युद्ध क्षेत्र में राजा की युद्ध नीति
स्वामी दयानंद जी की देशभक्ति और राष्ट्रप्रेम की भावना को देखकर भारतवर्ष के अनेक महान स्वतंत्रता सेनानियों ने उनकी मुक्त कंठ से प्रशंसा की है। ऐसा कहने वाले वही लोग थे जिन्होंने स्वामी दयानंद जी के परिश्रम और पुरुषार्थ को पहचान लिया था और यह जान लिया था कि उनके कारण ही देश में फिर से राष्ट्रवाद की हवा बहनी आरंभ हुई और देश आजादी के लिए मचलने लगा। भारतीय स्वाधीनता संग्राम में ऋषि दयानंद जी की ऐतिहासिक भूमिका को स्वीकार करते हुए लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक जी ने कहा था कि स्वराज्य के प्रथम संदेश वाहक स्वामी दयानंद थे। इसी बात को स्वीकार करते हुए सरदार पटेल ने भी कहा है कि भारत की स्वतंत्रता की नींव स्वामी दयानंद जी महाराज ने डाली थी।
हमारे राष्ट्रवादी स्वाधीनता सेनानियों के विचार स्वामी जी के बारे में पढ़कर व जानकर यह स्पष्ट हो जाता है कि वह उनकी ऐतिहासिक महत्ता और स्वाधीनता आंदोलन में दिए गए उनके ऐतिहासिक योगदान को गहराई से समझते थे। इसका कारण केवल एक था कि स्वामी जी महाराज भारत और भारतीयता के लिए पूर्णतया समर्पित थे। स्वामी जी महाराज के विराट स्वरूप को नमन करते हुए नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने उन्हें आधुनिक भारत का निर्माता कह कर सम्मानित किया था।
युद्ध के समय की रणनीति
राजा की राज धर्म को स्पष्ट करते हुए स्वामी जी ने कहा है कि राजा को अपने प्रजा जनों की रक्षा के लिए प्रत्येक कार्य में सावधान रहना चाहिए। विशेष रुप से युद्ध काल में तो ऐसी व्यूह रचना करनी चाहिए कि प्रजा जन किसी भी प्रकार से शत्रु पक्ष की चपेट में न आने पाएं अर्थात सामान्य जनों की प्राणहानि न हो, इसकी पूरी व्यवस्था राजा को करनी चाहिए। युद्ध के लिए प्रस्थान करने से पूर्व राजा को अपने परिजनों की रक्षा के प्रति विशेष प्रबंध करके जाना चाहिए। इसके लिए विशेष अधिकारियों की नियुक्ति कर दी जानी चाहिए।
युद्ध के समय शत्रु के प्रति हमारी रण नीति कुछ इस प्रकार की होनी चाहिए :-
“तीन प्रकार के मार्ग अर्थात् एक स्थल (भूमि) में, दूसरा जल (समुद्र वा नदियों) में, तीसरा आकाशमार्गों को युद्ध बनाकर भूमिमार्ग में रथ, अश्व, हाथी, जल में नौका और आकाश में विमानादि यानों से जावे और पैदल, रथ, हाथी, घोड़े, शस्त्र और अस्त्र खानपानादि सामग्री को यथावत् साथ ले बलयुक्त पूर्ण करके किसी निमित्त को प्रसिद्ध करके शत्रु के नगर के समीप धीरे-धीरे जावे।
यहां पर महर्षि दयानंद द्वारा प्रयोग किया गया शब्द विमानादि विशेष रूप से उल्लेखनीय है। जिस समय स्वामी जी महाराज के द्वारा सत्यार्थ प्रकाश की रचना की गई थी, उस समय विमान संसार में नहीं थे। इसके उपरांत भी उन्होंने सत्यार्थ प्रकाश में महर्षि मनु के संबंधित श्लोक की व्याख्या करते हुए विमानादि शब्द का प्रयोग किया ,इसका अभिप्राय है कि जहां प्राचीन काल में विमानादि की निर्माण कला का ज्ञान हमारे पूर्वजों को था वहीं स्वामी दयानंद जी महाराज भी विमान आदि के ज्ञान विज्ञान के बारे में पूर्ण जानकारी रखते थे। यदि उन्हें काम करने के लिए और समय मिलता निश्चित रूप से वह भारत के ज्ञान विज्ञान के क्षेत्र में भी प्रेरणास्पद कार्य कर सकते थे।
महर्षि मनु जैसा नीतिज्ञ और रणनीतिज्ञ संसार में अन्यत्र मिलना असंभव है। संसार के लोगों को भारत से पहले विमान आदि का कोई ज्ञान नहीं था। आज जितने भी मत ,पंथ ,संप्रदाय वाले लोग हैं उन्होंने तलवार के बल पर चाहे अपना कितना ही विस्तार कर लिया हो पर वे विज्ञान के क्षेत्र में नेतृत्व के लिए सृष्टि के प्रारंभ से लेकर आज तक भारत की ओर ही ताकते रहे हैं। उनका आज का भौतिक विज्ञान संबंधी ज्ञान भी हृदय हीन है। उनके इस ज्ञान में संवेदनशीलता का अभाव है।
भौतिक विज्ञान और अध्यात्मिक विज्ञान
यही कारण है कि उनका भौतिक विज्ञान विनाशकारी योजनाओं में लगा हुआ है। यद्यपि कुछ लोग अभी इस विनाश को समझ नहीं रहे हैं और उसे विकास की संज्ञा दे रहे हैं। यद्यपि उसका परिणाम निश्चित रूप से विनाशकारी ही होता है। माना कि बाहुबल भी संसार में बहुत आवश्यक है, परंतु बाहुबल उस समय पशु बल के रूप में परिवर्तित हो जाता है जिस समय उसके पीछे अध्यात्मबल समाप्त हो जाता है। प्राचीन भारत में भौतिक विज्ञान के साथ आध्यात्मिक ज्ञान भी जुड़ा रहता था। भौतिक विज्ञान पर आध्यात्मिक विज्ञान उसी प्रकार नियंत्रण रखता था जिस प्रकार क्षत्रबल पर ब्रह्म बल नियंत्रण रखता था।
आज के पश्चिमी जगत के पास बाहुबल के साथ-साथ विज्ञान बल भी है, परंतु उसका विज्ञान बल भी इसलिए हृदयहीन हो गया है ,क्योंकि वह अध्यात्म बल से हीन है। वास्तव में भारतीय चिंतकों, मनीषियों, ऋषियों के दृष्टिकोण से यदि देखा जाए तो युद्ध की नीति – रणनीति बनाने का अधिकार भी उसको है जो बाहुबल के साथ-साथ अध्यात्म बल से भी भरपूर हो। द्रोणाचार्य, कृपाचार्य ,भीष्म पितामह जैसे लोग युद्ध का नेतृत्व इसीलिए करते थे क्योंकि उनके पास बाहुबल के साथ-साथ अध्यात्मबल भी था। जिसके आधार पर वह युद्ध के क्षेत्र में शत्रु को उतना ही दंड देने का विवेक रखते थे, जितने का उसने अपराध किया है ।
आज के संसार के लिए युद्ध नीति रणनीति बनाने के विशेषज्ञों के लिए भी यह आवश्यक है कि वह भी विज्ञान बल के साथ-साथ अध्यात्म बल में से भी भरपूर हों। आज के युद्ध विनाशकारी इसलिए हो गए हैं कि आज के युद्ध विशेषज्ञ ना तो बाहुबली हैं और ना ही अध्यात्म बल से भरपूर हैं। वह वातानुकूलित कमरों में बैठकर सड़कों पर और खेतों में काम करने वाले मजदूरों और किसानों के विनाश के लिए युद्ध नीति बनाते हैं। जबकि प्राचीन काल में हमारे ऋषि महर्षी युद्ध के लिए शस्त्र अस्त्र का निर्माण कराया करते थे। रामायण काल में श्री राम जी को जितने भी अस्त्र-शस्त्र प्राप्त हुए थे वह सब ऋषि मनीषियों के द्वारा ही प्राप्त हुए थे। ये महर्षि जनसाधारण के हितों की सुरक्षा के दृष्टिगत अस्त्र शस्त्रों का निर्माण कराते थे इसके साथ साथ ही जिसको वह अस्त्र-शस्त्र प्रदान किया करते थे उससे यह वचन भी लेते थे कि वह इनका दुरुपयोग कभी नहीं करेगा।
जब युद्धनीति बाहुबलियों और अध्यात्मबलियों से खिसक कर ऐसे ही हृदयहीन तथाकथित विशेषज्ञों के हाथों में पहुंच जाती है तो उससे जनहानि होने के ही परिणाम आते हैं। हमारे पूर्वजों की भांति महर्षि दयानन्द जी महाराज युद्ध में भी नीति अर्थात धर्म का पालन करने के पक्षधर थे। इसके विपरीत आज के युद्ध अनीति पर आधारित हो गए हैं। यह क्रम ईसाई और इस्लाम पंथ के आने पर प्रबलता से आरम्भ हुआ।
युद्ध के समय व्यूह रचना
युद्ध नीति पर अपने विचार रखते हुए स्वामी जी महाराज लिखते हैं कि सब राजपुरुषों को युद्ध करने की विद्या सिखावे और आप सीखे तथा अन्य प्रजाजनों को सिखावे जो पूर्व शिक्षित योद्धा होते हैं वे ही अच्छे प्रकार लड़ लड़ा जानते हैं। जब शिक्षा करे तब (दण्डव्यूह) दण्डा के समान सेना को चलावे (शकट०) जैसा शकट अर्थात् गाड़ी के समान (वराह०) जैसे सुअर एक दूसरे के पीछे दौड़ते जाते हैं और कभी-कभी सब मिलकर झुण्ड हो जाते हैं वैसे (मकर०) जैसा मगर पानी में चलते हैं वैसे सेना को बनावे (सूचीव्यूह) जैसे सूई का अग्रभाग सूक्ष्म पश्चात् स्थूल और उस से सूत्र स्थूल होता है वैसी शिक्षा से सेना को बनावे और जैसे (नीलकण्ठ) ऊपर नीचे झपट मारता है इस प्रकार सेना को बनाकर लड़ावे।”
महर्षि दयानंद जी द्वारा कृत सत्यार्थ प्रकाश के छठे समुल्लास के अध्ययन से हमें अपने पूर्वजों के युद्ध ज्ञान की विस्तृत जानकारी होती है। जब किसी नीति को पढ़ाने या बताने वाले लोग समाप्त हो जाते हैं तो कालांतर में नीति भी रूढि में परिवर्तित हो जाती है। नीति में जंग लगी हुई अवस्था का नाम ही रूढ़ी है। जब भारत का पतन होना आरंभ हुआ तो युद्ध नीति के बारे में भी कुछ सुनी सुनाई बातों पर काम किया जाना आरंभ हो गया। वीर सावरकर जी ने इस रूढ़िगत व्यवस्था को सद्गुण विकृति का नाम दिया है। जैसे युद्ध में शत्रु पर घात लगाकर हमला नहीं करेंगे, शत्रु यदि पीठ दिखा कर भागने लगा है तो उस पर हमला नहीं करेंगे आदि आदि।
इसके विपरीत यदि हम महर्षि मनु द्वारा प्रतिपादित धर्म शास्त्र या संविधान – मनुस्मृति का अध्ययन करते हैं तो हमें कुछ दूसरी बातों की जानकारी मिलती है। जिनके जानने से पता चलता है कि कालांतर में और विशेष रूप से इस्लाम के आक्रमणकारियों के समय हमारे राजाओं ने युद्ध नीति के इन सूक्ष्म विचारों को त्याग दिया था। इसका कारण केवल एक था कि उनके भीतर अध्ययन का अभाव हो गया था।
उदाहरण के रूप में देखिए । स्वामी जी लिखते हैं कि जिधर भय विदित हो उसी ओर सेना को फैलावे, सब सेना के पतियों को चारों ओर रख के (पद्मव्यूह) अर्थात् पद्माकार चारों ओर से सेनाओं को रखके मध्य में आप रहै।
डॉ राकेश कुमार आर्य
मेरी यह पुस्तक डायमंड बुक्स नई दिल्ली के द्वारा प्रकाशित हुई है । जिसका अभी हाल ही में 5 अक्टूबर 2000 22 को विमोचन कार्य संपन्न हुआ था। इस पुस्तक में सत्यार्थ प्रकाश के पहले 7 अध्यायों का इतिहास के दृष्टिकोण से विश्लेषण किया गया है। पुस्तक में कुल 245 स्पष्ट हैं। पुस्तक का मूल्य ₹300 है।
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