भारत के श्री प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इंडोनेशिया सहित तीन देशों की यात्रा कर लौटे हैं। हम इस आलेख में उनकी इंडोनेशिया यात्रा पर ही केंद्रित रहेंगे। इंडोनेशिया का मूल नाम हिन्देशिया है। हमें इंग्लिश नाम पुकारने का चस्का सा लग गया है और जब तक राम को ‘रामा’ व कृष्ण को ‘कृष्णा’ या योग को ‘योगा’ नहीं कह लेते हैं- तब तक हम स्वयं को आधुनिक और सभ्य नहीं मानते। कहने का अभिप्राय है कि शब्दों के वैयाकरणिक स्वरूप से खिलवाड़ करना और उसे अशुद्ध रूप में उच्चारण करना ही आजकल आधुनिकता और सभ्यता का प्रतीक मान लिया गया है। यदि ऐसा ना होता तो इंडोनेशिया को भी भारत का सारा मीडिया जगत इंडोनेशिया न कह कर ‘हिंन्देशिया’ कहता पर तब कई लोगों को इस ‘हिंन्देशिया’ में सांप्रदायिकता नजर आती। अत: अपने आप को उस संप्रदायिकता के आरोप से बचाने के लिए हिंन्देशिया को इंडोनेशिया ही लिखा पढ़ा जा रहा है। छद्म धर्मनिरपेक्षता ने सचमुच इस देश का बंटाधार कर दिया है।
हिन्देशिया ने अपने मौलिक आर्य हिंदू स्वरूप को बचाए रखने में इस्लाम स्वीकार करने के उपरांत भी सफलता प्राप्त की है। वहाँ आज भी अनेकों ऐसे सांस्कृतिक स्थल हैं जिनके मौलिक आर्य हिंदू स्वरूप पर इस इस्लामिक देश को गर्व है। इस्लामिक देशों में यही एकमात्र ऐसा देश है जो अपने आप को राम-कृष्ण के वंशज कहला कर गौरवान्वित अनुभव करता है। इसे भारत और भारत की संस्कृति से आज भी आत्मिक लगाव है, और यह अपने आध्यात्मिक मार्गदर्शन के लिए भारत की ओर देखता रहता है।
बात 1960 के दशक की है जब देश के प्रधानमंत्री पंडित नेहरु थे। पंडित जी कहने को ‘पंडित’ थे पर धर्मनिरपेक्षता का भूत उन पर इस कदर चढ़ गया था कि स्वयं को ‘दुर्भाग्यवश’ हिंदू मानते थे। उन पर इस्लामिक संस्कृति का रंग चढ़ा था और ईसाइयत के ढंग से जीने को वह अपना सौभाग्य मानते थे। उनकी धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा भी ऐसी ही थी। 60 के दशक मे वह भी इंडोनेशिया की यात्रा करके आए थे। तब वहां के राष्ट्रपति सुकर्णो थे। राष्ट्रपति सुकर्णो ने प्रधानमंत्री नेहरु के सम्मान में बहुत ही भव्य कार्यक्रम का आयोजन कराया। प्रधानमंत्री नेहरू राष्ट्रपति सुकर्णो के साथ एक ऊंचे मंच पर विराजमान थे, तभी वहां रामलीला का मंचन आरंभ हो गया। रामलीला के मंचन पर नेहरू जी को आश्चर्य हुआ। उन्होंने साथ बैठे राष्ट्रपति सुकर्णो से पूछ लिया कि -”आप तो मुस्लिम हैं तो फिर यह रामलीला का मंचन क्यों?” तब राष्ट्रपति सुकर्णो ने जो उत्तर दिया उसे सुनकर पंडित नेहरू की आंखें खुली की खुली रह गई थी। उन्होंने कहा था कि-”नेहरू जी! हमने मजहब बदला है, अपने पूर्वज नहीं बदले, हमारे पूर्वज तो आज भी राम ही हैं।”
1987 में इसी इंडोनेशिया की सरकार ने भारत से वैदिक हिंदू साहित्य खरीदने के लिए अपना एक प्रतिनिधिमंडल भारत भेजा। उस समय देश के प्रधानमंत्री श्री राजीव गांधी थे और मानव संसाधन विकास मंत्रालय को उस समय अर्जुन सिंह देख रहे थे। तब उस प्रतिनिधिमंडल को भारत से बिना हिंदू साहित्य खरीदे ही लौटना पड़ गया था। कारण कि हमारे अधिकारियों ने उनसे यह कह दिया था कि आपके ‘ऑर्डर’ में ‘हिंदू साहित्य’ शब्द लगा है और भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है। यहां सांप्रदायिक साहित्य विक्रय के लिए उपलब्ध नहीं है। इस प्रकार भारत में जहां साहित्य को भी सांप्रदायिक बना लिया गया- वहीं इस्लामिक देश इंडोनेशिया को उसी साहित्य की अपेक्षा भारत से थी जो उसे हिंन्देशिया बनाता था और जिसे वह अपनी नई पीढ़ी को समझा कर अपने गौरवपूर्ण अतीत से उसे परिचित कराता।
जब भारत के प्रधानमंत्री श्री मोदी जब हिन्देशिया की यात्रा पर गए थे तो उन से अपेक्षा थी कि वे हिन्देशिया का आध्यात्मिक मार्गदर्शन करने के लिए उनसे सांस्कृतिक संबंध स्थापित करेंगे। भारत को ‘विश्वगुरु’ बनाने के लिए हिन्देशिया को भारत के रंग में रंगने के किसी अवसर को भारत को चूकना नहीं चाहिए। वह देश भारत से आत्मिक संबंध रखता है तो भारत को भी उससे आत्मीयता का प्रदर्शन करना चाहिए। हमें उसके सरल और विनम्र इस्लाम का सम्मान करना चाहिए और उससे मिलकर विश्व शांति की दिशा में ठोस कार्य करना चाहिए। प्रधानमंत्री मोदी की इस यात्रा से उनकी ‘ईस्ट नीति’ को मजबूती मिलेगी, ऐसा कहा जा सकता है। प्रधानमंत्री श्री मोदी ने यह अच्छा ही किया कि हिन्देशिया से भारत आने के इच्छुक लोगों को उन्होंने 30 दिन का नि:शुल्क वीजा देने की घोषणा की है। प्रधानमंत्री की घोषणा बताती है कि वह हिन्देशिया को कितनी गंभीरता से लेते हैं और साथ ही यह भी कि उस देश के लोगों के भारत के प्रति लगाव को वह सम्मान भी देते हैं। प्रधानमंत्री ने कहा- ”बीते 4 वर्षों में सवा सौ करोड़ भारतीयों के प्रतिनिधि के तौर पर मैं जहां-जहां भी गया मेरा प्रयास रहा कि आप जैसे उन लाखों बंधुओं और बहनों से मिलूँ जिनका मूल भारत भूमि में है। भारत और इंडोनेशिया का संस्कृत और संस्कृति का संबंध है, आप सभी जो इंडोनेशिया में आज रच बस गए हैं, हमारे इस रिश्ते की मजबूत कड़ी हैं।” प्रधानमंत्री मोदी ने अपनी उदारता का परिचय देते हुए कूटनीतिक अंदाज में इंडोनेशिया के लोगों से सीधा संवाद स्थापित किया और उन्हें यह विश्वास दिला दिया कि अब भारत में छदम् विचारधारा का समय नहीं रहा है।
प्रधानमंत्री मोदी ने स्पष्ट कर दिया है कि उनकी यात्रा का एक उद्देश्य दोनों देशों की जनता को एक दूसरे के साथ लाना भी है। प्रधानमंत्री की इस यात्रा से राष्ट्रपति जोको बीदोदो काफी खुश नजर आए। इस यात्रा में 15 समझौतों पर दोनों देशों ने हस्ताक्षर किए हैं। इंडोनेशिया ने भारत को सामरिक रूप से महत्वपूर्ण सबांग बंदरगाह के आर्थिक और सैनिक उपयोग की स्वीकृति भी दे दी है। जिससे चीन के पेट में दर्द होने लगा है। भारत और इंडोनेशिया की बढ़ती नजदीकियों से चीन प्रसन्न नहीं है। वह हमारे प्रधानमंत्री की विदेश यात्राओं पर वैसे तो सदा ही ध्यान रखता है, पर जब मोदी जी उसके पड़ोस में या किसी एशियाई देश में होते हैं तो वह बहुत ही सूक्ष्मता से प्रधानमंत्री श्री मोदी की यात्राओं का आंकलन करता है। चीन अक्सर पूर्वी और दक्षिणी चीन सागर में अपनी शक्ति का प्रदर्शन करता रहता है। ऐसे में जब भारत और इंडोनेशिया के बीच समुद्री सहयोग बढ़ रहा हो तो वह चीन के लिए कष्टप्रद होना स्वाभाविक ही है। वह नहीं चाहता कि विश्व की उभरती हुई शक्ति भारत को कोई एशियाई देश अपने बंदरगाह के सैन्य उपयोग की स्वीकृति प्रदान करें। अंडमान निकोबार दीप समूह से 700 किलोमीटर दूर इस बंदरगाह में चीन की रूचि भी किसी से छुपी नहीं थी। वह स्वयं चाहता था कि यह बंदरगाह उसे मिले और वह भारत की निगहबानी कर सकें। पर अब जब यह भारत को मिल गया है तो चीन भारत की इस कूटनीतिक सफलता से प्रसन्न नहीं है। कुछ भी हो चीन को एक संकेत तो मिल ही गया है कि आज का भारत 1962 का भारत नहीं है। आज का भारत स्वयं अपना भाग्य लिख रहा है, और सौभाग्य की बात यह है कि उस भाग्य के साथ अन्य देश भी अपना भाग्य मिलाने को तैयार हैं।
द्वितीय विश्वयुद्ध चल रहा था तो उस समय जापान ने इस बंदरगाह पर अपना नियंत्रण स्थापित किया था। जिससे पता चलता है कि सबांग बंदरगाह का सामरिक महत्व कितना है? भारत को हिन्देशिया की तर्ज पर ही अपने उन सभी मित्र देशों को खोजना चाहिए जो कभी हमारे आर्यावर्त के या तो अंग रहे हैं या फिर उससे प्रभावित रहे हैं। और भारत को आज भी अपना आध्यात्मिक मार्गदर्शक मानते हैं। इस प्रकार की सोच व खोज से भारत को वैश्विक स्तर पर अपने सच्चे समर्थक देश मिलते जाएंगे। एक ध्रुवीय वैश्विक व्यवस्था में सच्चे मित्रों को पाकर ही भारत ‘विश्व गुरु’ बन सकेगा।
मुख्य संपादक, उगता भारत