मनुष्य को अपने पूर्वजन्म के शुभकर्मों के परिणामस्वरूप परमात्मा से यह श्रेष्ठ मानव शरीर मिला है। सब प्राणियों से मनुष्य का शरीर श्रेष्ठ होने पर भी यह प्रायः सारा जीवन दुःख व क्लेशों से घिरा रहता है। दूसरों लोगों को देख कर यह अपनी रुचि व सामथ्र्यानुसार विद्या प्राप्त कर धनोपार्जन एवं सुख-सुविधा की वस्तुओं का संग्रह व उनके भोग को ही सुख व परम-लक्ष्य मान लेता है। इसे यह पता नहीं होता कि यह सारी वस्तुयें जिन्हें हम अपने सुख के लिये प्राप्त करते हैं, उनमें दुःख भी मिला रहता है। दुःखों से निवृत्ति का उपाय आध्यात्मिक ज्ञान व उसके अनुरूप कर्म करना है। ज्ञान दो प्रकार का है जिसे आध्यात्मिक एवं सांसारिक ज्ञान कह सकते हैं। आध्यात्मिक ज्ञान से युक्त होने पर धन व भौतिक पदार्थों की अल्प मात्रा में उपलब्धता होने पर भी हम सुखी रह सकते हैं। दूसरी ओर सांसारिक ज्ञान हमें सुखों के भोग के प्रति अतृप्त बना देता है। हम आज के संसार में देखते हैं कि मनुष्य बिजीनेस आदि व्यवसायिक अनेक कार्यों को करके रात-दिन धनोपार्जन करने में व्यस्त रहते हंै। उनके पास अपने को स्वस्थ रखने के लिये भी समय नहीं होता। सोकर उठते ही वह अपने कुछ अत्यावश्यक दैनन्दिन कार्य करते हैं और धनोपार्जन के कार्यों में लग जाते हैं। रात्रि शयन से पूर्व तक भोजन आदि के लिये कुछ समय निकाल कर वह सारा समय धन कमाने व सुख-सुविधा की वस्तुयें एकत्रित कर मनोरंजन आदि करने में लगाते हंै। ऐसा करते हुए ही उसकी आयु व्यतीत होती जाती है और मृत्यु आ जाती है। क्या इसी का नाम मनुष्य जीवन है? ऐसा कदापि नहीं हो सकता। हमें अपने शास्त्रों को पढ़कर अपने विवेक से आत्मा व मनुष्य जीवन के उद्देश्य को जानना चाहिये और अक्षय सुख मोक्ष के आनन्द की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करना चाहिये।
मनुष्य केवल भौतिक जड़ पदार्थों से बना हुआ शरीर ही नहीं है अपितु इस शरीर में एक दिव्य, अनादि, नित्य, अमर, सूक्ष्म व एकदेशी चेतन जीवात्मा है। मनुष्य जीवन को मोक्ष का द्वार कहा जाता है और वस्तुतः यह बात ठीक भी है। मोक्ष का अर्थ दुःखों से पूर्ण निवृत्ति होना माना जाता है। मोक्ष की परिभाषा यह है कि दुःखों से पूरी तरह से छूट जाना मोक्ष है। मोक्ष की चर्चा होती है तो हमें अपने जीवन के दुःखों पर भी ध्यान देना होगा। आत्मा को जिन कार्यों से वर्तमान या भविष्य में शारीरिक व आत्मिक पीड़ा, कष्ट व अप्रिय अनुभूतियां होती हैं, उसे दुःख कह सकते हैं। शरीर में ज्वर व उदर शूल आदि अनेक रोगों से भी मनुष्य को दुःख प्राप्त होता है। संसार में परमात्मा ने अनेक प्रकार के प्राणियों को बनाया है। इनसे भी हमें अनेक बार दुःख मिलने की सम्भावना होती है। संसार के सबसे महान् व्याकरणाचार्य ऋषि पाणिनी के बारे में कहा जाता है कि एक शेर ने उन्हें खा लिया था, जिससे उनकी मृत्यु हुई थी। ऐसी घटनायें मृतक व उनके सम्बन्धियों को दुःख देती हैं। तीसरे प्रकार के दुःख वह होते हैं जो प्राकृतिक आपदा यथा बाढ़, अतिवृष्टि, सूखा, भूकम्प आदि कारणों से होते हैं। मनुष्य जीवन भर इन्हीं दुःखों में फंसा रहता है। आजकल प्रदुषण व मिलावट से भी अनेक प्रकार के रोग आदि हो रहे हैं। वायु, जल, अन्न, वनस्पतियां एवं ओषधियां सभी प्रदूषित हैं। मनुष्य की आयु, जो वैदिक काल में 100 से 300 वा 400 वर्ष तक की होती थी, आजकल प्रायः 55 से 80 वर्ष के बीच ही समाप्त हो जाती है। अतः मनुष्यों को किसी प्रकार का कैसा भी दुःख आने से पूर्व उसके विषय में चिन्तन करके उसके निवारण के लिये प्रयास करना चाहिये। वैदिक शास्त्रों में बार-बार के जन्म-मरण तथा सभी दुःखों से मुक्ति के लिये ही पंचमहायज्ञों, स्वाध्याय, आसन, प्राणायाम, ध्यान, योग, सन्ध्या, यज्ञ व सदाचरण आदि का विधान किया गया है।
मोक्ष वा दुःखों की स्थाई निवृत्ति के लिये मनुष्यों को किन साधनों को अपने जीवन में करना चाहिये, इसका उल्लेख ऋषि दयानन्द जी ने सत्यार्थप्रकाश के नवम् समुल्लास में किया है। वह अपने ग्रन्थ में चार प्रकार के साधनों का उल्लेख करते हैं। इन चार साधनों के नाम विवेक, वैराग्य, षट्क सम्पत्ति तथा मुमुक्षत्व हैं। मुक्ति वा मोक्ष चाहने वालों को मिथ्याभाषणादि पाप कर्मों को छोड़कर सुख रूप फल को देने वाले सत्यभाषणादि धर्माचरण का सेवन अवश्य करना चाहिये। मनुष्य को अधर्म का भी सर्वथा त्याग कर धर्म का पालन करना चाहिये। हमें हर क्षण यह स्मरण रखना चाहिये कि दुःख का मूल कारण पापाचरण तथा सुख का मूल कारण धर्माचरण है। मोक्ष के चार साधनों का हम क्रमानुसार सत्यार्थप्रकाश के आधार पर उल्लेख कर रहे हैं।
मनुष्य को सत्पुरुषों के संग से विवेक अर्थात् सत्यासत्य, धर्माधर्म, कर्तव्याकर्तव्य का निश्चय अवश्य करना चाहिये। इन्हें पृथक्-पृथक् यथार्थ रूप में जानना चाहिये। मानव शरीर अर्थात् इसके पंचकोषों का हमें विवेचन करना चाहिये। प्रथम ‘अन्नमय कोश’ जो त्वचा से लेकर अस्थिपर्यन्त का समुदाय पृथिवीमय है। दूसरा ‘प्राणमय कोश’ जिसमें ‘प्राण’ अर्थात् जो भीतर से बाहर आता, ‘अपान’ जो बाहर से भीतर जाता, ‘समान’ जो नाभिस्थ होकर सर्वत्र शरीर में रस पहुंचाता, जिस से सब शरीर में चेष्टा आदि कर्म जीव करता है। तीसरा ‘मनोमय कोश’ जिस में मन के साथ अहंकार, वाक्, पाद, पाणि, पायु और उपस्थ पांच कर्म-इन्द्रियां हैं। चैथा ‘विज्ञानमय कोश’ जिस में बुद्धि, चित्त, श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, जिह्वा और नासिका ये पांच ज्ञान-इन्द्रियां जिनसे जीव ज्ञानादि व्यवहार करता है। पांचवां ‘आनन्दमय कोश’ जिसमें प्रीति प्रसन्नता, न्यून आनन्द, अधिकानन्द, आनन्द और आधार कारणरूप-प्रकृति है। ये पांच कोष कहलाते हैं। इन्हीं से जीव सब प्रकार के कर्म, उपासना और ज्ञानादि व्यवहारों को करता है।
आत्मा और शरीर की तीन अवस्थायें होती हैं। एक ‘जागृत’, दूसरी ‘स्वप्न’ और तीसरी ‘सुषुप्ति’ अवस्था। तीन शरीर हैं- एक ‘स्थूल’ जो यह दीखता है। दूसरा पांच प्राण, पांच ज्ञानेन्द्रियां, पांच सूक्ष्म भूत, मन तथा बुद्धि, इन सतरह तत्वों का समुदाय ‘सूक्ष्म शरीर’ कहाता है। यह सूक्ष्म शरीर जन्म-मरणादि में भी जीव के साथ रहता है। इस के दो भेद हैं-एक भौतिक अर्थात् जो सूक्ष्म भूतों के अंशों से बना है। दूसरा स्वाभाविक जो जीव के स्वाभाविक गुण रूप है। यह दूसरा अभौतिक शरीर मुक्ति में भी रहता है। (यह अभौतिक शरीर जीवात्मा व इसके स्वाभाविक गुणों को कहा गया है जो सृष्टि बनने से पूर्व व प्रलय के बाद भी आत्मा के साथ रहते हैं।) इसी से जीव मुक्ति में सुख को भोगता है। तीसरा कारण शरीर जिस में सुषुप्ति अर्थात् गाढ़ निन्द्रा होती है। वह प्रकृति रूप होने से सर्वत्र विभु और सब जीवों के लिए एक है। चैथा तुरीय शरीर वह कहाता है जिस में समाधि से शरीर का पराक्रम मुक्ति में भी यथावत् सहायक रहता है।
इन सब पांच कोशों तथा तीन अवस्थाओं से जीव पृथक है। जब मृत्यु होता है तब सब कोई कहते हैं कि जीव निकल गया। यहीं जीव सब का प्रेरक, सब का धत्र्ता, साक्षीकत्र्ता तथा भोक्ता कहाता है। जो कोई ऐसा कहता है कि जीव कत्र्ता व भोक्ता नहीं है तो जानों वह व्यक्ति अज्ञानी व अविवेकी है क्योंकि बिना जीव के, जो ये सब जड़ पदार्थ हैं, इन को सुख-दुःख का भोग वा पाप-पुण्य कर्तृव्य कभी नहीं हो सकता। हां, इन के सम्बन्ध से जीव पाप-पुण्यों का कत्र्ता और सुख-दुःखों का भोक्ता है। जब इन्द्रियां अपने-अपने विषयों में, मन इन्द्रियों के साथ और आत्मा मन के साथ युक्त होकर प्राणों को प्रेरणा करके अच्छे वा बुरे कर्मों में लगाता है तभी वह बहिर्मुख हो जाता है। उसी समय अच्छे कर्मों को करने में भीतर से आनन्द, उत्साह, निर्भयता और बुरे कर्मों को करने में भय, शंका, लज्जा उत्पन्न होती है। यह अन्तर्यामी परमात्मा की शिक्षा मनुष्य की जीवात्मा में होती है। जो कोई इस शिक्षा के अनुकूल वत्र्तता है वही मुक्तिजन्य सुखों को प्राप्त होता है और जो विपरीत वत्र्तता है वह बन्धजन्य दुःख भोगता है।
मोक्ष प्राप्ति का दूसरा साधन वैराग्य है। विवेक से जो सत्यासत्य को जाना हो, उसमें से सत्याचरण का ग्रहण और असत्याचरण का त्याग करना विवेक है। जो पृथिवी से लेकर परमेश्वर पर्यन्त पदार्थों के गुण, कर्म, स्वभाव को जानकर उस की आज्ञा पालन और उपासना में तत्पर होना है, उस से विरुद्ध न चलना तथा सृष्टि से उपकार लेना वैराग्य कहलता है।
इसके पश्चात तीसरा साधन – ‘षट्क सम्पत्ति’ अर्थात् 6 प्रकार के कर्म करना- एक ‘शम’ जिस से अपने आत्मा और अन्तःकरण को अधर्माचरण से हटाकर धर्माचरण में प्रवृत्त रखना। दूसरा ‘दम’ जिस से श्रोत्रादि इन्द्रियों और शरीर को व्यभिचारादि बुरे कर्मों से हटा कर जितेन्द्रियत्वादि शुभ कर्मों में प्रवृत्त रखना। तीसरा ‘उपरति’ जिस से दुष्ट कर्म करने वाले पुरुषों से सदा दूर रहना। चैथा ‘तितिक्षा’, इसका अर्थ है कि चाहे निन्दा, स्तुति, हानि, लाभ कितना ही क्यों न हो परन्तु हर्ष शोक को छोड़ मुक्ति साधनों में सदा लगे रहना। पांचवा ‘श्रद्धा’ जो वेदादि सत्य शास्त्र और इन के बोध से पूर्ण आप्त विद्वान् सत्योपदेष्टा महाशयों के वचनों पर विश्वास करना। छठा ‘समाधान’ चित्त की एकाग्रता ये छः मिलकर तीसरा साधन ‘षट्क सम्पत्ति’ कहाता है। चैथा साधन ‘मुमुक्षत्व’ है। जैसे तृषातुर को सिवाय अन्न व जल के दूसरा कुछ भी पदार्थ अच्छा नहीं लगता वैसे विना मुक्ति के किसी दूसरे साधन से प्रीति न होना। इन साधनों के बाद ऋषि दयानन्द जी ने चार अनुबन्धों की भी चर्चा की है। इसके लिये पाठक सत्यार्थप्रकाश का पूरा नवम् समुल्लास ध्यानपूर्वक पढ़ेंगे तो उन्हें इसका पूरा ज्ञान व लाभ प्राप्त हो सकेगा।
मनुष्य का जन्म ज्ञान प्राप्ति, सदाचरण तथा मुक्ति के उपायों व साधनों को करने के लिये ही हुआ है। वह लोग धन्य हैं जो वेद, वैदिक साहित्य तथा सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों को पढ़कर अपने जीवन को मोक्षगामी बनाते हैं। मिथ्याचरण का त्याग किये बिना तथा सत्याचरण और मोक्ष के साधनों को अपनायें हम दुःखों से पूरी तरह से निवृत्त नहीं हो सकते। हमने इस लेख में मोक्ष की चर्चा की है। यह ज्ञान किसी मत, मजहब, पन्थ व समुदाय के पास नहीं है। जब ज्ञान ही नहीं तो वह मोक्ष को प्राप्त भी नहीं हो सकते। जिस प्रकार अन्न, जल, वायु, सुभाषित और स्वर्ण के गुणों को न जानने वाला मनुष्य इन पदार्थों से लाभान्वित नहीं हो सकता, उसी प्रकार मोक्ष को न जानने वाला मनुष्य व धर्माचार्य भी मोक्ष के अनुरूप आचरण न करने से इसे प्राप्त नहीं कर सकता। मोक्ष प्राप्ति के इच्छुक मनुष्यों को ऋषि दयानन्द का जीवन चरित्र भी पढ़ना चाहिये। एक मुमुक्षु व योगी का जीवन कैसा होना चाहिये, इसे ऋषि दयानन्द के जीवन के अध्ययन से जाना जा सकता है। इसी के साथ इस चर्चा को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य