कानून की असभ्यता
यह कितना रोचक तथ्य है कि आज का कानून दंड देते समय सबको समान समझने की डींगें तो मारता है पर दंड देते समय ऊंची पहुंच वाले या शक्ति संपन्न व्यक्ति को कम दंड देता है और जिसके पास कानून को समझने की शक्ति नहीं, उसे दंड अधिक देता है। आज का कानून या न्याय व्यवस्था कानून के समक्ष सबको समान समझने की डींगें तो मारती है पर व्यवहार में ऐसा कर नहीं पाती। आज की कानून की इसी प्रकार की दोरंगी नीति के कारण समाज में तनाव का वातावरण है। दोषी सजा से मुक्त हो रहे हैं और निर्दोष कई बार फांसी पर चढ़ते देखे जाते हैं। कई बार ऐसा भी देखा जाता है कि जब एक निर्दोष वर्षों तक न्यायालयों में घसीटा जाता रहता है और उसके जीवन के मूल्यवान 20 - 25 वर्ष व्यतीत हो जाने के पश्चात यह निश्चित होता है कि उसे किसी दूसरे पक्ष के द्वारा अनावश्यक ही न्यायालयों में घसीटा गया था। तब जाकर उसे न्यायालय से मुक्त किया जाता है। अब यह कौन समझाए कि एक निर्दोष व्यक्ति को यदि कानून ने 20 या 25 वर्ष तक अनावश्यक न्यायिक प्रक्रियाओं में घसीटा तो उस व्यक्ति को जो कष्ट हुआ उस कष्ट की क्षतिपूर्ति कौन और कैसे करेगा ? जब सभ्य समाज की बात की जाती हैं तो क्या सभ्य समाज कानून की ऐसी असभ्यता को सहन करेगा ?
वैसे प्राचीन भारत की न्याय व्यवस्था के दृष्टिकोण से देखें तो कानून के समक्ष सब समान नहीं होते बल्कि बौद्धिक स्तर के अनुसार उनकी ऊंचाई निचाई होती है। प्राचीन भारत की विधि व्यवस्था बौद्धिक स्तर में ऊंचे को अधिक दंड देती है और नीचे को कम दण्ड देती है। आज इण्डिया में न्याय की देवी अंधी हो सकती है, पर भारत की विधि की देवी अंधी नहीं थी। वह आंख खोलकर पूर्ण विवेक के साथ न्याय करती थी। इसी प्रकार के मूल्यों से भारत की राजनीति प्रेरित होती थी। संचालित और मर्यादित होती थी। उसी से इतिहास के मूल्य निर्धारित होते थे। इतिहास उन मूल्यों पर इतराता था। कानून की अंधी देवी आज अंधी होकर निर्दोषों को यदि दंड दे रही हो तो इसमें कोई बुरी बात नहीं है। जब आज के समाज ने ही कानून और कानून की देवी को अंधा मान लिया है तो न्याय की अपेक्षा कैसे की जा सकती है?
इसी प्रकार के मूल्यों का समर्थन करते हुए स्वामी जी अमर ग्रंथ सत्यार्थ प्रकाश के छठे समुल्लास में यह भी लिखते हैं कि “वैसे ही जो कुछ विवेकी होकर चोरी करे उस शूद्र को चोरी से आठ गुणा, वैश्य को सोलह गुणा, क्षत्रिय को बत्तीस गुणा।”
“ब्राह्मण को चौसठ गुणा वा सौ गुणा अथवा एक सौ अट्ठाईस गुणा दण्ड होना चाहिये अर्थात् जितना जितना ज्ञान और जितनी प्रतिष्ठा अधिक हो उस को अपराध में उतना हीे अधिक दण्ड होना चाहिए।”
व्यभिचार के मामलों में सजा
व्यभिचार को रोकने के लिए मनु महाराज ने स्त्री पुरुष दोनों के लिए ही कठोर विधि की व्यवस्था की है। उस व्यवस्था को यदि आज लागू कर दिया जाए तो निश्चय ही समाज में व्यभिचार जैसे कुकर्म से मुक्ति मिल सकती है। स्वामी जी महाराज इस बात के भी समर्थक रहे कि चाहे गुरु हो, चाहे पुत्रादि बालक हों, चाहे पिता आदि वृद्ध, चाहे ब्राह्मण और चाहे बहुत शास्त्रें का श्रोता क्यों न हो, जो धर्म को छोड़ अधर्म में वर्त्तमान, दूसरे को विना अपराध मारनेवाले हैं उन को विना विचारे मार डालना अर्थात् मार के पश्चात् विचार करना चाहिये।
इसका कारण बताते हुए स्वामी जी यह भी स्पष्ट करते हैं कि “दुष्ट पुरुषों के मारने में हन्ता को पाप नहीं होता, चाहे प्रसिद्ध मारे चाहे अप्रसिद्ध, क्योंकि क्रोधी को क्रोध से मारना जानो क्रोध से क्रोध की लड़ाई है।”
जिस राजा के राज्य में शांति व्यवस्था होती है अर्थात जिस राजा के राज्य में चोर , परस्त्रीगामी, दुष्ट वचन बोलने वाला, साहसिक डाकू आदि नहीं होते, वही राजा उत्तम माना जाता है। कहने का अभिप्राय है कि राजा को अपनी उत्तमता सिद्ध करने के लिए इसी प्रकार की शांति व्यवस्था स्थापित करनी चाहिए। जिस राजा के राज्य कर्मचारी, अधिकारी या राजा स्वयं अनाचारी, व्यभिचारी, पापाचारी लोगों को प्रोत्साहित करता है या उनके समक्ष आत्मसमर्पण कर देता है या उनके दमन के प्रति किसी प्रकार का प्रमाद बरतता है वह राजा राजा होकर भी राजा नहीं होता। उसके राज्य में अराजकता व्याप्त हो जाती है और सर्वत्र अनुशासनहीनता देखने को मिलती है। राजा और न्यायाधीशों को स्वयं मर्यादाओं का पालन करना चाहिए। यदि वे स्वयं कुकर्मी हो जाएंगे या अपने धर्म के प्रति प्रमादी हो जाएंगे तो इससे राष्ट्र में अशांति व्याप्त हो जाएगी। यदि राजा कुकर्मी हो और देश का न्यायाधीश भी ऐसे ही आचरण को करने वाला हो तो उसे प्रजाजन दण्ड देने के अधिकारी होते हैं।
कड़ा दंड और मानवाधिकारवादी संगठन
आजकल ऐसे बहुत से मानवाधिकारवादी संगठन देश और संसार में काम कर रहे हैं जो कड़े दंड को अमानवीय बताते हैं। वास्तव में ऐसे मानवाधिकार संगठन या व्यक्ति समाज और संसार में पापाचरण को बढ़ाने में ही सहायता कर रहे हैं। क्योंकि यह संगठन या व्यक्ति उन लोगों के अधिकारों का समर्थन करते हैं जो दूसरों के अधिकारों का हनन करते हैं। जिन लोगों ने दूसरे शांति प्रिय लोगों के अधिकारों का अतिक्रमण किया है या जिन्होंने दूसरे लोगों के जीने के अधिकार को समाप्त किया है, उनके अधिकारों पर प्रतिबंध लगाना या दंड देकर उनके अधिकारों को पूर्णतया समाप्त करना विधिक व्यवस्था और राज्य – व्यवस्था का सबसे बड़ा धर्म है। ऐसे में इस प्रकार के मानवाधिकारवादी संगठनों या व्यक्तियों पर कार्यवाही होनी चाहिए और राज्य- व्यवस्था को ऐसे संगठनों पर प्रतिबंध लगाना चाहिए। हां, यदि यह संगठन किसी पीड़ित व्यक्ति के अधिकारों का समर्थन करते हैं और उसे न्याय दिलाने के लिए अपनी सक्रिय भूमिका का निर्वाह करते हैं तो इन्हें काम करने की अनुमति दी जा सकती है । पर डकैत, आतंकवादी या देश – धर्म और संस्कृति के विनाश करने वाले लोगों के समर्थन में जब ये उतरते हैं तो माना जाना चाहिए कि उस समय ये देश ,धर्म और समाज के सबसे बड़े शत्रु होते हैं।
कड़े दंड की इस व्यवस्था के भारत के इतिहास के मूल्य को हमें समझना चाहिए। इस संदर्भ में हमें यह भी समझना चाहिए कि राज्य व्यवस्था तब से ही लागू हुई जब समाज और राष्ट्र में आतंकवादी लोगों ने कानून व्यवस्था में विश्वास रखने वाले लोगों का जीना कठिन कर दिया था। उन आततायी, आतंकवादी लोगों के विनाश के लिए राज्य- व्यवस्था अस्तित्व में आई ना कि उनके संरक्षण के लिए। महर्षि मनु से लेकर श्रीराम और श्रीकृष्ण तक हमारे प्रत्येक महापुरुष ने इतिहास के इसी मूल्य का सम्मान करते हुए कार्य किया है। इसलिए उनकी कार्यशैली को अपनाकर काम करना समय की आवश्यकता है।
क्या कड़ा दंड नहीं होना चाहिए ?
स्वामी दयानंद जी महाराज छठे समुल्लास के अंत में एक प्रश्न करते हैं कि यह कड़ा दण्ड होना उचित नहीं, क्योंकि मनुष्य किसी अंग का बनानेहारा वा जिलानेवाला नहीं है, इसलिये ऐसा दण्ड न देना चाहिये ?
अपने इस प्रश्न का स्वामी दयानंद जी महाराज ने बड़ा सटीक उत्तर दिया है। जिसे आज के तथाकथित मानवाधिकारवादियों को भी समझना चाहिए। वह कहते हैं कि “जो इस को कड़ा दण्ड जानते हैं वे राजनीति को नहीं समझते, क्योंकि एक पुरुष को इस प्रकार दण्ड होने से सब लोग बुरे काम करने से अलग रहेंगे और बुरे काम को छोड़कर धर्ममार्ग में स्थित रहेंगे। सच पूछो तो यही है कि एक राई भर भी यह दण्ड सब के भाग में न आवेगा। और जो सुगम दण्ड दिया जाय तो दुष्ट काम बहुत बढ़कर होने लगें। वह जिस को तुम सुगम दण्ड कहते हो वह क्रोड़ों गुणा अधिक होने से क्रोणों गुणा कठिन होता है क्योंकि जब बहुत मनुष्य दुष्ट कर्म करेंगे तब थोड़ा-थोड़ा दण्ड भी देना पड़ेगा अर्थात् जैसे एक को मन भर दण्ड हुआ और दूसरे को पाव भर तो पाव भर अधिक एक मन दण्ड होता है तो प्रत्येक मनुष्य के भाग में आध पाव बीस सेर दण्ड पड़ा तो ऐसे सुगम दण्ड को दुष्ट लोग क्या समझते हैं? जैसे एक को मन और सहस्र मनुष्यों को पाव-पाव दण्ड हुआ तो ६। सवा छः मन मनुष्य जाति पर दण्ड होने से अधिक और यही कड़ा तथा वह एक मन दण्ड न्यून और सुगम होता है। जो लम्बे मार्ग में समुद्र की खाड़ियां वा नदी तथा बड़े नदों में जितना लम्बा देश हो उतना कर स्थापन करे और महासमुद्र में निश्चित कर स्थापन नहीं हो सकता किन्तु जैसा अनुकूल देखे कि जिस से राजा और बड़े-बड़े नौकाओं के समुद्र में चलाने वाले दोनों लाभ युक्त हों वैसी व्यवस्था करे। परन्तु यह ध्यान रखना चाहिये कि जो कहते हैं कि प्रथम जहाज नहीं चलते थे, वे झूठे हैं। और देश-देशान्तर द्वीप-द्वीपान्तरों में नौका से जानेवाले अपने प्रजास्थ पुरुषों की सर्वत्र रक्षा कर उन को किसी प्रकार का दुःख न होने देवे।”
डॉ राकेश कुमार आर्य
मेरी यह पुस्तक डायमंड बुक्स नई दिल्ली के द्वारा प्रकाशित हुई है । जिसका अभी हाल ही में 5 अक्टूबर 2000 22 को विमोचन कार्य संपन्न हुआ था। इस पुस्तक में सत्यार्थ प्रकाश के पहले 7 अध्यायों का इतिहास के दृष्टिकोण से विश्लेषण किया गया है। पुस्तक में कुल 245 स्पष्ट हैं। पुस्तक का मूल्य ₹300 है।
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