हे मनुष्य! बाधाओं को देखकर निराश मत हो, जीवन में बाधाएं तो आएंगी ही आएंगी। जैसे सागर के जल से लहरों को अलग नहीं किया जा सकता है, ठीक इसी प्रकार जीवन से समस्याओं को दूर नहीं किया जा सकता है। इनसे तो जूझना ही पड़ता है। पानी की तरह रास्ता ढूंढऩा पड़ता है, और यह निश्चित है कि हर समस्या का समाधान है बशर्ते कि मनुष्य होंसले और विवेक से काम ले।
याद रखो जहां चाह, वहां राह। पानी को बाधा रोकती है, किंतु एक दिन वह भी आता है कि पानी बाधा के सिर के ऊपर से बहता है, बाधा का नामोनिशान मिटा देता है। पानी तो जड़ तत्तव है, जब वह हिम्मत नहीं हारता है तो हे मनुष्य! तू क्यों हिम्मत हारता है? क्यों निराशा के गह्वïह में मन को डुबाता है और मायुस होता है? उठ, चल और आगे बढ़। उपनिषद के इन शब्दों को याद रख-उतिष्ठं जाग्रत: चरैवेति-चरैवेति।
उपरोक्त दोहे का केन्द्रीय भाव यही है कि हमें पानी से प्रेरणा लेकर और बाधाओं को लांघकर तब तक गतिशील अथवा संघर्षशील रहना चाहिए जब तक अपना अभीष्टï लक्ष्य प्राप्त न हो जाए। याद रखो, जीवन में छोटी अथवा बड़ी बाधा हमारे होंसले की परीक्षा लेने आती है। सोने को भी अग्नि में परीक्षा देनी होती है, तभी वह कुंदन बनता है। ठीक इसी प्रकार मनुष्य महान तभी बनता है, जब वह बाधाओं की भट्टियों में तपता है। संसार के सभी महापुरूष बाधाओं की भट्टी में अवश्य तपे हैं तभी उनका जीवन उत्कर्षता को प्राप्त हुआ और लोगों के लिए अभिनंदनीय हुआ, वंदनीय हुआ। इसलिए हे मनुष्य! जीवन को उत्कर्षता पर पहुंचाना है तो दिन प्रतिदिन अपने लक्ष्य की ओर गतिशील रहो। इस संदर्भ में कवि कितना सुंदर कहता है।
फूल को पत्ते कितना भी छिपा लें,
उसकी खुशबू को कोई छिपा नहीं सकता।
जो इरादे का धनी होता है,
उसे मंजिल-ए-मकसूद से कोई रोक नहीं सकता।।
जहां अकड़ रहती है, वहां पकड़ छूट जाती है :-
जहां अकड़ आवै वहां,
पकड़ छोड़ दे साथ।
ऋजुता में बसते हरि,
स्वर्णिम हो प्रभात ।। 1175 ।।
व्याख्या :-यहां ‘अकड़’ से अभिप्राय अभिमान से है और ‘पकड़’ से अभिप्राय प्रभु कृपा से है। साधारण बोल-चाल में लोग अक्सर कहते हैं-अभिमान और भगवान का तो आपस में बैर है। भाव यह है कि जहां अभिमान रहता है, वहां भगवान नहीं रहते हैं अर्थात प्रभु-कृपा वहां से चली जाती है। अंग्रेजी के (EGO) और (I GO) इन दोनों शब्दों को ध्यान से देखिये-दोनों में मात्र तीन तीन अक्षर हैं किंतु इनके शब्दार्थ पर चिंतन कीजिए (EGO) का अर्थ है-अहंकार और (I GO) का अर्थ है-मैं चलता हूं। जब (EGO) है, अर्थात अहंकार आता है तो मनुष्य की बुद्घि में विवेक का दीपक बुझ जाता है। बुद्घि पर अहंकार का पर्दा पड़ता है, तो बुद्घि सुबुद्घि न रहकर दुर्बुद्घि हो जाती है और मनुष्य सदाचार को छोडक़र पापाचार में लिप्त हो जाता है। तब भगवान कहते हैं- (I GO)अर्थात मैं चलता हूं, यानि कि परमात्मा की बरसने वाली कृपा वहां से चली जाती है। फिर वह व्यक्ति ऐसे लगता है, जैसे बिजली के चले जाने पर बल्व कान्तिहीन लगता है। ध्यान रहे, अहंकार और करतार (भगवान) का छत्तीस का आंकड़ा है। अहंकार भगवान का भोजन है इसलिए जीवन में विभिन्न विभूतियों से विभूषित होने पर कभी भी अहंकार मत करो। विभिन्न विभूतियों (विलक्षणताओं) को प्रभु का प्रसाद समझो। इसके लिए प्रभु के प्रतिसर्वदा कृतज्ञ रहो, ऋजुता में रहो, अर्थात सहज और सरल रहो, कुटिलता रहित रहो, हृदय में उदारता और वाणी में विनम्रता से सदैव अलंकृत रहो ताकि प्रभु-कृपा की बदली आप पर निरंतर बरसती रहे।
क्रमश: