अखिलेश शुक्ला
राजेंद्र प्रसाद जयंती आज कई दल और संगठन हिंदुओं का हितैषी होने का दावा करते हैं। इस आधार पर वोट मांगते हैं। उन्होंने अपने-अपने नायक भी चुन रखे हैं। लेकिन, हैरानी की बात है कि इनमें से कोई भी दल या संगठन उस पुरोधा की बात नहीं करता, जो आजादी के बाद हिंदू हितों का सबसे बड़ा पैरोकार था। उसने हिंदुओं के हितों पर कुठाराघात करने वाले हर कदम का कड़ा विरोध किया, वह भी एकदम विपरीत परिस्थितियों में। उस शख्स का नाम था- डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद, स्वतंत्र भारत के पहले राष्ट्रपति।
राजेंद्र प्रसाद ने देश के सबसे बड़े संवैधानिक पद पर रहते हुए हमेशा हिंदू और सर्व समाज हित की बात की। जब भी हिंदुओं के अधिकारों पर कैंची चलाने की कोशिश हुई, उन्होंने उसका जोरदार तरीके से विरोध किया। इसी के चलते नेहरू से उनके रिश्ते भी खराब हो गए। दोनों के बीच हिंदू कोड बिल और सोमनाथ मंदिर के उद्घाटन में शामिल होने जैसे कई मुद्दों पर मतभेद थे।
हिंदू कोड बिल पर नेहरू के खिलाफ थे राजेंद्र प्रसाद
हिंदू कोड बिल के मुद्दे पर डॉ प्रसाद और नेहरू के बीच गहरे मतभेद थे। उन्होंने प्रधानमंत्री नेहरू को बतौर राष्ट्रपति एक खत भी लिखा। डॉ प्रसाद का कहना था, ‘मौजूदा प्रतिनिधि सभा देश का सही मायने में प्रतिनिधित्व नहीं करती, क्योंकि इसे जनता ने नहीं चुना है। 1952 में देश में पहले आम चुनाव होंगे, लोकसभा का गठन होगा। उसके सदस्यों को हिंदू कोड बिल के मसौदे पर बात करनी चाहिए।’
डॉ. प्रसाद ने यह भी लिखा कि अगर सरकार को बिल पास करना है, तो सिर्फ हिंदुओं के लिए ही क्यों? वह सभी धर्मों के लिए बिल क्यों नहीं बनाती? हर किसी के लिए विवाह और विरासत के एक जैसे नियम बनाए जाएं। अगर आज के संदर्भों में देखें, तो डॉ प्रसाद की ये बात कॉमन सिविल कोड की प्रस्तावना थी। लेकिन, नेहरू का सेकुलरिज्म बोध यह कहता था कि एक नए बने देश में हिंदू बहुसंख्यकों के मुकाबले अल्पसंख्यकों को अतिरिक्त सेफगार्ड दिए जाने चाहिए। इसलिए उन्होंने डॉ प्रसाद के सुझाव को खारिज कर दिया।
डॉ प्रसाद को सोमनाथ क्यों नहीं जाने देना चाहते थे नेहरू?
दरअसल, नवंबर 1947 में देश के पहले उप-प्रधानमंत्री वल्लभभाई पटेल ने सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण का प्रस्ताव रखा। उन्होंने इस बारे में गांधीजी को पत्र भी लिखा। गांधीजी को भी यह प्रस्ताव काफी पसंद आया, लेकिन उन्होंने सुझाव दिया कि इसके लिए सरकारी खजाने से पैसा खर्च करना ठीक नहीं होगा। ऐसे में मंदिर को चंदा जुटाकर बनवाने का फैसला किया गया। इसके बाद मंदिर में ज्योतिर्लिंग स्थापित करने की बारी आई।
नेहरू का कहना था कि धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के प्रमुख को ऐसे धार्मिक कार्यक्रमों में जाने से बचना चाहिए। लेकिन, डॉ प्रसाद मंदिर में शिव-मूर्ति की स्थापना में बतौर मुख्य अतिथि पहुंचे। उनकी राय नेहरू के ठीक उलट थी। उन्होंने कहा, ‘सेकुलरिज्म का यह मतलब नहीं कि कोई अपने संस्कारों से दूर हो जाए या फिर धर्म का विरोधी हो जाए। धर्मनिरपेक्षता का मतलब सभी धर्मों का आदर करना है, सभी धर्मों का विरोध करना या फिर नास्तिक होना नहीं।’
सरदार पटेल के देहांत के वक्त मंदिर का काम अधूरा था। इसे पूरा कराने का जिम्मा संभाला केएम मुंशी ने। उन्होंने अपनी किताब में लिखा है कि पंडित नेहरू मंदिर का पुनर्निर्माण नहीं चाहते थे, क्योंकि वह इसे ‘हिन्दू पुनरुत्थानवाद’ मानते थे। जब डॉ प्रसाद को उद्घाटन का न्योता आया, तो नेहरू ने उन्हें पत्र भेज कर उद्घाटन समारोह में न जाने की सलाह दी। लेकिन, डॉ प्रसाद ने स्पष्ट कर दिया कि वह मंदिर के उद्घाटन के लिए जाएंगे। उन्होंने यहां तक कह दिया कि किसी मस्जिद-चर्च के लिए भी उन्हें न्योता मिलता, तो भी वह जाते।
जब डॉ प्रसाद उद्घाटन समारोह में जाने पर अड़े रहे, तो नेहरू ने उन्हें एक पत्र लिखा। इसमें कहा गया कि अगर डॉ प्रसाद सोमनाथ जाते हैं, तो यह उनका दौरा निजी होगा। इस पर जो भी रकम खर्च होगी, वह उनके वेतन से काटी जाएगी। नेहरू ने ऑल इंडिया रेडियो के तत्कालीन महानिदेशक को लिखित रूप से यह आदेश दिया कि सोमनाथ मंदिर से संबंधित कोई भी समाचार रेडियो से प्रसारित न किया जाए। नेहरू के इन दोनों पत्रों की मूल कॉपी भारतीय अभिलेखागार में आज भी सुरक्षित है।
इन सबके बावजूद डॉ राजेन्द्र ने सोमनाथ जाने का फैसला नहीं बदला। उन्होंने मंदिर में शिवलिंग की स्थापना की, लेकिन सरकारी ऑल इंडिया रेडियो ने इस समारोह के बारे में कोई भी समाचार प्रसारित नहीं किया।
क्या नेहरू ने डॉ प्रसाद की उपेक्षा की(Why Nehru dislike Rajendra Prasad)?
नेहरू डॉ प्रसाद को सोमनाथ जाने से रोक नहीं पाए। इससे दोनों के रिश्ते काफी खराब हो गए। अरबपति कारोबारी और पूर्व राज्यसभा सांसद रवींद्र किशोर सिन्हा (आरके सिन्हा) ने अपनी किताब- ‘बेलाग लपेट’ में डॉ प्रसाद के आखिरी दिनों का जिक्र किया है। उन्होंने लिखा है कि जब राजेंद्र प्रसाद पटना जाकर रहने लगे, तो नेहरू ने उनके लिए एक सरकारी आवास तक की व्यवस्था नहीं की। वह सदाकत आश्रम स्थित बिहार विद्यापीठ में एक सीलन वाले कमरे में रहते थे। दमा के रोगी थे, लेकिन उनकी सेहत का भी कोई ख्याल नहीं रखा गया।
उसी दौरान मशहूर स्वतंत्रता सेनानी जयप्रकाश नारायण उनसे मिलने पहुंची। उनसे डॉ प्रसाद की हालत देखी गई। उन्होंने अपने सहयोगियों से मिलकर उनके कमरे को किसी तरह रहने लायक बनवाया। उसी कमरे में डॉ प्रसाद ने अपनी आखिरी सांस ली, 28 फरवरी 1963 को। डॉ प्रसाद देश के पहले राष्ट्रपति होने के साथ दिग्गज स्वतंत्रता सेनानी भी थे। फिर भी नेहरू उनके अंतिम संस्कार में शामिल नहीं हुए। वह उस दिन जयपुर में एक छोटे से कार्यक्रम में शिरकत कर रहे थे।
उस वक्त संपूर्णानंद राजस्थान के राज्यपाल थे। उनकी बड़ी इच्छा थी कि वह डॉ प्रसाद की अंत्येष्टि में शामिल होने पटना जाएं। लेकिन नेहरू ने उन्हें यह कहते हुए रोक दिया कि प्रधानमंत्री के दौरे में राज्यपाल ही नदारद रहेगा, तो यह ठीक नहीं होगा। संपूर्णानंद ने खुद इसका खुलासा किया। उनका कहना था कि नेहरू के डर से बिहार के कई बड़े नेताओं ने राजेंद्र बाबू के अंतिम दर्शन नहीं किए। डॉ राधाकृष्णन को भी नेहरू ने पटना न जाने की सलाह दी थी, लेकिन वह नहीं माने।
आरके सिन्हा अपनी किताब लिखते हैं कि पटना में राजेंद्र बाबू के साथ बेरुखी वाला व्यवहार होना और उन्हें मामूली स्वास्थ्य सुविधाएं तक न मिलना, ये सब केंद्र के इशारे पर हुआ। कफ निकालने वाली एक मशीन उनके कमरे में थी, जिसे राज्य सरकार ने पटना मेडिकल कॉलेज में भिजवा दिया। देश की आजादी के लिए खून-पसीना एक करने वाले राजेंद्र बाबू खांसते-खांसते चल बसे।