सत्यार्थ प्रकाश में इतिहास विर्मश ( एक से सातवें समुल्लास के आधार पर) अध्याय- 24 ख
18 विवादास्पद मार्ग और राजा
संध्या आदि के पश्चात राजा के लिए अनिवार्य किया गया है कि :-
“सभा राजा और राजपुरुष सब लोग सदाचार और शास्त्रव्यवहार हेतुओं से निम्नलिखित अठारह विवादास्पद मार्गों में विवादयुक्त कर्मों का निर्णय प्रतिदिन किया करें और जो-जो नियम शास्त्रोक्त न पावें और उनके होने की आवश्यकता जानें तो उत्तमोत्तम नियम बनावें कि जिससे राजा और प्रजा की उन्नति हो।”
यहां पर जिन 18 मार्गों का उल्लेख किया गया है उन्हें भी स्वामी दयानंद जी महाराज ने स्पष्ट कर दिया है। इन 18 मार्गों को स्पष्ट करते हुए वह लिखते हैं कि :-
1-(ऋणदान) किसी से ऋण लेने देने का विवाद।
2 -(निक्षेप) धरावट अर्थात् किसी ने किसी के पास पदार्थ धरा हो और मांगे पर न देना।
3-(अस्वामिविक्रय) दूसरे के पदार्थ को दूसरा बेच लेवे।
4 – (सम्भूय च समुत्थानम्) मिल मिला के किसी पर अत्याचार करना।
5 -(दत्तस्यानपकर्म च ) दिये हुए पदार्थ का न देना।
6 -(वेतनस्यैव चादानम्) वेतन अर्थात् किसी की ‘नौकरी’ में से ले लेना वा कम देना अथवा न देना।
7 -(प्रतिज्ञा) प्रतिज्ञा से विरुद्ध वर्त्तना।
8-(क्रय-विक्रयानुशय) अर्थात् लेन देन में झगड़ा होना।
9 -पशु के स्वामी और पालने वाले का झगड़ा।
10 -सीमा का विवाद।
11-किसी को कठोर दण्ड देना।
12 -कठोर वाणी का बोलना।
13 – चोरी डाका मारना।
14 -किसी काम को बलात्कार से करना।
15 -किसी की स्त्री वा पुरुष का व्यभिचार होना।
16 -स्त्री और पुरुष के धर्म में व्यतिक्रम होना।
17 -विभाग अर्थात् दायभाग में वाद उठना।
18 -द्यूत अर्थात् जड़ पदार्थ और समाह्वय अर्थात् चेतन को दाव में धर के जुआ खेलना।
ये अठारह प्रकार के परस्पर विरुद्ध व्यवहार के स्थान हैं।
राजा अपने राज्य में धर्म का प्रतीक होता है और धर्म सबके साथ एक सा व्यापार करता है। इसलिए राजा के लिए भी यह व्यवस्था की गई है कि वह भी अपनी प्रजा के साथ न्यायपूर्ण व्यवहार करे। यदि राजा पक्षपाती और अन्याय करने वाला हो जाता है तो जनता में त्राहिमाम मच जाती है। जिन – जिन राजाओं ,सम्राटों, सुल्तानों, नवाबों या बादशाहों ने अपने-अपने काल में न्यायप्रियता और निष्पक्षता को छोड़ा है उनके विरुद्ध ही जनता विद्रोह पर उतरी है। उनकी सल्तनत या राजशाही आज समाप्त हैं। अतः राजा के लिए महर्षि दयानंद जी महाराज की यह शिक्षा बहुत ही उत्तम है कि वह इन उपरोक्त वर्णित अट्ठारह व्यवहारों में बहुत से विवाद करने वाले पुरुषों के न्याय को सनातनधर्म के आश्रय करके किया करे अर्थात् किसी का पक्षपात कभी न करे।
राजा की सभा और सभासद
राजा की सभा में अन्याय और पक्षपाती सभासद भी उपस्थित ना हो। सभी सभासद धर्म प्रेमी होने चाहिए। धर्म प्रेमी होने का अभिप्राय है कि किसी भी व्यक्ति के साथ जाति ,मजहब या संप्रदाय या लिंग के आधार पर किसी प्रकार का भेदभाव करने वाले ना हों। जिस राजा के सभासद उत्तम कोटि के धर्म प्रेमी न्यायमूर्ति होते हैं, उसका शासन दीर्घकाल तक चलता है।जिस सभा में अधर्म शक्तिशाली बन जाता है , वहां पर नए-नए प्रकार के उपद्रव और उत्पात खड़े होते हैं। ऐसे राजा के राज्य में ही आतंकवाद फैलता है। जब देश का शासक किसी प्रकार की तुष्टीकरण की नीति का अवलंब लेकर किसी वर्ग विशेष को प्रोत्साहित करता है और दूसरे को उपेक्षित भाव से देखता है तो वहां पर राजा के विरुद्ध विद्रोह के भाव पनपने लगते हैं। शांति व्यवस्था स्थापित किए रखने के लिए आवश्यक है कि राजा और उसके सभासद उत्पाती लोगों के विरुद्ध कठोर और शांति प्रिय लोगों के प्रति न्याय पूर्ण होने चाहिए।
स्वामी दयानंद जी महाराज इस संदर्भ में कहते हैं कि जिस राजा के राज्य में या जिस राजा के सभासदों के द्वारा धर्मी को मान अधर्मी को दण्ड नहीं मिलता उस सभा में जितने सभासद् हैं वे सब घायल के समान समझे जाते हैं। यदि राजा के सभासद किसी आतंकवादी संगठन या किसी खूंखार आतंकवादी के विरुद्ध कठोर कार्यवाही करने की शक्ति खो बैठते हैं या कानून को अपना काम करने से रोकते हैं या आतंकवादियों को खुला छोड़ने की वकालत करते हैं या आतंकवादियों के मानव अधिकारों की पैरोकारी करते पाए जाते हैं, वे सबके सब राष्ट्रहित से हीन होकर या पतित होकर राष्ट्र के विरोधी हो जाते हैं। राजा को अपना राजधर्म निर्वाह करते समय अपनी स्पष्ट नीति का प्रदर्शन करना चाहिए। उसकी नीतियों में किसी प्रकार का दोगलापन नहीं होना चाहिए। यदि राजा अथवा देश के जनप्रतिनिधि अपनी नीतियों में किसी प्रकार के दोगलेपन को प्रकट करते हैं तो समझना चाहिए कि वह राजधर्म का निर्वाह करने में अक्षम हैं।
देश के किसी भी जनप्रतिनिधि को देश के विधानमंडलों में जाकर बैठते समय अपनी अंतरात्मा के साथ यह अनुबंध अवश्य करना चाहिए कि वे न्याय का पक्ष लेंगे और न्याय के पक्ष में ही खड़े होकर बोलेंगे। राष्ट्रहित को सर्वोपरि रखकर किसी भी प्रकार के दोगलेपन को अपने निकट फटकने भी नहीं देंगे। देश के विधानमंडलों अर्थात राज्यसभा में जाकर वे सत्य का पक्ष लेंगे और सत्य ही बोलेंगे।
स्वामी दयानंद जी महाराज इस प्रसंग में लिखते हैं कि जो कोई सभा में अन्याय होते हुए को देखकर मौन रहे अथवा सत्य न्याय के विरुद्ध बोले वह महापापी होता है।
वर्तमान में राजनीतिक लोगों का चर्चा का स्तर
यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है कि वर्तमान काल में भारत के राजनीतिक दलों के जनप्रतिनिधि विधानमंडलों में जाकर राष्ट्रहित की पैरोकारी ना करते हुए अपने दलीय हितों की पैरोकारी करते हैं। अपनी – अपनी तथाकथित विचारधाराओं को सर्वोपरि मानकर उसके पक्ष में विधान मंडलों में सत्य का गला घोंटते हैं और उन बातों को लेकर शोर मचाते हैं जिनसे उनकी राजनीति चमके या उनके दलों के हित पूर्ण होते हैं। इनका आचरण कोई और गीत हो जैसा होता है।
कई बार टी0वी0 चैनलों पर राष्ट्रीय प्रवक्ताओं की होती हुई निरर्थक बहस को देखकर देश के प्रत्येक संवेदनशील और राष्ट्रप्रेमी व्यक्ति को उस चर्चा में भाग ले रहे राष्ट्रीय प्रवक्ताओं के आचरण को देखकर लज्जा आने लगती है पर इन लोगों को लज्जा नहीं आती। ये सारे के सारे राष्ट्रीय प्रवक्ता अपनी पार्टियों के प्रवक्ता होते हैं, राष्ट्र के प्रवक्ता नहीं। अपने दलगत हितों के लिए यह चिल्ला चिल्ला कर लड़ते देखे जाते हैं। जिससे देश के संवेदनशील लोग इनमें कोई रुचि नहीं दिखाते। टी0वी0 चैनलों पर होने वाली इस प्रकार की चर्चाओं का उद्देश्य राष्ट्रहित में किया जाता है। इनका लक्ष्य होता है कि किसी चर्चा को लेकर कुछ निष्कर्ष निकाला जाए जिससे देश का भला हो सके। परंतु कोई भी चर्चा ऐसी नहीं होती जिससे राष्ट्रहित में एकमत बने और चर्चा किसी सार्थक निष्कर्ष पर जाकर समाप्त हो।
विधान मंडलों में सभासद अधर्म से धर्म को और असत्य से सत्य को पराजित करने का प्रयास करते देखे जाते हैं। यदि इनके इस प्रकार के आचरण को देखने के लिए आज कहीं से महर्षि मनु और भारत के उन सभी प्राचीन राजनीतिशास्त्रियों, धर्मशास्त्रियों को बुला लिया जाए, जिन्होंने इस देश की संस्कृति का निर्माण किया था और इसे राजनीतिक संस्कार देकर संसार में विश्व गुरु के पद पर विराजमान किया था तो वे इन्हें अत्यंत कठोर शब्दों में लताडेंगे। इतना ही नहीं, वे यहां तक भी कह सकते हैं कि तुम आज जिस राजनीतिक परिवेश में जी रहे हो और देश को जिस प्रकार के राजनीतिक संस्कार दे रहे हो, वह राष्ट्र के विनाश का कारण बनेंगे ,क्योंकि तुम संस्कार नहीं बल्कि आने वाली पीढ़ियों को कुसंस्कार दे रहे हो।
सत्यार्थ प्रकाश में इस प्रकार की राजनीतिक संस्कृति से ओतप्रोत विचारों को प्रस्तुत करके महर्षि दयानंद जी के उस सपने को समझा जा सकता है जो वे स्वतंत्र भारत के बारे में उस समय देख रहे होंगे कि जब मेरा देश स्वतंत्र होगा तो वह कैसी शासन प्रणाली को अपनायेगा और कैसे जनप्रतिनिधियों को अपने लिए चुनेगा? कहने का अभिप्राय है कि यदि ऐसी स्थिति में महर्षि दयानन्द जी को भी किसी प्रकार आज के विधानमंडलों की कार्यवाही को दिखाने के लिए लाकर बैठा दिया जाए तो वह भी आज के उन सभी राजनीतिज्ञों को धिक्कारेंगे जो सत्य को असत्य से और धर्म को अधर्म से मारने का काम विधानमंडलों में बैठकर करते देखे जाते हैं।
डॉ राकेश कुमार आर्य
मेरी यह पुस्तक डायमंड बुक्स नई दिल्ली के द्वारा प्रकाशित हुई है । जिसका अभी हाल ही में 5 अक्टूबर 2000 22 को विमोचन कार्य संपन्न हुआ था। इस पुस्तक में सत्यार्थ प्रकाश के पहले 7 अध्यायों का इतिहास के दृष्टिकोण से विश्लेषण किया गया है। पुस्तक में कुल 245 स्पष्ट हैं। पुस्तक का मूल्य ₹300 है।
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मुख्य संपादक, उगता भारत