तक भी नहीं थी। इसलिए इन लोगों के विषय में यह तथ्य
स्थापित किया जाना चाहिए कि उन्होंने हमें राष्ट्रवाद नहीं सिखाया अपितु उन लोगों ने स्वयं हमसे राष्ट्रवाद सीखा। हमारी देशभक्ति को देखकर हमारे संस्कृति प्रेम और अपने इतिहास के प्रति समर्पण भाव को देखकर उन लोगों ने हमसे बहुत कुछ सीखा। तथ्यों की समीक्षा कर जितनी शीघ्रता से भ्रांत धारणाएं इतिहास के पृष्ठों से
विदा कर दी जाएंगी उतना ही उचित होगा। चोर उचक्के, और लुटेरों की कोई संस्कृति नहीं होती है। जिनके यहां अनैतिकता को भी नैतिकता माना जाता हो, उनका कोई धर्म नहीं होता और जो स्वयं इतिहासबोध नहीं बोध नही रखते वे दूसरों को भी इतिहासबोध नहीं करा सकते।
धर्म, संस्कृति और इतिहास के विध्वंसक अंग्रेज
हिंदुस्थान में अंग्रेजों का आगमन भारत के धर्म संस्कृति और इतिहास को मिटाने के लिए हुआ। वह लुटेरे तो थे ही साथ ही धर्म, संस्कृति और इतिहास के विध्वंसक भी थे। यह प्रसन्नता की बात है कि उनके इस स्वरूप को जब हमारे महान पूर्वजों ने जानना-समझना आरंभ कर दिया तो उनके विरूद्घ भी भारतीय हिंदू लोगों ने
उसी प्रकार मोर्चाबंदी करनी आरंभ कर दी जैसे अब तक वह मुस्लिमों की मोर्चाबंदी करते आ रहे थे।
भारतवासियों के विषय में यूनानी इतिहासकार एरियन ने लिखा था-”इन लोगों में अदभुत वीरता है, युद्घ विद्या में यह सारे एशिया निवासियों से बढक़र हंै। सादगी और सच्चाई के लिए ये विख्यात हैं। ये इतने समझदार हैं कि इन्हें कभी मुकदमेबाजी की शरण नहीं लेनी पड़ती और इतने ईमानदार हैं कि न इन्हें अपने दरवाजे में
ताले लगाने पड़ते हैं और न लेन-देन में इन्हें लिखा पढ़ी की आवश्यकता पड़ती है। कभी भी किसी भारतवासी को झूठ बोलते हुए नहीं सुना गया।”
यह थी अंग्रेजों की भारत को देन
हम इंग्लैंड के संपर्क में आये तो उसने हमें दरवाजों पर ताले लगाने सिखा दिये, लेन-देन में लिखा पढ़ी की आवश्यकता का अनुभव करा दिया और झूठे मुकद्दमों में झूठी गवाही देने दिलाने की परंपरा डालकर न्याय के नाम पर अन्यायकारी न्यायपालिका और सामाजिक व्यवस्था हमें दे दी। इसीलिए एक विदेशी लेखक ई.ए. रास
का कहना बड़ा सटीक है:-”भारतवासियों के उच्चतम जीवन के ऊपर विदेशी शासन का प्रभाव ऐसा ही है जैसे किसी चीज को पाला मार गया हो।”
अंग्रेजों के विषय में यह कहना भी उचित नहीं होगा कि उन्हें अपने शासन की क्रूरता को मुस्लिम बादशाहों से उधार लिया और इसी क्रूरता को भारतीयों पर शासन करने का अपने लिए अचूक उपाय बनाया। इसके विपरीत सच यह है कि क्रूरता और असभ्यता के लिए अंग्रेज पूर्व से ही कुख्यात थे और उन्होंने भारत में आकर जो
कुछ भी किया, उसे उन्होंने विवेक से ही किया।
इतिहास को तोड़-मरोडक़र पेश मत करो
अंग्रेजों को भारत में शासन करने की बात सोचने में लगभग डेढ़ सौ वर्ष का समय लगा। जबकि मान्यता ऐसी है कि अंग्रेज भारत में आये और यहां की राजनीतिक परिस्थितियों को अपने अनुकूल पाकर उन्होंने अपना व्यापारी का भेष बदलकर रातों-रात अपने वस्त्र एक शासक के पहन लिए। ऐसा कहना भी अंग्रेजों की अपेक्षा
से अधिक प्रशंसा करना और तथ्यों को तोड़-मरोडक़र प्रस्तुत करने के समान होगा।
इसके अतिरिक्त यह भी ध्यातव्य है कि अंग्रेजों ने भारत में अपने प्रारंभिक काल में अपने यूरोपियन साथियों से जितने भी संघर्ष किये वे केवल अपने व्यापार की सुरक्षा के लिए थे और भारत के राजाओं या बादशाहों से वह जो भी सुविधा मांगते या प्राप्त करते रहे वह भी केवल अपने व्यापार की सुरक्षा के लिए ही थी।
दूसरे-उन्होंने अपने प्रारंभिक काल में अपने क्षेत्रों में कंपनी के नियम लागू कर शासन किया। इस प्रकार कंपनी के गवर्नर का क्षेत्राधिकार कंपनी से बाहर भी बढऩे लगा। पर यह गवर्नर कंपनी का ही रहा। यह स्वाभाविक होता है कि किसी कंपनी के कर्मियों या उससे प्रभावित लोगों पर उसी कंपनी के गवर्नर का शासन चले।
पर इसका अभिप्राय यह नहीं है कि कंपनी का गवर्नर भारत के किसी प्रांत या किसी क्षेत्र का गवर्नर हो गया था। इसलिए इतिहास में अंग्रेजों के प्रारंभिक काल में नियुक्त किये गये किसी गवर्नर को भारत का गवर्नर माना जाना नितांत भ्रामक और मिथ्या है। ऐसे भ्रामक और मिथ्या इतिहास के कूड़े में हमारे अनेकों देशभक्त हीरे
छुपा दिये गये हैं। जिन्होंने अपनी देशभक्ति के बल पर अंग्रेजों को कभी सुख से नहीं बैठने दिया। जिस दिन अंग्रेजों का एजेंडा भारतीयों को स्पष्ट हो गया कि ये भारत के शासक बनना चाहते हैं, उसी दिन से उनको भारत से भगाने का भारतीयों का एजेंडा भी घोषित हो गया। इसलिए इतिहास का यह रोचक तथ्य होगा कि यह
खोजा जाए कि अंग्रेजों के विरूद्घ पहला स्वातंत्र्य समर 1857 में लड़ा गया या उससे भी पूर्व?
क्रमश: