सत्यार्थ प्रकाश में इतिहास विर्मश ( एक से सातवें समुल्लास के आधार पर) अध्याय 22 ख लोकपाल और भारत की प्राचीन शासन व्यवस्था

Screenshot_20221126-075259_Facebook

लोकपाल और भारत की प्राचीन शासन व्यवस्था

 हमारे देश में दीर्घकाल से लोकपाल की नियुक्ति की मांग की जाती रही है। वास्तव में ऐसी मांग करना हमारी मृगतृष्णा का ही प्रतीक है। हमारे ऐसा कहने का कारण यह है कि जो लोग यह मानते हैं कि लोकपाल की नियुक्ति के पश्चात तुरंत सारे घपले घोटालों पर प्रतिबंध लग जाएगा, वह शेखचिल्ली के सपने देख रहे होते हैं। ऐसे लोग यह भूल जाते हैं कि जिस लोकपाल की नियुक्ति की मांग वे कर रहे हैं वह लोकपाल भी इसी भ्रष्ट राजनीति या नौकरशाही में से ही निकाला जाएगा। उससे भी यह अपेक्षा नहीं की जा सकती कि वह आते ही सारी व्यवस्था को परिवर्तित कर देगा। यहां पर यह बात भी विचारणीय है कि हमने अपने जनप्रतिनिधियों को एक लोकपाल के रूप में ही शासन प्रशासन में बैठे लोगों के ऊपर बैठाया था परंतु यह मानवता का दुर्भाग्य ही रहा कि यह जनप्रतिनिधि अर्थात लोकपाल भी जाकर प्रशासन में बैठे लोगों के हाथों का खिलौना बन कर रह गए। धन कमाने के बिंदु पर दोनों एक हो गए और जनता ठगी सी रह गई। हमने सोचा था कि शासक पोषक बनेगा, पर शासक पोषक के स्थान पर शोषक बन गया। शासन प्रशासन में बैठे ऐसे शोषक प्रवृत्ति के लोगों के बारे में मनु महाराज ने बड़ी आदर्श व्यवस्था की है। हमें ध्यान देना चाहिए कि देश के विभिन्न लोकसभा या विधानसभा क्षेत्रों से जब जनप्रतिनिधि भेजे जाते हैं तो वह अपने अपने क्षेत्र के लोकपाल ही होते हैं। लोकतंत्र में ये लोकपाल यदि साफ नियत और पवित्र नीतियों को अपनाकर कार्य करना आरंभ कर दें तो सारी व्यवस्था पवित्रता की प्रतीक बन जाएगी। 
 इस आदर्श व्यवस्था को स्वामी दयानंद जी महाराज ने अपना समर्थन देते हुए लिखा है कि :-  'जो राजपुरुष अन्याय से वादी प्रतिवादी से गुप्त धन लेके पक्षपात से अन्याय करे उन का सर्वस्वहरण करके यथायोग्य दण्ड देकर ऐसे देश में रक्खे कि जहाँ से पुनः लौटकर न आ सके क्योंकि यदि उस को दण्ड न दिया जाय तो उस को देख के अन्य राजपुरुष भी ऐसे दुष्ट काम करें और दण्ड दिया जाय तो बचे रहें ।'

‘परन्तु जितने से उन राजपुरुषों का योगक्षेम भलीभांति हो और वे भलीभांति धनाढ्य भी हों उतना धन वा भूमि राज की ओर से मासिक वा वार्षिक अथवा एक वार मिला करे और जो वृद्ध हों उन को भी आधा मिला करे परन्तु यह ध्यान में रक्खे कि जब तक वे जियें तब तक वह जीविका बनी रहै पश्चात् नहीं, परन्तु इन के सन्तानों का सत्कार वा नौकरी उन के गुण के अनुसार अवश्य देवे और जिस के बालक जब तक समर्थ हों उन की स्त्री जीती हो तो उन सब के निर्वाहार्थ राज्य की ओर से यथायोग्य धन मिला करे। परन्तु जो उस की स्त्री वा लड़के कुकर्मी हो जायें तो कुछ भी न मिले, ऐसी नीति राजा बराबर रक्खे।’

युद्ध और राजनीति

युद्ध के लिए राजनीति को व्यग्र नहीं होना चाहिए। युद्ध के प्रति राजनीति का व्यग्रता या शीघ्रता का भाव विनाशकारी हो सकता है। राजनीति और राजनीतिज्ञों को सोच समझकर अपने बलाबल पर पूर्ण विचार करके शत्रु की योजना और शक्ति का भली प्रकार आंकलन करके युद्ध का निर्णय लेना चाहिए। युद्ध केवल मरने के लिए लड़ने की अंधी वीरता का नाम नहीं है। युद्ध अंतिम विकल्प है। उससे पहले के कूटनीतिक उपाय अपनाकर समस्या का शांतिपूर्ण समाधान खोजना चाहिए। युद्ध जब भी होता है तब ही हमें समझ लेना चाहिए कि पक्षों में धैर्य, संयम और आत्मा की पवित्रता का अभाव था। यदि उनमें इस प्रकार के गुण होते तो वह युद्ध के अंतिम विकल्प पर जाकर युद्ध की घोषणा नहीं करते। वास्तव में युद्ध मानवता की हार है, जीत नहीं।
युद्ध अपने देश के मान सम्मान की रक्षा के लिए लड़ा जाता है। यदि वर्तमान परिस्थितियों में शक्ति संतुलन हमारे अनुकूल नहीं है और युद्ध में पराजित होना अनिवार्य दिखाई दे रहा है तो ऐसे समय में राजनीति को प्रतीक्षा की शरण में जाना चाहिए। उचित अवसर की प्रतीक्षा भी कई बार एक हथियार बन जाती है। जो लोग इस प्रकार के प्रतीक्षा रूपी हथियार को नहीं अपनाते अर्थात किसी बात का उत्तर देने के लिए उचित अवसर की प्रतीक्षा नहीं करते, वह सांसारिक जीवन में भी पराजित होते देखे जाते हैं। वास्तव में प्रतीक्षा ऊर्जा संचय या शक्ति संचय का नाम है। जब शत्रु की शक्ति से अधिक शक्ति अपने पास संचित हो जाए ,तब उससे पूरा हिसाब कर लेना चाहिए। इस नीतिगत विचार को स्पष्ट करते हुए महर्षि दयानंद जी सत्यार्थ प्रकाश के छठे समुल्लास में हमें बताते हैं कि जब यह जान ले कि इस समय युद्ध करने से थोड़ी पीड़ा प्राप्त होगी और पश्चात् करने से अपनी वृद्धि और विजय अवश्य होगा तब शत्रु से मेल कर के उचित समय तक धीरज करे।
प्रतीक्षा का अभिप्राय हमारी दुर्बलता नहीं है। प्रतीक्षा हमारे धैर्य और संयम को दर्शाती है। प्रतीक्षा का अभिप्राय किसी शत्रु की शत्रुता पूर्ण गतिविधियों के प्रति पूर्णतया असावधान हो जाना भी नहीं है। प्रतीक्षा का अभिप्राय शत्रु को असीमित अधिकार देते हुए उत्पात मचाने के लिए खुला छोड़ना भी नहीं है। किसी भी शत्रु देश से युद्ध करने के लिए राजा को यह बात भी देखनी चाहिए कि जब उसकी प्रजा और सेना में शत्रु से युद्ध करने का उत्साह अपने चरम पर हो, तब वह शत्रु से दो-दो हाथ करने का निर्णय ले। “जब अपनी सब प्रजा वा सेना अत्यन्त प्रसन्न उन्नतिशील और श्रेष्ठ जाने, वैसे अपने को भी समझे तभी शत्रु से विग्रह (युद्ध) कर लेवे।”

सेना का मनोबल और युद्ध

  वास्तव में राजा की सेना का मनोबल ही जीता करता है। कई बार हाथों में आधुनिकतम हथियार भी उपलब्ध होते हैं परंतु मनोबल के टूट जाने से हथियार भी व्यर्थ सिद्ध हो जाते हैं। इसके लिए राजा को उत्तेजनात्मक भाषण ( motivational speech ) के माध्यम से अपनी सेना का मनोबल बनाए रखने का विभिन्न यत्नों से प्रयास करना चाहिए। राजपुरोहित, विद्वानों युद्ध के विशेषज्ञ राज पुरुषों के माध्यम से उसे ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए, जिससे उसकी सेना का मनोबल सदा ऊंचा रहे। स्वामी दयानन्द जी महाराज की व्यवस्था है कि जब अपने बल अर्थात् सेना को हर्ष और पुष्टियुक्त प्रसन्न भाव से जाने और शत्रु का बल अपने से विपरीत निर्बल हो जावे तब शत्रु की ओर युद्ध करने के लिये जावे।जब सेना बल वाहन से क्षीण हो जाय तब शत्रुओं को धीरे-धीरे प्रयत्न से शान्त करता हुआ अपने स्थान में बैठा रहै।

जब राजा शत्रु को अत्यन्त बलवान् जाने तब द्विगुणा वा दो प्रकार की सेना करके अपना कार्य्य सिद्ध करे।”
कभी-कभी ऐसी परिस्थिति भी बनती है कि आप अपने स्तर पर तो युद्ध को टालने की योजना बना रहे हैं और युद्ध टालने में विश्वास भी रखते हैं ,परंतु आपका शत्रु आप पर घात लगाकर हमला करने की तैयारी कर रहा है। वह आपसे किसी भी प्रकार की सन्धि या समझौता करने को प्राथमिकता नहीं देना चाहता, इसके विपरीत वह आपका विनाश कर देना ही अपना लक्ष्य बना चुका है तो ऐसी परिस्थिति में आपको क्या करना चाहिए? इस पर स्वामी दयानंद जी का परामर्श है कि ‘जब आप समझ लेवे कि अब शीघ्र शत्रुओं की चढ़ाई मुझ पर होगी तभी किसी धार्मिक बलवान् राजा का आश्रय शीघ्र ले लेवे।’
यहां पर स्वामी दयानंद जी महाराज ने धार्मिक बलवान राजा की शरण में जाने की बात कही है। महर्षि दयानंद जी के एक-एक शब्द का मूल्य हम को समझना चाहिए। यहां पर किसी निर्दयी राजा की शरण में जाने की बात उन्होंने नहीं कही है। धार्मिक बलवान राजा सात्विक क्रोध वाला होता है। उसकी सात्विकता में बल होता है और वह बल सकारात्मक ऊर्जा का संचार करता है। ऐसा राजा विनाशकारी क्रोध से दूर रहता है। वह युद्ध में विजयी होने के पश्चात आपके राज्य को आपको लौटा देगा और अपनी सेना को शांत भाव से स्वदेश लौटने का आदेश दे देगा। यदि अत्याचारी शासक हुआ तो वह अपनी सेना को आपके देश में आपके शत्रु राजा के विरुद्ध सहायता देने का आदेश देकर युद्ध के उपरांत अपनी सेना को आपके देश में स्थाई रूप से रहने का आदेश देकर आपकी संप्रभुता को संकट में डाल सकता है। तब आपके लिए दोहरा संकट उत्पन्न हो सकता है। ऐसे संकट से सावधान रहने के लिए ही स्वामी जी ने यह व्यवस्था की है कि ऐसे संकट काल में किसी धार्मिक बलवान राजा का आश्रय लेना चाहिए। इस प्रसंग में स्वामी जी महाराज ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि ‘जो धार्मिक राजा हो उस से विरोध कभी न करे किन्तु उस से सदा मेल रक्खे और जो दुष्ट प्रबल हो उसी के जीतने के लिये ये पूर्वोक्त प्रयोग करना उचित है।’

राजा एकांत में बैठकर करे नीतियों पर विचार

राजा को व्यर्थ की अनर्गल बातों में समय व्यतीत नहीं करना चाहिए। उसे राजकार्य पर सदैव चिंतनशील रहना चाहिए। किन नीतियों को अपनाने से अधिक से अधिक लोक- कल्याण होना संभव है ? – उन पर वह अपने अधिकारियों के साथ तो चिंतन में मगन रहे ही, साथ ही एकांत में भी वह ऐसी नीतियों पर विचार करता रहे। वर्तमान में हमें क्या कार्य करना चाहिए और भविष्य में कौन सी योजना पर किस ढंग से कार्य करना होगा ? इस पर सदैव चिंतन मंथन चलता रहना चाहिए और चिंतन मंथन से निकले निष्कर्ष को क्रियान्वित किया जाता रहना चाहिए।

आयतिं सर्वकार्याणां तदात्वं च विचारयेत्।
अतीतानां च सर्वेषां गुणदोषौ च तत्त्वतः।।

सब कार्य्यों का वर्त्तमान में कर्त्तव्य और भविष्यत् में जो-जो करना चाहिये और जो-जो काम कर चुके उन सब के यथार्थता से गुण दोषों को विचारे।
मंथन की प्रक्रिया में राजा को अपने दोषों पर भी विचार करना चाहिए अर्थात उसे अपनी नीतियों का आलोचक स्वयं भी बनना चाहिए।

समीक्षा भाव से निरीक्षण करे और जहां-जहां ऐसा लगता है कि हमने अमुक कार्य को करने में गलती की है, उसे सुधारने के प्रति सचेष्ट रहे । जो राजा किसी संकोचवश अपनी गलतियों को स्वीकार करने को तत्पर नहीं रहता, वह निंदा का पात्र बनता है और लोक में अपयश को प्राप्त करता है। इस प्रकार की प्रवृत्ति राजा को हठीला बनाती है । जिससे उसके राज्य की स्थिरता पर प्रभाव पड़ता है। जो राजा इस प्रकार की राजनीति को अपनाता है वह कभी भी अपने शत्रुओं से पराजित नहीं हो सकता।

अध्याय 22 का शेष

स्वामी जी ने इस संबंध में इस श्लोक को उद्धृत किया है :-

आयत्यां गुणदोषज्ञस्तदात्वे क्षिप्रनिश्चयः।
अतीते कार्य्यशेषज्ञः शत्रुभिर्नाभिभूयते।।

“पश्चात् दोषों के निवारण और गुणों की स्थिरता में यत्न करे। जो राजा भविष्यत् अर्थात् आगे करने वाले कर्मों में गुण दोषों का ज्ञाता वर्त्तमान में तुरन्त निश्चय का कर्त्ता और किये हुए कार्यों में शेष कर्त्तव्य को जानता है वह शत्रुओं से पराजित कभी नहीं होता।”
स्वामी दयानंद जी महाराज ने भारत वासियों से स्पष्ट शब्दों में कहा कि भारत पर गर्व करो। प्राचीन वैदिक संस्कृति और उसके सांस्कृतिक मूल्यों को अपनाओ। भारत को विश्व गुरु बनाने के लिए सब एक संकल्प के साथ बंध जाओ। अपने बौद्धिक ज्ञान विज्ञान से भारत को शिक्षा का केंद्र बना कर फिर से अपने गौरवपूर्ण अतीत को लौटाओ। स्वामी जी महाराज के इस प्रकार के चिंतन ने देश की सोई हुई आर्य जनता को हृदय से प्रेरित किया। यही कारण था कि स्वामी जी महाराज जिधर भी निकल जाते थे उधर ही क्रांतिकारी गतिविधियां तेजी से होने लगती थीं।
विदेशी शासन के विरुद्ध आक्रोश उत्पन्न करने में स्वामी जी महाराज के उत्तेजक विचारों ने आग में घी का काम किया था। वह संपूर्ण व्यवस्था को परिवर्तित कर समग्र क्रांति के अग्रदूत बने। विद्वानों की यह मान्यता उचित ही है कि राष्ट्रीय चेतना की भावना को जागृत करने में भारत के प्राचीन वैभव एवं शौर्य के प्रति जनता को शिक्षित करके स्वामी दयानन्द ने महत्वपूर्ण कार्य किया था। बेलेटाइन शिरोल ने इस तथ्य को स्वीकार किया है। कि स्वामी दयानन्द की शिक्षाएं महान् राष्ट्रवाद से ओत प्रोत थी। उनका यह कथन स्मरणीय है: “दयानन्द की शिक्षाओं का महत्वपूर्ण प्रवाह हिन्दूवाद को सुधारने की अपेक्षा इसे सक्रिय विरोध के क्रम में रखना था जिससे कि यह विदेशी प्रवाहों को रोक सके जो कि उनके विचार में इसे अराष्ट्रीय बनाने की धमकी दे रहे थे।”
स्वामी जी के लिए रवीन्द्र का यह कथन अक्षरशः सत्य है:

“वे ऐसा बौद्धिक जागरण चाहते थे जो आधुनिक युग की प्रगतिशील भावना के साथ सामंजस्य स्थापित कर सके और साथ ही साथ देश के उस गौरवशाली अतीत के साथ अटूट सम्बन्ध बनाए रख सके। जिसमें भारत ने अपने व्यक्तित्व का कार्य तथा चिन्तन की स्वतन्त्रता में और आध्यात्मिक साक्षात्कार के निर्मल प्रकाश के रूप में व्यक्त किया था।”

राकेश कुमार आर्य

मेरी यह पुस्तक डायमंड बुक्स नई दिल्ली के द्वारा प्रकाशित हुई है । जिसका अभी हाल ही में 5 अक्टूबर 2000 22 को विमोचन कार्य संपन्न हुआ था। इस पुस्तक में सत्यार्थ प्रकाश के पहले 7 अध्यायों का इतिहास के दृष्टिकोण से विश्लेषण किया गया है। पुस्तक में कुल 245 स्पष्ट हैं। पुस्तक का मूल्य ₹300 है।
प्रकाशक का दूरभाष नंबर : 011 – 407122000।

Comment: