कंपनी के प्रति शिवाजी महाराज की देशभक्ति पूर्ण नीति
कंपनी के अत्याचारों का वर्णन
कंपनी भारत में केवल लूट मचाने और अपनी भूख मिटाने के लिए आयी थी। उसके पास भारत के विषय में कोई संस्कार नहीं था, कोई विचार नहीं था कोई उपचार नहीं था।
डा. रसेल लिखता है-”ईस्ट इंडिया कंपनी के भारतीय शासन को आरंभ से ही जबरदस्त पापों ने रंग रखा था….लगातार अनेकों पीढिय़ों तक बड़े से बड़े सिविल और फौजी अफसरों से लेकर छोटे से छोटे कर्मचारियों तक कंपनी के कर्मचारियों का एकमात्र महान लक्ष्य और उद्देश्य यह रहता था कि जितनी शीघ्रता हो सके और जितनी बड़ी से बड़ी पूंजी हो सके इस देश से निचोड़ ली जाए। तब अपना स्वार्थ पूर्ण होते ही इस देश को सदा के लिए छोड़ दिया जाए। बात पूर्णत: सच्चाई के साथ कही गयी है कि पराजित प्रजा को अपने बुरे से बुरे और व्यभिचारी देशी नरेशों के बड़े से बड़े जुल्म इतने घातक मालूम न होते थे जितने कंपनी के छोटे से छोटे जुल्म।”
इसमें दो मत नहीं कि भारत ‘जेतारम् पराजितम्’ (यजु. 28-2) अर्थात ‘राजा विजेता और अजेय हो’-का पुजारी देश रहा है। इसकी संस्कृति में जहां उदारता है-वहीं दुष्ट के प्रति कठोरता भी है, जहां जीवमात्र के प्रति करूणा है-वहीं शत्रु के प्रति वीरता भी है। यही भारत का धर्म है-हिंदुत्व है, आर्यत्व है। परंतु स्वभाव से ही विरोधियों पर विश्वास कर लेने और उनके साथ ईमानदारी का व्यवहार करने की प्रवृत्ति ने भारतीयों को विदेशियों के सामने परास्त करा दिया। (संदर्भ : ‘दि डिसीजिव बैटल्स ऑफ इंडिया’-कर्नल मालेसन चैप्टर-प्रथम)
ऐसी मान्यता हमारे प्रति विदेशी लेखकों की रही है। अंग्रेजों को अधिकांश इतिहासकारों ने व्यापारी मानकर उनकी कुशाग्रबुद्घि और व्यापारिक प्रतिभा की प्रशंसा की है। परंतु ‘दि इण्टैलैक्चुअल डेवलपमेंट ऑफ यूरोप’ वौल्यूम द्वितीय पेज 244 पर लेखक का कहना है कि इंग्लैंड की महारानी भी गुलामों के क्रय विक्रय जैसे निंदनीय कृत्य में सम्मिलित होकर हजार दो हजार गिन्नियां कमाने से पीछे नहीं रहती थी।
यह था इंग्लैंड का लोकतंत्र और राजधर्म-जिसमें राजा स्वयं गुलामों का क्रय-विक्रय कर रहा है। ऐसे में यदि अंग्रेजों को विश्व का श्रेष्ठ व्यापारी कहा जाता है तो भी गलत है और यदि उसे वर्तमान मानव सभ्यता का जनक कहा जाए तो भी गलत है। क्योंकि राजधर्म प्रजा को बंधन मुक्त करना सिखाता है, ना कि प्रजा पर पराधीनता की बेडिय़ों को डाल देने की शिक्षा देता है। इंग्लैंड ने सदियों तक विश्व के अनेकों देशों पर शासन किया। इस काल में उसने मनुष्य को ‘मशीनी मानव’ बनाकर रख दिया। इसके पीछे कारण था इंग्लैंड के राजधर्म का संवेदना शून्य हो जाना।
जैसी व्यवस्था वैसा मानव समाज
जैसी व्यवस्था होती है वैसे ही मानव समाज का निर्माण होता है। इंग्लैंड की विश्व समाज के लिए यही सबसे बड़ी देन है कि उसने मानव समाज को हृदयहीन बना दिया है। आज भारत जैसे संस्कारित राष्ट्र में भी ऐसे मानव समाज में आस्था रखने वाले लोग पर्याप्त हैं जो हृदयहीन समाज में विश्वास रखते हैं। इसे आप लोकतंत्र नहीं कह सकते और ना ही इसे आप कोई श्रेष्ठ शासन प्रणाली या सामाजिक व्यवस्था कह सकते हैं। इसलिए इंग्लैंड के विषय में भारतीय इतिहास का यह मिथक टूटना चाहिए कि अंग्रेज भारत में व्यापार करने के लिए आये और उसके पश्चात भारत के लोगों ने अंग्रेजों के संपर्क में आकर बहुत कुछ सीखा। इसके स्थान पर यह तथ्य सत्य के रूप में स्थापित होना चाहिए कि अंग्रेज भारत में क्रूरता और निर्ममता का प्रदर्शन कर यहां के वैभव को लूटने और उसे नष्ट करने के लिए आये और उनकी हमारे लिए सबसे बड़ी देन ये है कि उनकी शिक्षा से हमने एक हृदयहीन समाज का निर्माण बड़ी तेजी से कर डाला है।
भारतीय स्वतंत्रता सेनानी और अंग्रेज
जिस समय अंग्रेज भारत में आया उस समय भारत का राष्ट्रीय आंदोलन विदेशी सत्ता को उखाड़ फेंकने के लिए संघर्ष कर रहा था। सैकड़ों वर्ष से इस संघर्ष को जारी रखते हुए हमारे हिंदू वीर योद्घाओं के भीतर राष्ट्रीयता तो पर्याप्त सीमा तक थी परंतु कोई सार्वभौम शासक न होने के कारण राजनीतिक एकता का अभाव था। हिंदू की चेतना उसका मार्गदर्शन कर रही थी और वह मुगलों से लड़ते-लड़ते थका नहीं, अपितु उसने स्वयं को बाहर से आने वाले अंग्रेजों से लडऩे के लिए भी तैयार कर लिया।
वीर सावरकर का कहना है-”शताब्दियों के हिंदू इतिहास का अध्ययन करके मेरे मन में यह विचार सुदृढ़ हो गया है कि हिंदू राष्ट्र में पुनरूत्थान की शक्ति उत्कृष्ट रूप में विद्यमान है। जब-जब हिंदू विरोधी शक्तियां जोर पकड़ती हैं उसी समय हिंदू राष्ट्र के पुनरूत्थान के विचारों का प्रवाह नई विपदा से जूझने के लिए अधिक सक्षम हो उठता है। इसी चैतन्य के कारण हिंदू विरोधी शक्तियों को समाप्त करने की शक्ति हमें प्राप्त होती रहती है।” (संदर्भ : ‘क्रांति का नाद,’ पृष्ठ 165)
भारतीय राजनीतिक एकता के विषय में वीर सावरकर का यह कथन भी उल्लेखनीय है-”पृथ्वीराज की पराजय पर आज भी बंगभूमि अश्रुपात करती है तो गुरू गोबिन्दसिंह के हुतात्मा पुत्रों का वृतांत पढ़ते ही महाराष्ट्र का भी कंठ अवरूद्घ हो जाता है। उत्तर भारत का आर्य समाजी इतिहासकार भी यही अनुभव करता है कि हरिहर बुक्का ने हमारे लिए ही शोणित का फाग खेला था। इसी प्रकार दक्षिण भारत निवासी सनातनी भी गुरू तेगबहादुर की शहादत को अपने लिए ही दिया गया शीशदान समझता है। (वस्तुत: हमारी सबकी ऐसी भावना ही हमारी सामूहिक चेतना का निर्माण करती है, जिससे हमारे भीतर राष्ट्र का सनातन विचार और भी अधिक प्रबल होता है, और वास्तविक राष्ट्रीय एकता के भाव से हम भाव विभोर हो उठते हैं। -लेखक)
हमारे राजा एक थे और एक ही राज्य भी। हमारी स्थिति एक थी, हमारी गति एक थी। हमारी जय एक थी और पराजय भी एक थी। अशोक भास्कराचार्य पदमिनी और कपिल के नाम हम सभी में चैतन्य का संचार करते हैं, और अपने आपको उनकी संतति मानते हुए हम गदगद हो उठते हैं।” (संदर्भ : ‘हिंदुत्व’ पृष्ठ 109)
कहीं राजाओं की एक दूसरे की जय-पराजय एक दूसरे की रही या न रहीं-यह बात अलग है। परंतु हिंदू की मौलिक चेतना ने उस पराजय को अपनी पराजय और जय को अपनी जय माना।
अंग्रेजों के प्रति शिवाजी की नीति
अंग्रेजों ने मुगलों के समय में अपने पैर दक्षिण से जमाने आरंभ किये थे, इसलिए अंग्रेजों से शिवाजी की नीति क्या रही होगी यह विचारणीय है। अंग्रेज शिवाजी के शासनकाल तक कोई विशेष राजनैतिक हैसियत नहीं रखते थे। शिवाजी के शासनकाल में दक्षिण में कई स्थानों पर अंग्रेज, फ्रैंच और डच लोग अपना-अपना व्यापार कर रहे थे। उनमें परस्पर व्यापारिक प्रतिस्पद्र्घा तो थी, परंतु किसी प्रकार की उल्लेखनीय राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता उनमें नहीं थी। अभी तक उनमें से किसी का भी उद्देश्य भारत पर शासन करने का नहीं बना था। इसलिए उनके अपने व्यापारिक हितों के कारण उनमें संघर्ष तो था, पर वह भारत पर शासन करने के लिए किया जाने वाला संघर्ष नहीं जान पड़ता था।
शिवाजी और मुगलों का राष्ट्रवाद
अंग्रेजों से भी पूर्व शिवाजी का संघर्ष पुर्तगालियों से बढ़ा। क्योंकि अंग्रेजों से पूर्व पुर्तगालियों ने भारत की राजनीति में रूचि लेनी आरंभ की। उन्होंने शिवाजी महाराज के विरूद्घ मुगलों से मित्रता कर ली और दोनों ने मिलकर शिवाजी को अपना शत्रु मान लिया। मुगलों और पुर्तगालियों में परस्पर संधि हो गयी थी, जिसमें यह निश्चित हो गया था कि वे दोनों शिवाजी के विरूद्घ एक होकर कार्य करेंगे। मुगलों के लिए भारत अपना देश नहीं था। इसी प्रकार पुर्तगालियों के लिए भी भारत अपना देश नहीं था। ये चोर-चोर मौसेरे भाई थे। जिनके हित न्यून से न्यून इसी बात पर एक थे कि जैसे भी हो शिवाजी को घेरा जाए। यह मुगलों का राष्ट्रवाद था -जो उन्हें भारत के घोर राष्ट्रवादी नायक के विरूद्घ शत्रु से हाथ मिलाने के लिए प्रेरित कर रहा था। छद्म धर्मनिरपेक्षी इतिहासकारों ने मुगलों के इस कृत्य की अनदेखी करते हुए इतिहास को कुछ इस प्रकार से प्रस्तुत किया है जैसे मुगलों और पुर्तगालियों ने शिवाजी के विरूद्घ एक होकर बड़ा भारी पुण्य कार्य कर दिया था। पुर्तगाली लोग मुगलों से अपनी संधि के कारण शिवाजी के प्रति चुपचाप षडय़ंत्र रचते रहते थे। उन्होंने लखम सावंत और केशव नाईक जैसे लोगों को साथ लेकर शिवाजी के राज्य के (दक्षिणी कोंकण) क्षेत्रों पर आक्रमण करने आरंभ कर दिये। तब शिवाजी महाराज ने 20-22 नवंबर 1667 ई. को पुर्तगाली क्षेत्रों पर हमला कर दिया।
शिवाजी ने पुर्तगालियों को परास्त किया
शिवाजी ने पुर्तगालियों को निर्णायक रूप से परास्त किया। उन्हें बड़ी भारी मात्रा में लूट का सामान मिला। एक डच इतिहासकार ने शिवाजी पर आरोप लगाया है-”शिवाजी अपने साथ बहुत सारी लूट ले गये। जिसका अनुमान नहीं लगाया जा सकता। 16000 लोगों को पकडक़र वह ले गया, उनमें से अधिकांश स्त्रियां और युवती लड़कियां थीं वे सिपाहियों को बेच दी जाती थीं। आसपास के गांव वाले भाग गये। तीन पादरी और कई इसाई मौत के घाट उतार दिये गये।”
पिसुर्लेकार ने ‘पोर्तुगीज मराठे संबंध’ पृष्ठ 72 पर लिखा है कि-”डच इतिहासकार का यह कथन नितांत भ्रामक और झूठा है। चूंकि किसी भी पुर्तगाली इतिहास लेखक ने कहीं भी एक भी ऐसा उल्लेख नहीं किया है जिससे यह पता चल सके कि शिवाजी की सेना ने किसी भी स्त्री को बेचने या लडक़ी के साथ अति करने का प्रयास किया। पुर्तगाली वायसराय ने तो इस के विपरीत यह लिखा है कि शिवाजी को शत्रुओं की जो भी स्त्रियां और उनका सामान मिला वह उसने ससम्मान पुर्तगालियों को लौट दिया।”
शिवाजी और पुर्तगालियों के मध्य संधि
12 दिसंबर 1667 को शिवाजी और पुर्तगालियों के मध्य संधि हो गयी। जिसमें पुर्तगालियों ने मराठों को वचन दिया कि वे शिवाजी के शत्रु देसाइयों पर अपनी ओर से निगरानी करेंगे। शिवाजी ने पुर्तगालियों को जुलाई 1668 ई. में एक कारखाना स्थापित करने की अनुमति प्रदान कर दी। फ्रेंच अभिलेखों से ज्ञात होता है कि शिवाजी ने फ्रांसीसियों के प्रति उदारता का प्रदर्शन किया और उन्हें व्यापार करने एवं बसने की अनुमति देते हुए भूमि भी उपलब्ध करा दी। यह घटना 16 दिसंबर 1668 ई. की है।
अब तक अंग्रेज भी बंबई के निकट पहुंच चुके थे। उन्हें भी अपने लिए वैसी ही सुविधाओं की अपेक्षा थी-जैसी अन्य यूरोपियन लोगों को मिलने लगी थीं। अंग्रेजों का फ्रांसीसियों से अपने देश के हितों के दृष्टिगत पुराना वैर था। इसलिए उन्हें यह बात अच्छी नहीं लगी कि शिवाजी फ्रांसीसियों के साथ उदारता का व्यवहार करें और उन्हें व्यापार एवं बसने के लिए भूमि उपलब्ध करा दें।
अंग्रेजों की चाल भरी नीति और शिवाजी
अंग्रेजों ने अपने व्यापार की वृद्घि के लिए शिवाजी से भूमि प्राप्त करनी चाही। पर उन्होंने अपनी मनचाही भूमि लेने के लिए शिवाजी से बात न करके पेण शहर के विषय में औरंगजेब से बात करनी आंरभ कर दी। इसके पीछे अंग्रेजों की चाल यह थी कि वे मुगल बादशाह को अपना बनाकर रखना चाहते थे। इसलिए उनका तर्क था कि मुगल बादशाह के अधीन शिवाजी को किसी प्रकार की भूमि या शहर अंग्रेजों के लिए उपलब्ध कराना संभव नहीं है। उधर शिवाजी अंग्रेजों की सहायता से जंजीरा के सिद्दी को परास्त करना चाहते थे। जिसके लिए शिवाजी ने अक्टूबर 1669 ई. में जंजीरा का घेरा डाल दिया। 10 फरवरी 1670 ई. को दोनों पक्षों में संधि हो गयी।
शिवाजी का सूरत पर आक्रमण
4-5 अक्टूबर 1670 ई. की घटना है-शिवाजी ने सूरत की ओर बढ़ते हुए इस शहर पर दूसरी बार आक्रमण कर दिया। इस आक्रमण में दस हजार घुड़सवार और इतनी ही पैदल सेना शिवाजी के साथ थी। शिवाजी की सेना के पास बड़ा कारगर तोपखाना था, जिसकी मार का सामना शत्रु सेना नहीं कर पायी और वह भाग गयी। शिवाजी ने पुन: सूरत से बड़ी मात्रा में लूट का सामान प्राप्त किया। शिवाजी ने अंग्रेजों के साथ भी फ्रैंच लोगों के प्रति अपनायी जाने वाली अपनी उदारतापूर्ण नीति को ही अपनाया। तब तक अंग्रेजों की कोई राजनीतिक महत्वाकांक्षा नहीं दिखती थी। वह भारत में केवल अपना व्यापार करना चाहते थे। इसलिए शिवाजी महाराज ने अंग्रेजों के एक प्रतिनिधि को बुलाकर उससे स्पष्ट कह दिया कि उनका उद्देश्य अंग्रेजों को किसी भी प्रकार से उत्पीडि़त करने का नहीं है। हम और अंग्रेज अच्छे मित्र हो सकते हैं। हम आपके व्यापारिक हितों को चोट पहुंचाने वाला कोई निर्णय नहीं लेंगे। अंग्रेजों को शिवाजी के कथन पर विश्वास तो आ गया। पर सूरत पर शिवाजी के दूसरे आक्रमण से यहां के व्यापार को बड़ा धक्का लगा।
अंग्रेज समझ गये शिवाजी की शक्ति को
व्यापारी लोगों को शिवाजी की सेना के आने का भय सताने लगा था। शिवाजी की शक्ति को अंग्रेजों ने अपनी आंखों से देख लिया था। इसलिए वह भी समझ गये थे कि शिवाजी किस शक्ति का नाम है? उन्होंने यह भी समझ लिया कि भारत में यदि अपना व्यापार करना है तो केवल औरंगजेब की चमचागीरी से ही काम नहीं चलेगा, अपितु शिवाजी के सम्मान का भी ध्यान करना होगा। शिवाजी की तीस हजार की सेना और उसकी तोपखाने की शक्ति ने अंग्रेजों को भीतर ही भीतर भयभीत भी कर दिया था।
22 फरवरी 1671 को कंपनी ने सूरत में अपने अधिकारी को लिखकर भेजा कि-”जैसे अन्य राजाओं से हिंदुस्तान में पत्र व्यवहार रखते हो, वैसे ही (बराबरी के सम्मान का) शिवाजी से भी रखो और यह बंबई से सीधे कानूनी ढंग से कर सकते हो।”
13 जनवरी 1672 को मुगलों ने पूना और चाकण पर आक्रमण कर दिया। यहां उन्होंने अंग्रेजों पर भी अत्याचार ढहाये। अंग्रेजों के अभिलेखों की साक्षी के अनुसार नौ वर्ष से ऊपर की अवस्था के किसी भी व्यक्ति को जीवित नहीं छोड़ा गया। उनके मकान भी जला दिये गये। पर बाद में शिवाजी ने मुगलों पर आक्रमण कर साल्हेर के युद्घ में उन्हें अपमानजनक पराजय दी।
बढ़ती गयी शिवाजी की शक्ति
प्रभाकर माचवे लिखते हैं-”1670 में सूरत के अभियानों में राजापुर में अंग्रेजों की हानि हुई थी। शिवाजी और अंग्रेजों के संबंध अच्छे होने से वे राजापुर की क्षति की पूर्ति चाहते थे। शिवाजी को बारूद और ग्रेनेड और तोप के गोले चाहिए थे। शिवाजी यह भी चाहते थे कि जंजीरा के सिद्दियों के विरूद्घ अंग्रेज लड़ें। सो 10 मार्च 1672 को लेफ्टिनेंट उंस्टिक शिवाजी के पास गया और 13 को लौटा। आधा घंटा दोनों में बातचीत हुई। शिवाजी ने पांच हजार पैगोडा अंग्रेजों के नुकसान को घटाकर उसकी ऐवज में राजापुर में एक कारखाना खोलने की अनुमति अंग्रेजों को दी। जून में मराठों ने जव्हार रामनगर नासिक जीत लिये। उसी माह औरंगजेब ने शाहजादा मुअज्ज्म को वापस बुला लिया।
24 नवंबर 1672 ई. को 35 वर्षीय अली आदिलशाह मर गया। तब बीजापुर के नये शासक थे चार बरस के सिकंदर आदिलशाह। वजीर अब्दुल मुहम्मद थे, उन्होंने राज संभालने से इंकार कर दिया। खान मुहम्मद खवास खान को बच्चे का संरक्षक बनाया गया, इस सारी परिस्थिति का लाभ उठाकर मराठों ने 6 मार्च 1673 को पन्हाला ले लिया। उमराणी में मार्च 1673 को भयानक लड़ाई हुई। जिसमें शिवाजी के सेनापति प्रतापराव ने बहलोलखान पर हमला कर दिया। मुगलों के सूबेदार बहादुरखान आदिलशाही सिपहसालारों से समझौता और संधि करना चाहते थे। उससे पूर्व ही शिवाजी ने उन पर हमला कर दिया। मराठों ने बहलोलखान की सेना को राह में ही रोक दिया। सूर्यास्त तक लड़ाई चलती रही। दोनों ओर बहुत से वीर सिपाही मारे गये। मराठों को फिर लौट जाना पड़ा। मराठों ने बाद में हुबली पर हमला बोल दिया। अप्रैल के दूसरे सप्ताह में हुबली का बाजार लूटा गया। वहां अंग्रेजों की फेेक्टरी को भी नुकसान पहुंचा। इस मोर्चे में मराठों के आक्रमण के कारण मुजफ्फरनगर के अधिकार छीन लिये गये। अब बहलोलखाान को अकेले शिवाजी से लडऩा पड़ा। कोल्हापुर में शिवाजी ने अपना मोर्चे का मुकाम बनाकर कर्नाटक में बालाघाट (हुबली) पर आक्रमण किया। पहली अप्रैल 1673 को शिवाजी ने परली लिया था। 23 जुलाई को सतारा पर अधिकार कर लिया था।
अंग्रेज हुबली में ही लूट से नाराज हो गये। डच बंबई पर हमला न कर दें, इसलिए अंग्रेज शिवाजी से संबंध तोडऩा नहीं चाहते थे। अंग्रेजों की ओर से 19 मई से 17 जून तक टामस निकोलस शिवाजी से बातचीत करता रहा। शिवाजी ने उसे बहुत मान से बिठाया, कहा कि लकड़ी और ईंधन आदि बिना डयूटी के तुम ले जा सकते हो। राजापुर और हुबली के मामले में शिवाजी ने कोई आश्वासन नहीं दिया। भीमसेन पंडित के हाथों जवाब देंगे। यह कहकर टाल दिया। भीमसेन जून में बंबई पहुंचा। 23 अक्टूबर को अंग्रेजों ने शिवाजी से संधि करना आरंभ किया। संधि पत्र पर 1673 के अंत में हस्ताक्षर हुए।”
पहले सौ वर्ष तक अंग्रेज शांत रहा
जब 1707 ई. में औरंगजेब की मृत्यु हुई तो उस समय तक अंग्रेजों को भारत में व्यापार करते हुए सौ वर्ष से अधिक हो गये थे। इन सौ वर्षों में अंग्रेजों ने अपने आपको अपने व्यापार तक ही सीमित रखा। यदि वह व्यापारी के रूप में भेडिय़ा बनकर आये थे (जैसा कि उनके विषय में कहा जाता है) तो इस अवधि में ही उन्हें अपना वास्तविक रूप दिखा देना चाहिए था। शासन की दुर्बलता और कालांतर में बनी परिस्थितियों ने ही अंग्रेजों को भारत की राजनीति में हस्तक्षेप कर यहां का शासक बनने के लिए प्रेरित किया था। जिस पर हम आगे प्रकाश डालेंगे।
क्रमश: