स्रोत- शांति धर्मी मासिक पत्रिका नवंबर संपादकीय 2022 अंक।
प्रस्तोता- आर्य सागर
भाषा संस्कृति का आधार होती है क्योंकि संस्कृति के प्रवाह की तरह पूर्वजों द्वारा अर्जित ज्ञान की भी मनुष्य तक पीढी दर पीढ़ी अपनी भाषा के माध्यम से पहुंचता है। संस्कृत साहित्य में हमारे प्रज्ञावान् पूर्व पुरुषों का सर्वोच्च ज्ञान और संस्कार सन्निहित है। जब संस्कृत बोलचाल की भाषा नहीं रही तो वह लोग उस संस्कृत के ज्ञान को लोगों तक पहुंचाने के लिए जिस रूप में उसका अनुवाद या व्याख्या करते थे, उसे भाषा ही कहते थे। संस्कृत से ही सभी भाषाओं की विकृति के क्रम में हिंदी का निर्माण भी हुआ। भाषा कहते कहते इसे कब हिंदी कहा जाने लगा? जब से आर्यों को हिंदू आर्यवर्त को हिंदुस्तान और आर्यों की भाषा को हिंदीवी कहा जाने लगा। एक जानकारी के अनुसार इस भाषा के लिए हिंन्दवी शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम अमीर खुसरो ने किया जो अजमेर के ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती के शिष्य थे। यह तो निश्चय है कि यह नाम भारतीयों के दिए हुए नहीं है प्रयोग के आधार पर ही नाम प्रचलित होते हैं। भाषा शब्द के प्रयोग के क्रम में स्वामी दयानंद ने इसके लिए आर्यभाषा शब्द का प्रयोग किया। आर्यों द्वारा बोले जाने वाली भाषा। हिंदी दिवस के उपलक्ष में हिंदी आर्य भाषा के संदर्भ में स्वामी दयानंद के योगदान की चर्चा नहीं की जाती है। स्वामी दयानंद की सोच यही थी कि एक बहुत बड़ा वर्ग शताब्दियों से भाषा के कारण अपने पैतृक ज्ञान से वंचित है। स्वामी दयानंद पहले व्यक्ति हैं जिन्होंने विश्व के सर्वप्रथम और सर्वमान्य ग्रंथ वेद का भाषा -भाष्य अर्थात हिंदी अनुवाद प्रस्तुत किया। बहुत कम पाठकों को जानकारी होगी कि कुरान के प्रथम हिंदी अनुवाद कराने का श्रेय भी स्वामी दयानंद को ही जाता है उन्होंने बनारस से लेकर लाहौर और मुंबई तक सर्वत्र हिंदी का ही व्यवहार किया जिस गति और संख्या में लोगों ने उनके विचारों को ग्रहण किया उससे यह प्रमाणित हो गया कि हिंदी ही भारत को एक सूत्र में पिरो सकने वाली भाषा है। स्वामी दयानंद ने अन्य क्षेत्रों के साथ-साथ भाषा के क्षेत्र में भी क्रांति उत्पन्न कर दी। गुजराती भारतीय मूल का होते हुए भी जब हिंदी का प्रयोग किया तब हिंदी (1863) की स्थिति सर्वथा भिन्न थी उसमें ब्रज और अवधि का अत्यधिक प्रभाव था। एक और संस्कृत का पठन-पाठन कम हो रहा था दूसरी ओर अंग्रेजी फारसी जैसी बोझिल भाषा थी जिसे पूरे देश के लोग समझ नहीं पा रहे थे। स्वामी दयानंद ने आर्य भाषा को नई दिशा दी उनका अपना मुहावरा और अपनी शैली थी। स्वयं संस्कृत निष्णात होते हुए भी आर्य भाषा को अपने विचारों के प्रचार का माध्यम बनाया। ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ में आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इस तथ्य को स्वीकार किया है। वे लिखते हैं ‘कि स्वामी दयानंद में नव शिक्षित युवाओं के बीच घूम -घूम कर व्याख्यान देना शुरू कर दिया। संवत 1920 वे व्याख्यान नई तरह की बहुत अच्छी और साधु भाषा में होते थे उन्होंने सत्यार्थ प्रकाश इसी भाषा में लिखा। सत्यार्थ प्रकाश भले ही 1883 में छापा हो लेकिन आज की हिंदी उसी से अपनी प्रेरणा पाती है’।
वस्तुतः सार निष्कर्ष यह निकलता है हिंदी साहित्य जगत जिसे भारतेंदु युग कहता है उसे वस्तुतः दयानंद युग कहना चाहिए।
14 सितंबर 1949 को हिंदी को राजभाषा बनाने की गोपाल स्वामी आयंगर, के एम मुंशी , डॉक्टर भीमराव अंबेडकर के प्रस्ताव के साथ ही लॉर्ड मेकाले के मानस पुत्रों ने हिंदी को सन्देह और विवाद की भाषा बनाने का कार्य अनायास ही शुरू कर दिया था। हिंदी में शब्दों की कमी है व्यवहार की भाषा बनाने में अनेक तरह की अडचने हैं आदि आदि आछेप लगाए गए हिंदी पर
मैकाले की मनोकामना पूरी हो रही थी कि हिंदी के सर्व सुलभ और सहज स्वभाव ने उसे विश्व की लोकप्रिय भाषा में उचित स्थान पर खड़ा कर दिया। आज सरकारी प्रयासों के नगण्य होने पर भी हिंदी कामकाज सहित सभी क्षेत्र में विश्व की सर्वाधिक लोकप्रिय भाषाओं में से एक बन गई है। आज हिंदी बाजार की एक आवश्यकता बन गई है यदि इसे प्रोत्साहन दिया जाए तो यह और इसका साहित्य मानव उत्थान के सांस्कृतिक क्षेत्र में भी अपना दायित्व निभा सकता है।