सत्यार्थ प्रकाश में इतिहास विर्मश ( एक से सातवें समुल्लास के आधार पर) अध्याय – 26 ( क ) कड़े दंड का प्रावधान
कड़े दंड का प्रावधान
मुसलमानों की शरिया में कई प्रावधान ऐसे हैं जो अपराधी को दंड देने में भारत की न्यायिक प्रक्रिया की नकल करते देखे जाते हैं । यदि नाबालिग के साथ बलात्कार किया जाता है तो ऐसे अपराध को बहुत संगीन अपराध के रूप में शरीयत मान्यता देता है। शरीयत में प्रावधान है कि ऐसे अपराधी को सार्वजनिक स्थान पर ले जाकर उसका सबके सामने सिर कलम कर दिया जाए। इस कानून के अनुसार चोरी करने के आरोप में अपराधी के हाथ काट दिये जाते हैं। अपने पति से पत्नी के संबंध ना रखने पर महिला को पत्थरों से मार-मार कर जान लेने की सजा दी जाती है। शरीरत कानून के अनुसार स्त्रियों द्वारा पुरुषों का अपमान करने पर 70-100 कोड़े मारने की सजा भी दी जाती है।
भारतवर्ष में अब ऐसे बहुत से हिंदूवादी संगठन हैं जो शरीयत के कानून को शरीयत को मानने वालों पर लागू करने की मांग करने लगे हैं। उनका तर्क है कि जो लोग इस कानून को अपना पर्सनल ला कहकर लागू करवाने की मांग करते हैं उनकी यह मांग सरकार को स्वीकार करनी चाहिए। इसके पीछे उनका तर्क होता है कि यदि शरिया को लागू कराने की मांग करने वाला समाज अपराध को रोकने के लिए अपराधी को कठोर दंड देने का पक्षधर है तो इसमें कोई बुरी बात नहीं है।
इस संदर्भ में यह भी सत्य है कि संपूर्ण विश्व की न्याय व्यवस्था किसी ना किसी प्रकार से भारत की न्याय व्यवस्था की ऋणी है। जिस अंग से किसी अपराधी ने कोई अपराध किया है उसका वही अंग काट दिया जाए, ऐसी व्यवस्था भारत के न्याय शास्त्रों में विशेष रूप से महर्षि मनु की मनुस्मृति में उपलब्ध है।
यद्यपि मुसलमानों के अत्याचारी क्रूर बादशाहों के द्वारा इस प्रकार के दंड को कितनी ही बार ऐसे लोगों को दिया गया जो दंड के पात्र नहीं थे। उन बादशाहों ने काफिरों को ( भारत के संदर्भ में कहें तो हिंदुओं को ) अपनी ऐसी सजाओं का पात्र बनाया। अतः शरिया के यह प्रावधान अपराधियों पर लागू न होकर के निरपराध लोगों पर लागू हुए। यही कारण है कि लोग शरिया की ऐसी व्यवस्था को अमानवीय और पाशविक कहकर संबोधित करने लगे। यद्यपि भारतवर्ष का मुसलमान शरिया को लागू करवाने की मांग करते समय यही सोचता है कि इसके अनुसार दंड देने की व्यवस्था यदि लागू की गई तो यह अब भी काफिरों पर ही कहर बरसाएगी।
सभ्य समाज का कानून
आज ऐसे कानूनों को लोग पसंद नहीं करते और उनका यह कहकर तिरस्कार करते हैं कि सभ्य समाज में इस प्रकार के कानूनों की कोई जगह नहीं है। हम भी इस बात से सहमत हैं कि सभ्य समाज के लिए ऐसे कानून लागू नहीं होने चाहिए। हमारे ऋषि-मुनियों ने ऐसे विधि-विधानों को सभ्य समाज के लिए बनाया भी नहीं था । उन्होंने असभ्य, क्रूर , निर्दयी और समाज के लिए आतंकवादी बन चुके लोगों के विनाश के लिए ऐसी व्यवस्थाएं की थीं। जब किसी व्यक्ति को ऐसी सजा दी जाती थी तो उससे पहले उसका निष्पक्ष परीक्षण होता था। निष्पक्ष परीक्षण के उपरांत ही उसे दंड का पात्र घोषित किया जाता था। उस समय के सभ्य समाज में या ऋषि समाज में ऐसी सजाओं का स्वागत किया जाता था। इसका कारण केवल यह था कि तब ऐसी सजाएं केवल और केवल अपराधी को ही दी जाती थीं। इस प्रकार की सजाओं को देने के पीछे का कारण यह होता था कि इससे अन्य लोगों को यह शिक्षा मिलती थी कि वह अपराध और अपराध की दुनिया से बचकर रहें।
राजा निष्पक्ष होकर दंड दे
स्वामी जी महाराज इस प्रकार की दंड व्यवस्था का समर्थन करते हुए लिखते हैं कि "चोर जिस प्रकार जिस-जिस अंग से मनुष्यों में विरुद्ध चेष्टा करता है उस-उस अंग को सब मनुष्यों की शिक्षा के लिये राजा हरण अर्थात् छेदन कर दे।"
राजा को निष्पक्ष होकर दंड देना चाहिए। इसके साथ-साथ उससे यह भी अपेक्षा की जाती है कि वह दंड देते समय अपराध की प्रकृति के अनुसार ही दंड का निर्धारण करे। आज के संविधान और कानूनी व्यवस्था का सबसे बड़ा दोष यह है कि इसमें जनप्रतिनिधियों के लिए किसी प्रकार के दंड का विधान नहीं है । कानूनों को पढ़ते समय ऐसा लगता है कि जैसे शासन में बैठे लोग मनुष्य नहीं देवता हैं। भारतवर्ष में ऐसी अवधारणा मुस्लिम और ब्रिटिश शासन काल में स्थापित की गई। जब शासन में बैठे लोगों को पूर्णतया निरपराध माना जाता था और ऐसा स्थापित किया जाता था कि जैसे वे कानून से ऊपर हैं। इस प्रकार शासन में बैठे लोगों को निरपराध समाज के लोगों पर अत्याचार करने का कानूनी माध्यम मिल जाता था।
जिनसे किसी भी प्रकार की गलती की अपेक्षा नहीं की जा सकती।
हमारे देश के विधि विशेषज्ञों की प्राचीन काल से ही यह विशेषता रही कि उन्होंने राजा के लिए भी दंड का विधान किया। साथ ही राजा से यह अपेक्षा भी की कि वह दंड देते समय किसी भी स्थिति में पक्षपाती न बने। उसे कठोरता का पालन करते हुए समाज विरोधी लोगों का दमन करना चाहिए। स्वामी दयानंद जी महाराज ने इसी प्रकार की व्यवस्था का समर्थन करते हुए लिखा है कि “चाहे पिता, आचार्य, मित्र, माता, स्त्री, पुत्र और पुरोहित क्यों न हो जो स्वधर्म में स्थित नहीं रहता वह राजा का अदण्ड्य नहीं होता अर्थात् जब राजा न्यायासन पर बैठ न्याय करे तब किसी का पक्षपात न करे किन्तु यथोचित दण्ड देवे।”
यथोचित दंड देने से ईश्वर के निष्पक्ष और निष्पाप स्वरूप के दर्शन राजा और न्यायाधीश में होते हैं। राजा को अपनी सर्वग्राह्यता सिद्ध करने के लिए निष्पक्ष और निष्पाप होना ही चाहिए।
कैसा हो दंड का विधान ?
स्वामी दयानन्द जी ने और भी अधिक स्पष्ट करते हुए हमें बताया है कि "जिस अपराध में साधारण मनुष्य पर एक पैसा दण्ड हो उसी अपराध में राजा को सहस्र पैसा दण्ड होवे अर्थात् साधारण मनुष्य से राजा को सहस्र गुणा दण्ड होना चाहिये। मन्त्री अर्थात् राजा के दीवान को आठ सौ गुणा उससे न्यून सात सौ गुणा और उस से भी न्यून को छः सौ गुणा इसी प्रकार उत्तर-उत्तर अर्थात् जो एक छोटे से छोटा भृत्य अर्थात् चपरासी है उस को आठ गुणे दण्ड से कम न होना चाहिये। क्योंकि यदि प्रजापुरुषों से राजपुरुषों को अधिक दण्ड न होवे तो राजपुरुष प्रजा पुरुषों का नाश कर देवे, जैसे सिह अधिक और बकरी थोड़े दण्ड से ही वश में आ जाती है। इसलिये राजा से लेकर छोटे से छोटे भृत्य पर्य्यन्त राजपुरुषों को अपराध में प्रजापुरुषों से अधिक दण्ड होना चाहिये।"
स्वामी जी महाराज के इस उदाहरण से स्पष्ट है कि प्राचीन काल में मनुस्मृति जैसे संविधान के द्वारा जब देश शासित होता था तो उस समय चाहे राजा हो ,चाहे ब्राह्मण हो, चाहे कोई अन्य हो, सभी दंड के पात्र थे। अपराधी अपराधी है। फिर वह चाहे किसी भी बड़े से बड़े पद पर क्यों नहीं बैठा हो। बड़े पद पर बैठने का अभिप्राय यह नहीं है कि व्यक्ति अपराधी नहीं हो सकता। प्राचीन काल में हमारा विधि-विधान इसी मान्यता के आधार पर चलता था।जो व्यक्ति जितना अधिक विवेकशील माना जाता था या जितने अधिक महत्वपूर्ण स्थान पर विराजमान होता था, वह उतना ही अधिक दंड का पात्र होता था।
कारण केवल एक था कि राजा ,मंत्री या उसके अधिकारीगण या कोई ब्राह्मण अथवा पूर्णतया शिक्षित व्यक्ति से यह अपेक्षा की जाती थी कि वह विधिक अर्थात नैतिक व्यवस्था को भली प्रकार जानता है। स्पष्ट है कि जो व्यक्ति जानबूझकर किसी अपराध को करता है या गलती को करता है ,वह दंड का अधिक पात्र है।
शूद्र को कम दंड देने का कारण
उस समय विधिक व्यवस्था का अभिप्राय नैतिक व्यवस्था तथा धर्म की व्यवस्था से होता था। धर्म के सूक्ष्म नियमों और तत्वों को विवेकशील लोग भली प्रकार समझते रहे हैं, ऐसे में यदि वह भी कोई गलती करते हैं या अपराध करते हैं तो माना जाना चाहिए कि उन्होंने पूर्ण होशोहवास में ऐसा कार्य किया है। यही कारण था कि ऐसे विवेकशील व्यक्ति या व्यक्तियों को अधिक दंड का पात्र माना जाता था। शूद्र से यह अपेक्षा नहीं होती थी कि वह धर्म के सूक्ष्म तत्वों को या नैतिक व्यवस्था को या विधिक व्यवस्था को जानता समझता होगा। यही कारण था कि किसी राजा या ब्राह्मण की अपेक्षा उसे कम दंड दिया जाता था। वास्तव में यही व्यवस्था न्यायपरक है।
आज का कानून यह मानकर चलता है कि उसके अस्तित्व में आते ही उससे सब का परिचय हो गया अर्थात उसे सब जान गए। जबकि भारत की प्राचीन न्याय व्यवस्था इस आधार पर कार्य करती थी कि जैसा व्यक्ति का बौद्धिक स्तर है उससे नैतिक व्यवस्था को जानने समझने के संदर्भ में भी वैसी ही अपेक्षा करनी चाहिए। उस समय माना यह जाता था कि कोई शूद्र या पूर्णतया अनपढ़ व्यक्ति विधिक व्यवस्था के विषय में उतना नहीं जानता जितना कोई ब्राह्मण जानता है या शासकीय वर्ग का व्यक्ति जानता है। अतः विधि अथवा कानून की नजर में वह कम दंड का पात्र माना जाता था।
डॉ राकेश कुमार आर्य
मेरी यह पुस्तक डायमंड बुक्स नई दिल्ली के द्वारा प्रकाशित हुई है । जिसका अभी हाल ही में 5 अक्टूबर 2000 22 को विमोचन कार्य संपन्न हुआ था। इस पुस्तक में सत्यार्थ प्रकाश के पहले 7 अध्यायों का इतिहास के दृष्टिकोण से विश्लेषण किया गया है। पुस्तक में कुल 245 स्पष्ट हैं। पुस्तक का मूल्य ₹300 है।
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