10 मई 1857 की प्रातः कालीन बेला।
स्थान मेरठ ।
जिस वीर नायक ने इस पूरे स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण एवं क्रांतिकारी भूमिका निभाई थी वह अमर शहीद धन सिंह चपराना कोतवाल निवासी ग्राम पाचली जनपद मेरठ के थे।
क्रांति का प्रथम नायक धनसिंह गुर्जर कोतवाल।
नारा – ‘मारो फिरंगियों को।’
मेरठ में ईस्ट इंडिया कंपनी की थर्ड केवल्री की 11वी और 12 वी इन्फेंट्री पोस्टेड थी । 10 मई 1857 रविवार का दिन था। रविवार के दिन ईसाई अंग्रेज अधिकतर चर्च जाने की तैयारी प्रातःकाल से ही करने लगते हैं।सब उसी में व्यस्त थे।
10 मई 1857 को मेरठ में सैनिकों और पुलिस फोर्स ने अंग्रेजों के विरुद्ध संयुक्त मोर्चा गठित कर क्रांति का बिगुल फूंक दिया।
कुछ प्रारंभिक एवं तथ्यात्मक जानकारियां निम्न प्रकार हैं।
स्वतंत्रता प्राप्ति के आंदोलन की सूचना मेरठ की शहरी जनता और ग्रामीण जनता में अति शीघ्रता से प्रचारित हो गई। मेरठ के समीप के ग्राम पाचली ,घाट ,नगला, गगोल इत्यादि के ग्रामीण इकट्ठे होकर मेरठ की सदर कोतवाली में धन सिंह कोतवाल के नेतृत्व में जमा हो गए। ध्यान रहे कि उक्त सभी ग्राम गुर्जर जाति के गोत्र चपराना से संबंधित हैं
इस प्रकार मेरठ की पुलिस अंग्रेजों के विरुद्ध बागी हो चुकी थी ।स्वतंत्रता की बलिवेदी पर अपने प्राण उत्सर्ग करने के पथ पर तत्पर हो गई थी। जिसमें धन सिंह कोतवाल एक नेता के रूप में उभर कर राष्ट्रीय क्षितिज पर प्रतिष्ठित हुए। जिन्होंने रात में 2:00 बजे मेरठ जेल पर हमला कर जेल तोड़कर 836 कैदियों को छुड़ा लिया और जेल में आग लगा दी।
इस प्रकार वे सब भी स्वतंत्रता सेनानियों के साथ राष्ट्र की सेवार्थ सम्मिलित हो गए। मेरठ के पूरे सदर बाजार और कैंट क्षेत्र में क्रांतिकारी घटनाओं को अंजाम दिया जाने लगा। यहीं से यह स्वतंत्रता प्राप्ति का प्रथम आंदोलन मेरठ , हापुड़, बुलंदशहर ,दादरी , दिल्ली के आसपास के ग्रामीण क्षेत्र में भी फैल गया। यद्यपि काफी प्रयास के बाद बड़ी मुश्किल से इस क्रांति को अंग्रेजों द्वारा दबा दिया गया ।बाद में पुलिस की भूमिका की जांच के लिए मेजर विलियम्स की अध्यक्षता में एक कमेटी गठित की गई। इस कमेटी ने भिन्न-भिन्न लोगों के गवाही और बयानों के आधार पर एक स्मरण पत्र तैयार किया जिसमें मुख्य रूप से कोतवाल धन सिंह चपराना को मुजरिम ठहराया गया तथा लिखा कि यदि धन सिंह कोतवाल ठीक प्रकार से अपने कार्य का निर्वहन करते तो यह आंदोलन रोका जा सकता था। इस कारण से दोषारोपित किया गया कि यदि वह नियंत्रण करना चाहते तो नियंत्रण कर सकते थे।
गवाहों ने अपने बयान में कहा कि धन सिंह कोतवाल स्वयं गुर्जर जाति से संबंधित है और जितने भी क्रांतिकारी आए थे उनमें बहुमत में उन्हीं के जाति के लोग शामिल थे ।धन सिंह कोतवाल ने उन्होंने संरक्षण दिया। धन सिंह कोतवाल पर यह भी आरोप लगाया गया कि कोतवाल ने स्वयं आसपास के गांवों से लोगों को बुलाया।
निष्कर्ष यह कहा जा सकता है की विलियम्स की जांच कमेटी में जो मौखिक साक्ष्य में बयानात और गवाहियां आई उसमें एक पूर्व नियोजित कार्यक्रम के तहत मेरठ का प्रथम स्वतंत्रता आंदोलन घटित हुआ सिद्ध होता है।
विलियम्स ने यह रिपोर्ट नॉर्थ वेस्टर्न प्रोविंस वर्तमान में उत्तर प्रदेश सेक्रेटरी को भेजी थी।
जांच में यह भी संदेह जाहिर किया गया मेरठ के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के दौरान मेरठ शहर की पुलिस और जनता आसपास के ग्रामीण किसी साधु के संपर्क में थे ।इस विषय में आर्य समाजी इतिहास वेत्ता एवं स्वतंत्रता सेनानी आचार्य दीपांकर के अनुसार वह साधु कोई और नहीं बल्कि ऋषि दयानंद थे।जो मेरठ में 10 मई 1857 की घटनाओं के सूत्रधार थे। क्योंकि कोतवाल धन सिंह स्वयं सूरजकुंड में स्थित ठिकाने पर उक्त साधु से मिले थे।
एक पूर्व नियोजित योजना के अनुसार इस आंदोलन को इसलिए भी कहा जा सकता है कि यह घटना एक ही लगभग निश्चित समय पर सारे क्षेत्र में घटित हुई थी। योजना के अनुसार ही धन सिंह कोतवाल ने अंग्रेज सरकार के वफादार पुलिसकर्मियों को कोतवाली के अंदर रहने का आदेश दिया। जिससे घटना के समय ऐसे वफादार पुलिसकर्मी कोतवाली के अंदर ही बैठे रह गए ।योजना के अनुसार क्रांति में अग्रणी भूमिका निभाने का गुप्त आदेश जिन को दिया गया था वह सब क्रांति में शामिल हो गए। वास्तव में कोतवाल धन सिंह अपने आसपास के सभी गांव से निरंतर संपर्क में थे।
यद्यपि अंग्रेजों ने 1857 की प्रथम स्वतंत्रता संग्राम अथवा क्रांति को एक गदर का नाम दिया तथा सैनिक असंतोष कहा गया ।परंतु यह वास्तव में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम था। इसमें अंग्रेजों की चालाकी यह थी कि वे यह सिद्ध करना चाहते थे कि आम जनता इसमें शामिल नहीं थी। बल्कि आम जनता तो अंग्रेजों से खुश थी। अंग्रेज इतिहासकार जॉन लॉरेंस, सीले ने इसको एक सैनिक विद्रोह का रूप दिया तथा कहा गया है कि यह कोई जनप्रिय आंदोलन नहीं था।
जबकि अन्य इतिहासकार वी .डी. सावरकर एवम इतिहासकार रंजीत गुहा ने 1857 की क्रांति की साम्राज्यवादी व्यवस्था का खंडन करते हुए सभी क्रांतिकारी घटनाओं का विस्तृत वर्णन किया है। जिसमें ग्रामीण क्षेत्र की जनता ने क्रांति में व्यापक स्तर पर सहयोग एवं सहभागिता की थी।
इसी वजह से पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सभी जाति वर्ग के लोगों ने 1857 की क्रांति में प्रमुख रूप से भाग लिया। यही नहीं पूर्वी क्षेत्र के तालुकदार ,बुनकर और कारीगरों ने भी क्रांति में भाग लिया था। इस क्रांति के राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक दमनात्मक नीति अंग्रेजों द्वारा अपनाई जाने के महत्वपूर्ण कारक एवं कारण थे। इस प्रकार 1857 का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम जनभागीदारी से व्यापक स्तर पर हुआ था ।जिसकी योजना धन सिंह कोतवाल के माध्यम से आर्य समाज के प्रवर्तक महर्षि दयानंद द्वारा कराई गई थी।
इस आंदोलन के दंड के रूप में धनसिंह कोतवाल के ग्राम के और आसपास के लोगों को अधिक लगान देकर और अपनी जान देकर चुकाना पड़ा। इसी लगान वसूली की योजना को सफलतापूर्वक लागू करने के लिए मुखिया और लंबरदार अंग्रेजों द्वारा नियुक्त किए गए थे जो लगान वसूल कर सरकार को देते थे।ग्राम के क्षेत्र को कई भागों में बांट कर उनको महल कहा जाता था ।एक महल का एक लंबरदार होता था। ऐसे लंबरदार का यह उत्तरदायित्व था कि वह भूमि के जोतने बोने वाले किसान को लगान ना देने पर भूमि से बेदखल कर सकता है। तथा नए किसान को भूमि दे सकता है।
यह लंबरदार और मुखिया ऊंची दर पर लगान निर्दयता पूर्वक वसूलते थे । लगान वसूलने में अमानवीय उत्पीड़न भी करते थे। किसानों को लगान के नाम पर अपमानित किया जाता था। सरेआम कोड़े लगाए जाते थे।लगान न देने पर किसान को चारपाई के पाए के नीचे हाथ रखने पर विवश करना और ऊपर चारपाई पर मुखिया या लंबरदार का बैठना, कितना अपमानजनक एवं तकलीफ दे होता होगा।
यह कहना नहीं होगा कि धन सिंह कोतवाल भी एक किसान परिवारों से थे। धन सिंह कोतवाल के पिता भी एक मुखिया थे। जो किसान लगान नहीं दे पाते थे उनको धन सिंह कोतवाल के पिता अपने अहाते में बुलाकर कठोर सजा दिया करते थे। इन्हीं घटनाओं को देखते हुए बचपन में कोतवाल धनसिंह के मन में विद्रोह की भावना अंग्रेजो के खिलाफ घर कर गई थी। इसी घटना से प्रभावित होकर 1857 की क्रांति का सूत्रपात हुआ।
इससे पूर्व सन 1674 में शिवाजी भोसले (जिनको गुर्जर कहा जाता है ) की ताजपोशी के बाद उनका उदय हो चुका था जिसकी वीरता किसी से छिपी नहीं ।औरंगजेब से उन्होंने लड़ाई लड़ी ।इसी मराठा साम्राज्य ने 18वीं सदी के प्रथम भाग में सहारनपुर तक का क्षेत्र मुगलों से जीत लिया था ।यद्यपि 1761 में मराठा पानीपत की तीसरी लड़ाई में अफगान के अहमद शाह अब्दाली से हारकर पंजाब का बहुत सारा क्षेत्र गंवा चुके थे।( शिवाजी पर अलग से लेख पढ़ सकते हैं)
3 मार्च सन 1707 में जब औरंगजेब की मृत्यु हो गई तो उसकी मृत्यु के बाद गुर्जरों ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अपना प्रभुत्व स्थापित करना प्रारंभ कर दिया था।
क्योंकि गुर्जर जाति के बहादुर एवं स्वाभिमानी लोग अपने छिने हुए राज्य को वह विदेशी शासकों द्वारा अपमानित किए जाने की घटना को भूल नहीं पा रहे थे। इतिहास में हमको यह जाता भी है किशन 1036 तक कन्नौज में गुर्जर प्रतिहार शासकों का शासन रहा ।उसके बाद सन 1197 तक कन्नौज में गहडवाल वंश के शासकों का शासन रहा इसके बाद दिल्ली पर 1192 तक पृथ्वीराज चौहान गुर्जर सम्राट (यद्यपि कुछ राजपूतों को इस शब्द पर आपत्ति है)का शासन रहा 1060 तक प्रमार (परमार) राजा भोज गुर्जर का राज रहा।
इस प्रकार हम देखते हैं कि गुर्जर राजाओं के राज्य छिन जाने के बाद गुर्जरों के मन में विदेशी आक्रमणकारियों के प्रति प्रतिशोध की ज्वाला सुलग रही थी ।जो अनुकूल परिस्थितियों आने पर यही ज्वाला क्रांति के रूप में ज्वाजल्यमान हो उठी।
इसके बाद भी विशेष रुप से समथर गढ़, लोहागढ़, कुंजा बहादुरपुर ,परीक्षितगढ़, दादरी ,टीमली, लंढोरा, मुंडलाना आदि गुर्जरों की रियासत शेष थी।
इसलिए धन सिंह चपराना गुर्जर कोतवाल मेरठ, राव उमराव सिंह भाटी दादरी , राव कदम सिंह परीक्षितगढ़, विजय सिंह पथिक के दादा नवाब वालिदाद खान के प्रधानमंत्री निवासी ग्राम गुठावली जिला बुलंदशहर का क्रांतिकारी के रूप में उभरना बिना किसी कारण के नहीं था ।बल्कि उनकी रगों में जो क्रांति नायकों का खून बह रहा था वह 1857 की क्रांति उसी का परिणाम था।
इंपीरियल गजेटियर ऑफ इंडिया में 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के दौरान गुर्जरों का अंग्रेजों के सबसे कट्टर विरोधी (most irreconcilable enemies)के रूप में लिखा है ।
इसमें विशेष रूप से समथर गढ़ ,लोहागढ़ ,कुंजा बहादुरपुर, परीक्षितगढ़, दादरी ,टीमली ,लंढौरा, मुंडलाना आदि गुर्जरों की रियासत थी।
परंतु जब 1803 में अंग्रेजों ने दोआबा पर अधिकार कर लिया तो उससे गुर्जरों की रियासत कमजोर हो गई । गुर्जर जाति उसको पुनः अपनी खोई हुई शक्ति को प्राप्त करने वह अपने अपमान का बदला लेने के लिए सदियों से आतुर थी। इसी उद्देश्य की पूर्ति हेतु सन 1824 में कुंजा बहादुरपुर के तालुकदार विजय सिंह और कल्याण सिंह उर्फ़ कलुआ गुर्जर के नेतृत्व में सहारनपुर में जोरदार विद्रोह हुआ। जिसमें पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सभी गुर्जरों ने इसमें बढ़ चढ़कर भाग लिया । दुर्भाग्यवश उस समय का आंदोलन सफल नहीं हो पाया था। लेकिन 1824 के इस संग्राम के बाद 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के क्रांति बीज पड़ चुके थे।
इस प्रकार हम देखते हैं कि गुर्जरों का बहुत ही गौरवशाली शौर्य शाली, बलिदानी इतिहास भारत की स्वतंत्रता संग्राम के विषय में रहा है।
वास्तव में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के तत्कालीन क्षेत्र देहरादून से लेकर दिल्ली तक मुरादाबाद ,बिजनौर, आगरा, झांसी, पंजाब और राजस्थान से लेकर महाराष्ट्र के गुर्जर स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े। अनेकों गुर्जर शहीदों ने अपने प्राण उत्सर्ग किए। अंग्रेजों ने दंडित करने के लिए बहुत से गुर्जरों को अपने दूसरे उपनिवेश में मजदूर के रुप में बसाया और उनसे मजदूरी करवाई।
अप्रैल 1857 की एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटना।
मई 1857 से पहले की एक घटना बहुत ही महत्वपूर्ण है जब अप्रैल का महीना था और किसान अपने गेहूं की फसल को उठाने में व्यस्त थे। दिन में करीब 10:00 या 11:00 बजे दो अंग्रेज उनके साथ एक मैम थी जो ग्राम पांचली खुर्द के आमों के बाग में आकर सुस्ताने लगे थे। ग्राम पाचली के 3 किसान मंगतसिंह, नरपत सिंह और भंवर सिंह से इन अंग्रेजों ने पानी पीने की इच्छा जताई परंतु उक्त तीनों ने अंग्रेजों को पानी नहीं पिलाया । इस घटना को लेकर वहां झगड़ा हुआ। तथा किसानों ने मैम को पकड़ लिया और उससे अपने बैलों की दांय चल वाई। एक अंग्रेज को हाथ पैर बांधकर गरम रेत में डाल दिया। दूसरे अंग्रेज ने जाकर मेरठ में सूचना दी तो वहां से 25-30 सिपाहियों के साथ वह पुन: उस स्थान पर आया। किसानों ने जो उनके हथियार छीने थे और सोने की मूठ वाली तलवार थी ,को रिकवर किया। इस वजह से भी अंग्रेजों ने अपनी दंड नीति उन किसानों के विरुद्ध अपनाई एवम धनसिंह कोतवाल के पिता को आदेश दिया गया कि इन तीनों को पकड़ कर हमें सौंपा जाए ,नहीं तो इसकी सजा सारे गांव वालों को और मुखिया को भुगतनी पड़ेगी। इस घटना के बाद बहुत से ग्रामवासी डर के कारण गांव छोड़कर भाग गए। अंग्रेजों के ज्यादा दबाव के सामने नरपत सिंह और भजन सिंह ने आत्मसमर्पण कर दिया। दोनों किसानों को 30-30 कोड़े और जमीन से बेदखली की सजा दी गई। फरार मंगतसिंह के तीन पारिवारिक सदस्यों को गांव के निकट ही फांसी पर लटका दिया गया। धन सिंह कोतवाल के पिता के द्वारा मंगतसिंह को ढूंढने में असफल रहने पर 6 महीने के कठोर कारावास की सजा सुनाई गई ।इसलिए भी धन सिंह का मन अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोही बन गया था।
अब घटना को विस्तार पूर्वक निम्न प्रकार देखते हैं।
वास्तव में दिनांक 6 मई 1857 को 90 भारतीय जवानों में से 85 ने वह कारतूस मुंह से खोलने से मना कर दिया , जिस राइफल के कारतूस में गाय और सूअर की चर्बी लगी होने की चर्चा फैल गई थी।
इन 85 भारतीय सैनिकों का कोर्ट मार्शल करते हुए अंग्रेजों ने उन्हें आजीवन कारावास की सजा दी। जो मेरठ की जेल में बंद थे , इसके अलावा 836 भारतीय लोग इसी विक्टोरिया जेल में बंद थे।
तभी 10 मई 1857 को सुबह-सुबह कोतवाल धनसिंह चपराणा ने अंग्रेजों पर यकायक गोलियां चलानी शुरू कर दीं । जब तक वह समझ पाते और संभल पाते तब तक बहुत सारे अंग्रेज मार दिए गए और विक्टोरिया जेल का फाटक खोल कर वह 85 सैनिक तथा शेष 836 अन्य कैदी लोग जेल से मुक्त कर दिए गए । यह सभी लोग एक साथ हथियार लेकर अंग्रेजों पर टूट पड़े। इस प्रकार मेरठ से प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का बिगुल बज गया। इस क्रांति के नायक कोतवाल धनसिंह गुर्जर बने।
संक्षिप्त इतिहास।
14 फरवरी 1483 को बाबर का जन्म हुआ। जो दिनांक 17 नवंबर 1525 ई0 को पांचवीं बार सिंध के रास्ते से भारत आया था। जिसने 27 अप्रैल 1526 को दिल्ली की बादशाहत कायम की। 29 जनवरी 1528 को राणा सांगा से चंदेरी का किला जीत लिया।
लेकिन 4 वर्ष पश्चात ही दिनांक 30 दिसंबर 1530 को धौलपुर में बाबर की मृत्यु हो गई। महारानी एलिजाबेथ प्रथम ने 31 दिसंबर 1600 ई0 को ईस्ट इंडिया कंपनी की स्वीकृति दी।
2 जनवरी 1757 को नवाब सिराजुद्दौला से ईस्ट इंडिया कंपनी ने कोलकाता छीन लिया । 9 फरवरी 1757 को संधि हुई । जिसमें काफी रियासत अंग्रेजों को दी गई। लेकिन 13 फरवरी 1757 को लखनऊ सहित अवध पर कब्जा कर लिया।
23 जून 1757 को प्लासी का युद्ध लॉर्ड क्लाइव के नेतृत्व में अंग्रेजी सेना,और मुगल सेना के बीच हुआ जिसमें विशाल मुगल सेना का सेनापति मीर जाफर लॉर्ड क्लाइव से दुरभिसन्धि करके षड्यंत्र के तहत जानबूझकर हार गया।
20 दिसंबर 1757 को लॉर्ड क्लाइव बंगाल का गवर्नर बना। 30 दिसंबर 1803 को दिल्ली के साथ-साथ पश्चिमी उत्तर प्रदेश एवं कई अन्य शहरों पर ईस्ट इंडिया कंपनी का आधिपत्य हो गया। 26 फरवरी 1857 को पश्चिम बंगाल के बुरहानपुर में आजादी की लड़ाई की शुरुआत हुई। जिसमें मंगल पांडे को 8 अप्रैल 1857 को खड़कपुर की बैरक में फांसी दे दी गई।
हमें क्रांतिवीर मंगल पांडे के विषय में यह जान लेना चाहिए कि बैरकपुर में कोई जल्लाद नहीं मिलने पर ब्रिटिश अधिकारियों ने कलकत्ता से चार जल्लाद इस महान प्रथम क्रांतिकारी को फांसी देने के लिए बुलवाए थे। जिन्होंने उन्हें फांसी देने से मना कर दिया था। इस समाचार के मिलते ही कई छावनियों में ईस्ट इंडिया कंपनी के विरुद्ध असंतोष भड़क उठा । इसे देखते हुए उन्हें 8 अप्रैल 1857 की सुबह ही फांसी पर लटका दिया गया । इतिहासकार किम ए. वैगनर की किताब ‘द ग्रेट फियर ऑफ 1857 – रयूमर्स, कॉन्सपिरेसीज एंड मेकिंग ऑफ द इंडियन अपराइजिंग’ में बैरकपुर में अंग्रेज अधिकारियों पर हमले से लेकर मंगल पांडे की फांसी तक के घटनाक्रम के बारे में सभी तथ्यों का विस्तार से वर्णन किया गया है ।. ब्रिटिश इतिहासकार रोजी लिलवेलन जोंस की किताब ‘द ग्रेट अपराइजिंग इन इंडिया, 1857-58 अनटोल्ड स्टोरीज, इंडियन एंड ब्रिटिश में बताया गया है कि 29 मार्च की शाम मंगल पांडे यूरोपीय सैनिकों के बैरकपुर पहुंचने को लेकर बेचैन थे । उन्हें लगा कि वे भारतीय सैनिकों को मारने के लिए आ रहे हैं ।इसके बाद उन्होंने अपने साथी सैनिकों को उकसाया और ब्रिटिश अफसरों पर हमला किया । उन्हें 18 अप्रैल 1857 के दिन फांसी देना निश्चित किया गया था । परंतु जब जल्लादों ने उन्हें फांसी देने से इनकार कर दिया तो नियत तिथि से 10 दिन पहले ही 8 अप्रैल को क्रांतिकारी मंगल पांडे को फांसी की सजा दे दी गई थी। हम क्रांतिकारी मंगल पांडे का पूरा सम्मान करते हुए और उनकी क्रांति के प्रति समर्पण की भावना को नमन करते हुए यह स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि मेरठ की क्रांति से उनका कोई संबंध नहीं था।
परंतु यह संभव है कि धन सिंह कोतवाल ने इस महान क्रांतिकारी से प्रेरणा लेकर 10 मई 1857 की क्रांति का बिगुल बजा दिया हो। इस दृष्टिकोण से मंगल पांडे को प्रथम क्रांतिकारी कहा जा सकता है।
10 जनवरी 1818 को मराठों और अंग्रेजो के बीच तीसरी और अंतिम लड़ाई हुई थी। वास्तव में शूरवीर महाराणा प्रताप छत्रपति शिवाजी महाराज, महाराजा रणजीत सिंह आदि भी आजादी के दीवाने थे । उन्हीं से प्रेरणा लेकर मई 1857 का स्वतंत्रता संग्राम प्रारंभ हुआ था। 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में तात्या टोपे , रानी लक्ष्मीबाई , चांद बेगम ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।राजस्थान के शहर कोटा में लाला जयदयाल कायस्थ , मेहराब खान पठान ने 15 अक्टूबर 1857 को विद्रोह किया । जिनको अंग्रेजों ने फांसी लगाई थी , अदालत के सामने शहीद चौक उसी स्थान पर बना है।
इसके अलावा सम्राट नागभट्ट प्रथम , बप्पा रावल, नागभट्ट द्वितीय , कन्नौज के प्रतिहार गुर्जर सम्राट मिहिर भोज, गुर्जर नरेश राजा भोज परमार धारानगर, गुरु तेग बहादुर ,गुरु गोविंद सिंह, बंदा वीर बैरागी ,वीर हकीकत राय आदि अनेकों क्रांतिकारी महापुरुष कोतवाल धन सिंह गुर्जर के प्रेरणा स्रोत थे।
10 मई 1857 को मेरठ से इस क्रांति का जब बिगुल बजा तो इस स्वतंत्रता संग्राम की चिंगारी पूरे भारतवर्ष में बहुत ही शीघ्रता के साथ फैल गई और प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के यह सैनिक 11 मई 1857 को तत्कालीन मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर से मिले और उन्होंने बहादुर शाह जफर को नेतृत्व संभालने के लिए आग्रह किया । लेकिन तत्समय भारत पर शासन करने वाली ईस्ट इंडिया कंपनी ने भी पराजय के बाद शीघ्रता से कार्यवाही कर क्रांतिकारियों का दमन करते हुए सत्ता पर अपनी पकड़ बनाने का प्रयास किया। जिसे इतिहास में प्रति क्रांति के नाम से जाना जाता है ।
दिल्ली में अंग्रेज अपने आपको बचाने के लिए कोलकाता गेट पर पहुंच गए । यमुना किनारे बनी चुंगी चौकी में आग लगाए जाने और टोल कलेक्टर की हत्या की जानकारी मिलने के बाद दिल्ली में तैनात लगभग सभी प्रमुख अंग्रेज तथा अधिकारी अपने नौकरों सहित कोलकाता गेट पहुंच गए। कोलकाता गेट यमुना पार कर दिल्ली आने वालों के लिए सबसे नजदीकी गेट था । 11 मई को सुबह मेरठ से क्रांतिकारी सैनिकों के दिल्ली में प्रवेश करने के बाद अंग्रेज इस बात को सोचने के लिए विवश हो गए कि क्रांतिकारी फिर इसी गेट से दिल्ली में घुसने का प्रयास करेंगे । इसलिए यहां अतिरिक्त फौजी तैनाती का हुक्म दिया गया । आज के यमुना बाजार के निकट कोलकाता गेट हुआ करता था । लेकिन आज वहां पर उपलब्ध नहीं है , क्योंकि बाद में जब अंग्रेजो के द्वारा रेलवे लाइन यहां से निकाली गई तो वह गेट तोड़ना पड़ा था।
11 मई 1857 को दिल्ली के ज्वाइंट कमिश्नर थियोफिलस मैटकॉफ जान बचाकर भागे थे । कोलकाता गेट के पास क्रांतिकारी सिपाहियों के साथ हुई मुठभेड़ के बाद कैप्टन डग्लस और उसके सहयोगी भागते हुए लालकिले के लाहौरी गेट तक पहुंचे थे । उसके बाद दिल्ली में जो स्थितियां पैदा हुईं उसमें अंग्रेजों को जान के लाले पड़ गए । जिसे जहां अवसर प्राप्त होता था, वहीं वह हमला कर देता था
। अंग्रेजों को इससे बचने के लिए जगह जगह शरण लेनी पड़ी।
दादरी जिला बुलंदशहर में एक छोटी सी रियासत हुआ करती थी । दादरी के अलावा कठेड़ा, बढ़पुरा, महावड़ ,चिटेहरा,बील अकबरपुर,नगला नैनसुख सैंथली,लुहार्ली , चीती , देवटा,आदि गांव के क्रांतिकारियों ने एकजुट होकर अंग्रेजी शासन को उखाड़ फेंकने के लिए बिगुल बजाया था । दादरी तत्कालीन राव दरगाही सिंह की रियासत हुआ करती थी , जिनकी मृत्यु 1819 में हो गई थी। उनका बेटा राव रोशनसिंह था तथा राव उमराव सिंह ,राव विशन सिंह, राव भगवंत सिंह उनके भतीजे इस प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में शामिल हुए थे । जिन्होंने अंग्रेजी सेना को बुलंदशहर की तरफ से कोट के पुल से आगे नहीं बढ़ने दिया था। दिल्ली में बादशाह जफर से मिलकर उनके नेतृत्व में अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध लड़ा ।बुलंदशहर जिले में ही एक छोटा सा मालागढ़ ग्राम होता था । जिसका नवाब वलीदाद खान था, जो बहादुर शाह जफर का रिश्तेदार था, इसी मालागढ़ के नवाब के यहां श्री इंदर सिंह राठी गुर्जर निवासी ग्राम गुठावली जनपद बुलंदशहर दीवान थे ।दीवान का पद उस समय प्रधानमंत्री के समकक्ष था । जो इस क्रांति में कोतवाल धन सिंह एवं दादरी के राव उमराव सिंह के साथ अग्रणी भूमिका में थे। इसके अलावा इंदर सिंह राठी गुर्जर के पुत्र हमीर सिंह राठी गुर्जर भी प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में अपने पिता के साथ कूद पड़े।
प्रधानमंत्री मलागढ़ श्री इंदर सिंह राठी गुर्जर को कोअपने प्राण गंवाने पड़े।
27 फरवरी अट्ठारह सौ बयासी को हमीर सिंह राठी के यहां पुत्र भूप सिंह राठी पैदा हुआ। जो आगे चलकर के विजय सिंह पथिक के नाम से इतिहास पुरुष बना। श्री विजय सिंह पथिक के हृदय में अंग्रेजों के विरुद्ध जो क्रांति के भाव पडे थे ,वह अपने पिता एवं दादा के क्रांतिकारी जीवन से उदाहरण लेकर ही पड़े थे। उनकी माता श्रीमती कमला कुमारी भी वीरांगना थी ।
मेरठ से क्रांतिकारी शहीद धन सिंह कोतवाल गुर्जर ,दादरी से राव उमराव सिंह गुर्जर ,मालागढ़ के नवाब के प्रधानमंत्री इंदर सिंह राठी गुर्जर तीनों का मात्र एक संयोग नहीं था बल्कि एक सोची-समझी हुई रणनीति थी । जिसके तहत भारत को आजाद कराने की ज्वाला ह्रदय में स्थित होने का प्रमाण है।
उपरोक्त सभी क्रांतिकारियों की योजना के अनुसार
राव उमराव सिंह ,रोशन सिंह ने तोपखाना से 30 व 31 मई को गाजियाबाद के हिंडन नदी के पुल पर अंग्रेज सेना को दिल्ली जाने से रोका था । जहां पर अंग्रेजों की कब्रें आज भी बनी हुई है ।यह कार्यवाही नवाब वलिदाद खान मालागढ़ और दादरी के रियासतदार राव उमराव सिंह एवं अन्य क्रांतिकारियों के कुशल नेतृत्व में हुई थी।
अंग्रेजी सेना के काफी सैनिक एवं अधिकारी वहां पर मारे गए थे और अंग्रेजी सेना वहां से भागकर मेरठ की तरफ गई और मेरठ से उन्हें दिल्ली के लिए बागपत के रास्ते से आए थे । बागपत के रास्ते पर स्थित एक जाति विशेष के गांवों के लोगों ने क्रांतिकारियों के साथ विश्वासघात करते हुए अंग्रेजों को शरण दी तथा दिल्ली जाने के लिए अंग्रेजों का रास्ता सुगम किया। जिन को अंग्रेजों ने सर की उपाधि तथा जमीदार जागीरदार बनाया था और गुर्जरों से विद्वेष करते हुए most irreconcilable enemies आदि शब्दों का प्रयोग किया था जिसका तात्पर्य होता है कि उनसे किसी प्रकार भी समझौता नहीं किया जा सकता। इसका दूसरा तात्पर्य होता है कि गुर्जरों के अतिरिक्त अन्य जाति के लोगों से भारतवर्ष में समझौता हो सकता है। वे लोग कौन थे जिन से समझौता हो सकता है, जो सर की उपाधि लेकर के यहां जागीरदार, जमीदार बने, यह किसी से छिपा नहीं है। आज भी वही लोग यहीं पर हमारे बीच रहते हैं।
यह एक बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है कि दादरी के इन शहीदों को इतिहास में उचित स्थान नहीं मिला।
क्रांतिकारियों ने सिकंदराबाद के पास अंग्रेजी सेना का खजाना लूट लिया । अपने पैतृक ग्राम गुलावठी के पास प्रधान सेनापति इंदर सिंह राठी गुर्जर के द्वारा दो दर्जन अंग्रेज सिपाहियों को मौत के घाट उतार दिया गया । उनके 90 घोड़े छीन लिए । अलीगढ़ से दादरी और गाजियाबाद तक क्रांतिकारी अंग्रेजों के सामने कठिन चुनौती पेश करते रहे इस सबसे नाराज होकर अंग्रेजों ने एक दिन रात में दादरी रियासत पर हमला कर दिया।
जिसमें कई क्रांतिकारी शहीद हुए।
अंग्रेज जितना अपनी नींव को भारतवर्ष में जमाने का प्रयास कर रहे थे , उतना ही भारतीय जनता उनके खिलाफ हो रही थी । इसका प्रभाव राजपूताना क्षेत्र में नसीराबाद , देवली , अजमेर , कोटा , जोधपुर आदि जगहों पर भी देखने को मिला था । राजपूताना में उस समय अट्ठारह रजवाड़े थे और वे सभी देशी शासक अंग्रेज राज्य के प्रबल समर्थक थे , फिर भी यहां के छोटे जागीरदारों एवं जनता का मानस अंग्रेजों के विरुद्ध था , जिसके फलस्वरूप मेरठ में हुई क्रांति का प्रभाव पड़ा।
मेरठ क्रांति के क्रांतिकारियों को अंग्रेजों ने बुलंदशहर चौराहे पर कत्लेआम अर्थात कालाआम के पेड़ पर लटका कर फांसी दी । जिसमें उस समय के बुलंदशहर और मेरठ जनपद के अनेकों गांवों के लोगों को भी यत्र तत्र फांसी के फंदे पर लटका दिया गया था। स्वयं लेखक के पूर्वज चौधरी सुलेखा सिंह निवासी ग्राम महावड़ तत्कालीन तहसील सिकंदराबाद जिला बुलंदशहर (वर्तमान में तहसील दादरी जनपद गौतम बुद्ध नगर) को भी इसी समय फांसी पर लटकाया गया था। कवि ने कितने अच्छे शब्दों में कहा है कि :-
स्वतंत्रता रण के रणनायक अमर रहेगा तेरा नाम।
नहीं स्मारक की जरूरत खुद स्मारक तेरा नाम ।।
मां हम फिदा हो जाते हैं विजय केतु फहराने आज।
तेरी बलिवेदी पर चढ़कर मां जाते शीश कटाने आज।।
महर्षि दयानंद और 18 57 क्रांति में उनका योगदान।
1857 की क्रांति न केवल भारत के राष्ट्रीय इतिहास के लिए अपितु आर्य समाज जैसी क्रांतिकारी संस्था के लिए भी एक महत्वपूर्ण वर्ष है । इस समय भारत के उस समय के चार सुप्रसिद्ध संन्यासी देश में नई क्रांति का सूत्रपात कर रहे थे। इनमें से स्वामी आत्मानंद जी की अवस्था उस समय 160 वर्ष थी। जबकि स्वामी आत्मानंद जी के शिष्य स्वामी पूर्णानंद जी की अवस्था 110 वर्ष थी । उनके शिष्य स्वामी विरजानंद जी उस समय 79 वर्ष के थे तो महर्षि दयानंद की अवस्था उस समय 33 वर्ष थी।
बहुत कम लोग जानते हैं कि इन्हीं चारों संन्यासियों ने 1857 की क्रांति के लिए कमल का फूल और चपाती बांटने की व्यवस्था की थी ।
कमल का फूल बांटने का अर्थ था कि जैसे कीचड़ में कमल का फूल अपने आपको कीचड़ से अलग रखने में सफल होता है , वैसे ही हमें संसार में रहना चाहिए अर्थात हम गुलामी के कीचड़ में रहकर भी स्वाधीनता की अनुभूति करें और अपने आपको इस पवित्र कार्य के लिए समर्पित कर दें । गुलामी की पीड़ा को अपनी आत्मा पर न पड़ने दें बल्कि उसे एक स्वतंत्र सत्ता स्वीकार कर स्वतंत्रता की प्राप्ति के लिए साधना में लगा दें।
इसी प्रकार चपाती बांटने का अर्थ था कि जैसे रोटी व्यवहार में और संकट में पहले दूसरे को ही खिलाई जाती है , वैसे ही अपने इस जीवन को हम दूसरों के लिए समर्पित कर दें । हमारा जीवन दूसरों के लिए समर्पित हो जाए , राष्ट्र के लिए समर्पित हो जाए ,लोगों की स्वाधीनता के लिए समर्पित हो जाए। ऐसा हमारा व्यवहार बन जाए और इस व्यवहार को अर्थात यज्ञीय कार्य को अपने जीवन का श्रंगार बना लें कि जो भी कुछ हमारे पास है वह राष्ट्र के लिए है , समाज के लिए है , जन कल्याण के लिए है।
स्वतंत्रता का प्रथम उद्घोष।
अपने भारतभ्रमण के दौरान देशवासियों की दुर्दशा देख कर महर्षि इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि पराधीन अवस्था में धर्म और देश की रक्षा करना कठिन होगा , अंगेजों की हुकूमत होने पर भी महर्षि ने निडर होकर उस समय जो कहा था , वह आज भी सत्यार्थप्रकाश में उपलब्ध है , उन्होंने कहा था ,
“चाहे कोई कितना ही करे, किन्तु जो स्वदेशी राज्य होता है, वह सर्वोपरि उत्तम होता है। किन्तु विदेशियों का राज्य कितना ही मतमतान्तर के आग्रह से शून्य, न्याययुक्त तथा माता-पिता के समान दया तथा कृपायुक्त ही क्यों न हो, कदापि श्रेयस्कर नहीं हो सकता”
(महर्षि दयानंद के विषय में अनेक महापुरुषों के वचन अलग से पढ़े जा सकते हैं)
18 57 से लेकर 59 तक महर्षि दयानंद ने भूमिगत रहकर देश के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में विशेष योगदान दिया। इसके बाद 1860 में सार्वजनिक मंच पर दिखाई पड़े।
महर्षि दयानंद ने यह बात संवत 1913 यानी सन 1855 हरिद्वार में उस समय कही थी, जब वह नीलपर्वत के चंडी मंदिर के एक कमरे में रुके हुए थे , उनको सूचित किया गया कि कुछ लोग आपसे मिलने और मार्ग दर्शन हेतु आना चाहते हैं , वास्तव में लोग क्रांतिकारी थे , उनके नाम थे —
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1.धुंधूपंत – नाना साहब पेशवा ( बालाजी राव के दत्तक पुत्र )
.2. बाला साहब .
3.अजीमुल्लाह खान .
4.ताँतिया टोपे .
5.जगदीश पर के राजा कुंवर सिंह .
इन लोगों ने महर्षि के साथ देश को अंगरेजों से आजाद करने के बारे में मंत्रणा की और उनको मार्ग दर्शन करने का अनुरोध किया ,निर्देशन लेकर यह अपने अपने क्षेत्र में जाकर क्रांति की तैयारी में लग गए , इनके बारे में सभी जानते हैं।
महर्षि और रानी लक्ष्मीबाई की भेंट
सन् 1855 ई. में स्वामी जी फर्रूखाबाद पहुंचे। वहॉं से कानपुर गये और लगभग पॉंच महीनों तक कानपुर और इलाहाबाद के बीच लोगों को जाग्रत करने का कार्य करते रहे। यहॉं से वे मिर्जापुर गए और लगभग एक माह तक आशील जी के मन्दिर में रहे। वहॉं से काशी जाकर में कुछ समय तक रहे.स्वामीजी के काशी प्रवास के दौरान झांसी की रानी लक्ष्मीबाई उनके मिलने गई .रानी ने महर्षि से कहा कि ” मैं एक निस्संतान विधवा हूँ , अंग्रजों ने घोषित कर दिया है कि वह मेरे राज्य पर कब्ज़ा करने की तैयारी कर रहे हैं ,और इसके झाँसी पर हमला करने वाले हैं. अतः आप मुझे आशीर्वाद दीजिये कि मैं देश की रक्षा हेतु जब तक शरीर में प्राण हों फिरंगियों से युद्ध करते हुए शहीद हो जाऊँ .महर्षि ने रानी से कहा ,” यह भौतिक शरीर नाशवान है इसे अपने देश के लिए लगाओ। ।
इस विषय में देवेंद्र बाबू मुखोपाध्याय जी ने निम्न प्रकार लिखा है।
दय सारे भारतवर्ष में एक शास्त्र प्रतिष्ठित हो । एक देवता अर्थात परमपिता परमात्मा एक ईश्वर पूजित हो ।एक जाति संगठित हो और एक भाषा (हिंदी जिसका मूल रूप संस्कृत है वह ,)प्रचलित हो यही नहीं उन्हें केवल सदिच्छा और उत्साह ही था। वरन् वह इस इच्छा और उत्साह को किसी अंत तक इस कार्य में परिणत करने में भी कृत कार्य हुए थे ।अतः स्वामी दयानंद केवल सन्यासी ही नहीं थे ,केवल वेद व्याख्या ही नहीं थे, केवल शास्त्रों का मर्म उद्घाटन करने में ही निपुण नहीं थे ,केवल तार्किक ही नहीं थे, केवल दिग्विजय पंडित ही नहीं थे, वरन वह भारतीय एकता और जातीयता राष्ट्रीयता के प्रतिष्ठता भी थे ।इसलिए भारत की आचार्य मडली अथवा सन्यासियों में स्वामी दयानंद का स्थान विशिष्ट एवं अद्वितीय है।
भाई परमानंद डॉक्टर माणिकलाल बैरिस्टर डॉक्टर चिरंजीव भारद्वाज, स्वामी भवानी दयाल ,स्वामी स्वतंत्रता नंद ,पंडित अमीचंद विद्यालंकार , गोपेंद्र नारायण ,स्वामी शंकराचार्य, जैसे राष्ट्रभक्त भक्तों को स्वामी जी के विचारों से प्रेरणा मिली।
जिन्होंने विदेशों में स्वतंत्रता की ज्योति को जलाए रखा।
विदेशों के अतिरिक्त देश के अंदर भी कोने कोने में आर्य समाजी सन्यासी वृंद और भजन उपदेश को ने वेद धर्म की धूम मचा कर लोगों को देश की स्वतंत्रता के राष्ट्रीय क्रांतिकारी आंदोलन में भाग लेने के लिए प्रेरित किया। देश में राष्ट्रधर्म की ज्योति जगाने वाले आर्य समाजी सन्यासियों में स्वामी विश्वेरानंद जी स्वामी नित्यानंद जी स्वामी दर्शनानंद जी स्वामी सत्यानंद जी जो पूर्व में जैनी गुरु थे स्वामी सर्वानंद जी स्वामी ओंकार सच्चिदानंद जी स्वामी अनुभवानंद जी स्वामी मुनीश्वर आनंद जी पंडित गणपति शर्मा स्वामी अच्युतानंद जी पंडित तुलसीराम स्वामी आदि का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है।
इस प्रकार आर्य समाज ने अध्यात्म वाद को पूर्ण राष्ट्रवाद की तरफ परिणत कर दिया था। महर्षि दयानंद की भूमिका महत्वपूर्ण प्राथमिक है।
बहादुर शाह जफर और 1857 की क्रांति
बहादुर शाह ज़फर (1775-1862) भारत में मुग़ल साम्राज्य के आखिरी शहंशाह, और उर्दू के जानेे-माने शायर थे। उन्होंने 1857 का प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भारतीय सिपाहियों का नेतृत्व तो किया मगर काफी हील हुज्जत के बाद ,क्योंकि तब तक उनको बुढ़ापा आ चुका था ,उनका उत्साह पुराना हो चुका था। युद्ध में हार के बाद अंग्रेजों ने उन्हें बर्मा (अब म्यांमार) यंगून ( रंगून)भेज दिया , कुछ वर्ष बाद यही उनकी मृत्यु हुई ।
7 नवंबर 1862 को बहादुरशाह जफर का जब रंगून में देहांत हुआ तो उन्होंने उस समय लिखा थाबी कि :–
कितना है बदनसीब ज़फर दफन के लिए
दो गज जमीन भी न मिली कूए यार में।
इन पंक्तियों में उनकी देशभक्ति के साथ ही अपनी माटी के लिए उनकी दिली मुहब्बत भी झलकती है।
उसी प्रकार दिल्ली के लालकिले को छोड़ते समय भी बहादुरशाह जफर ने बड़े मार्मिक शब्दों में कहा था :–
दरो दीवार को बड़ी हसरत से नजर करते हैं।
खुश रहो अहले वतन हम तो सफर करते हैं।।
कुछ अन्य महत्वपूर्ण योगदान
भारत की आजादी के क्रांतिकारी आंदोलन में बचपन में जिनका नाम भूप सिंह राठी जो इंदर सिंह राठी प्रधानमंत्री माला गढ़ नवाब का पोता और हम्मीर सिंह राठी का पुत्र था, प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से श्री विजयसिंह पथिक और केसरीसिंह बारहट के अनुपम त्याग और बलिदान से अन्य क्रांतिकारियों को प्रेरणा मिलती रही।
इस क्रांति में दोनों पक्षों के 100000 से अधिक व्यक्ति मृतक हुए थे। यह वास्तव में सैनिक विद्रोह नहीं कहा जा सकता बल्कि भारतीय जनमानस की स्वतंत्रता प्राप्ति की प्रबल इच्छा इसमें दृष्टिगोचर होती है। इस क्रांति को पूर्णतया सफल बनाने के लिए क्रांति की योजना पर कार्य करते हुए नाना साहब ने वाराणसी, इलाहाबाद ,बक्सर, गया ,जनकपुर ,जगन्नाथपुरी, नासिक, आबू ,उज्जैन, मथुरा आदि की यात्रा की थी।
यह प्रश्न अलग है कि 1857 की सशस्त्र क्रांति अपने उद्देश्य को प्राप्त करने में पूर्णतया सफल नहीं रही परंतु इतना ही सत्य है कि भारतीय जनमानस में राष्ट्रवाद की भावना को पुनर्जागरण करने में और पुनर्स्थापित करने में किस क्रांति का महत्वपूर्ण योगदान है।
इतिहास में अमर हो गए 1857 के सभी बलिदानी। इसलिए 10 मई 1857 की तारीख भारत के इतिहास में अमिट रहेगी। भारतीयों में शताब्दियों से जो राष्ट्रवाद सुषुप्त अवस्था में पहुंच चुका था ।उसका पुनर्जागरण 10 मई 1857 को हुआ जिसमें एक भाव से एक उद्देश्य की प्राप्ति हेतु अपने पूर्ण आवेश और आवेग से स्त्री पुरुष आभार वृद्ध इस क्रांति को सफल बनाने में अपनी-अपनी आहुतियां डाल रहे थे। 1857 के यह सभी क्रांतिकारी भारत के स्वतंत्रता की नींव रखने में सफल हो गए थे ।इसको इस दृष्टिकोण से भी देखना और पढ़ना चाहिए। विदेशी आक्रांता उनके प्रति चाहे वह अंग्रेज हो अथवा अन्य मुसलमान आक्रांताओ सभी के प्रति विद्रोह और संघर्ष की भावना भारत के लोगों में सुलग रही थी। यद्यपि अंग्रेजो के खिलाफ हिंदू मुस्लिम दोनों ने ही मिलकर भारत की स्वतंत्रता का प्रयास किया था जो प्रशंसनीय है।
अंग्रेजों ने हिंदू और मुसलमानों को अलग अलग करने के लिए और भारतीय राष्ट्रवाद को हिंदू राष्ट्रवाद और मुस्लिम राष्ट्रवाद में बांटने की भी भरपूर कोशिश की थी। वस्तुतः स्वदेशी के प्रति एवं स्वदेशी शासन के प्रति लोगों में जागृति आ चुकी थी अपने मूल्यों अपनी भाषा और अपनी संस्कृति पर विदेशी मूल्य भाषा संस्कृति आक्रमण करें यह भारतीय लोगों को पसंद नहीं थी।
भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में साहित्यकारों का भी अनुपम योगदान रहा,जिनकी एक बहुत लंबी सूची है। यहां लेख माला के विस्तृत आकार को प्रदान करते हुए उनका नाम उल्लेख किया जाना संभव नहीं है।
जगदंबा प्रसाद हितेषी कविता के माध्यम से कहा कि –
‘शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले ।
वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशा होगा।
संगठित पहल का ही परिणाम था जो भारत 15 अगस्त 1947 को महर्षि दयानंद की भविष्यवाणी के अनुसार 90 वर्ष पश्चात स्वतंत्रता प्राप्ति हुई। क्योंकि महर्षि दयानंद ने 1857 में 100 वर्ष पश्चात स्वतंत्रता प्राप्ति की भविष्यवाणी की थी।
जिन्होंने 1857 की क्रांति के 50 वर्ष पश्चात पूर्ण होने के अवसर पर 1907 में इस क्रांति को भारत का प्रथम स्वाधीनता संग्राम घोषित करते हुए ब्रिटेन में रहते हुए ही पुस्तक लिखी थी । यह भी उतना ही सत्य है कि हम इस छोटे से लेख में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के कारण और उसमें भाग लेने वाले प्रत्येक शहीद का वीर का उल्लेख कर सके , इसलिए सभी सुधि पाठकों से क्षमा चाहता हूं कि अभी भी बहुत सारा इस पर लिखा जा सकता है ।
नेति -नेति।
अंत में इतना ही कहूंगा :-
उनकी तुरबत पर एक दिया भी नहीं ,
जिनके खून से जले थे चिराग ए वतन ।
आज दमकते हैं उनके मकबरे ,
जो चुराते थे शहीदों का कफन।।
देवेंद्र सिंह आर्य एडवोकेट
चेयरमैन : उगता भारत
लेखक उगता भारत समाचार पत्र के चेयरमैन हैं।