राजा की नीति ऐसी हो
महर्षि मनु प्रतिपादित संविधान अर्थात मनुस्मृति की यह व्यवस्था या इस जैसी अनेक व्यवस्थाऐं आज के संविधानों में कहीं दिखाई नहीं देती हैं। आगे भी लिखा है :-
वकवच्चिन्तयेदर्थान् सिहवच्च पराक्रमेत्।
वृकवच्चावलुम्पेत शशवच्च विनिष्पतेत्।।
इसका अभिप्राय है कि जैसे बगुला ध्यानावस्थित होकर मछली पकड़ने को ताकता रहता है, वैसे राजा अर्थ संग्रह का विचार किया करे। द्रव्य आदि पदार्थ और बल की वृद्धि कर शत्रु को जीतने के लिए सिंह के समान पराक्रम करे। चीते के समान छिपकर शत्रुओं को पकड़े और समीप आए बलवान शत्रुओं से सस्सा के समान दूर भाग जाए और पश्चात उनको छल से पकड़े।
राजा को अपने भीतरी और बाहरी शत्रुओं को साम, दाम, दंड ,भेद से नियंत्रण में रखना चाहिए। इसकी व्यवस्था भी महर्षि मनु द्वारा मनुस्मृति में की गई है। जिसका समर्थन स्वामी दयानंद जी महाराज ने किया है। जनसाधारण को अर्थात अपनी प्रजा को कष्ट दिए बिना राजा के द्वारा अपने शत्रु का शमन करना चाहिए। जैसे एक किसान अपनी खेती को निराई गुड़ाई करते समय फसल के पौधों को बचाता है और खरपतवार को समाप्त करता है या उखाड़ता है, वैसे ही राजा को भी बड़ी सावधानी से शत्रु या समाजद्रोही लोगों का नाश करते समय जनसाधारण का ध्यान रखना चाहिए। ‘सत्यार्थ प्रकाश’ में कहा गया है कि जैसे धान्य का निकालने वाला छिलकों को अलग कर धान्य की रक्षा करता है अर्थात उन्हें टूटने नहीं देता है, वैसे राजा डाकू – चोरों को मारे और राज्य की रक्षा करे। राजा को काम, क्रोध, मद, मोह, लोभ से ऊपर होना चाहिए। यदि यह विकार किसी राजा के भीतर हैं ,तो वह प्रजा के साथ न्याय नहीं कर पाएगा । महर्षि मनु ने व्यवस्था दी है कि जो राजा मोह से , अविचार से अपने राज्य को दुर्बल करता है, वह राज्य और अपने बंधु सहित जीवन से पूर्व ही शीघ्र नष्ट भ्रष्ट हो जाता है।
भारत में परिवारवाद की राजनीति करने वाले राजनीतिक दलों के नेताओं को मनु महाराज द्वारा प्रतिपादित इस व्यवस्था पर विशेष रूप से ध्यान देना चाहिए। ये सारे के सारे राजनीतिज्ञ मोह में फंसकर राजनीति करते हैं, और उसी आधार पर राजनीतिक निर्णय लेते हैं। इनके राजनीतिक निर्णयों में मोह और अविचार दोनों ही समाविष्ट होते हैं । जिससे देश को भी हानि उठानी पड़ रही है। स्वाधीनता प्राप्ति के पश्चात भारत के भीतर अनेक राजनीतिक दल कुकुरमुत्तों की भांति जन्मे हैं। इसका कारण केवल मोह ही है। क्योंकि यह सभी राजनीतिक दल किसी परिवार की विरासत या जागीर बनकर रह गए हैं।
आजकल हम जिस प्रकार ग्राम प्रधान से लेकर तहसील और जिले तक की सारी प्रशासनिक व्यवस्था को देखते हैं, वह सारी की सारी मनु महाराज की व्यवस्था की ही नकल है। यह हमारे लिए बहुत ही प्रसन्नता और गर्व का विषय है कि महर्षि मनु प्रतिपादित व्यवस्था से अलग जाकर कोई नई व्यवस्था आज के तथाकथित राजनीतिशास्त्री नहीं दे पाए हैं।
स्थानीय शासन और मनुस्मृति
मनु महाराज कहते हैं कि :-
ग्रामस्याधिपति कुर्य्याद्दशग्रामपति तथा।विशतीशं शतेशं च सहस्रपतिमेव च।।
मनु के इस श्लोक का अर्थ करते हुए ऋषि दयानंद जी महाराज कहते हैं कि एक एक ग्राम में एक एक प्रधान पुरुष को रखे, उन्हीं 10 ग्रामों के ऊपर दूसरा, उन्हीं 20 ग्रामों के ऊपर तीसरा, उन्हों सौ ग्रामों के ऊपर चौथा और उन्हीं सहस्त्र ग्रामों के ऊपर पांचवा पुरुष रखे।
स्वामी जी महाराज ने इस पर आगे लिखा है कि जैसे आजकल एक गांव में एक पटवारी, उन्हीं 10 गांव में एक थाना और दो थानों पर एक बड़ा थाना और उन पांच थानों पर एक तहसील और 10 तहसीलों पर एक जिला नियत किया है, यह वही अपने मनु आदि धर्म शास्त्र से राजनीति का प्रकार लिया है।
वास्तव में महर्षि दयानंद जी महाराज ने ‘वेदों की ओर लौटो’ का आदर्श नारा देकर हमें वेद और वैदिक व्यवस्था की ओर लौटने का भी संकेत किया। उन्हें इस बात पर गर्व होता था कि वैदिक व्यवस्था संसार की सर्वोत्तम व्यवस्था है। इसी व्यवस्था से वह अपने प्यारे भारतवर्ष को सभी प्रकार की सुख सुविधा से संपन्न मजबूत राष्ट्र के रूप में विश्व गुरु के पद पर विराजमान होते देखना चाहते थे। गांवों का शासन किस प्रकार चलेगा और किस प्रकार एक गांव ,तहसील या जिले से जुड़कर रहेगा ? इसकी पूरी व्यवस्था महर्षि मनु द्वारा की गई। उस समय गांव शासन की अंतिम ईकाई होता था। गांव को अपनी स्वाधीनता के पूर्ण अधिकार प्राप्त होते थे। अंग्रेजों के समय से गांवों को शासन प्रशासन के माध्यम से चूसने के उद्देश्य से प्रेरित होकर जोड़ा गया। दुर्भाग्य से गांव को चूसने की अंग्रेजों की वही सोच और मानसिकता आज के शासन प्रशासन की नीतियों में भी दिखाई देती है। उस समय की व्यवस्था थी कि एक-एक गांव का पति गांव में नित्य प्रति जो जो दोष उत्पन्न हों, उन उनको गुप्त रूप से 10 गांवों के पति को विदित करा दें और वह 10 ग्रामाधिपति उसी प्रकार 20 गांव के स्वामी को 10 ग्रामों का वर्तमान नित्य प्रति बता दें।
इसी को प्रशासनिक दक्षता कहते हैं और इसी से प्रशासन सक्रियता के साथ अपने लोगों से जुड़े रहने में भी सक्षम होता है।
आजकल जब तक गांव में कोई महत्वपूर्ण घटना ना घटित हो जाए अर्थात कोई संगीन वारदात ना हो जाए, तब तक गांव शासन प्रशासन की दृष्टि से पूर्णतया उपेक्षित सा पड़ा रहता है। ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है , जिससे प्रतिदिन गांव की हलचल या गतिविधियों की जानकारी शासन प्रशासन के स्तर पर जा रही हो। यद्यपि आज के समय में सोशल मीडिया बड़ी सक्रियता से अपनी सहभागिता निभा रही है, परंतु इस सबके उपरांत भी गांव एक कोने में उपेक्षित सा पड़ा रहता है।
इस प्रकार की प्रशासनिक दक्षता को स्पष्ट करते हुए महर्षि दयानंद जी आगे लिखते हैं कि “और बीस ग्रामों का अधिपति बीस ग्रामों के वर्त्तमान शतग्रामाधिपति को नित्यप्रति निवेदन करे। वैसे सौ-सौ ग्रामों के पति आप सहस्राधिपति अर्थात् हजार ग्रामों के स्वामी को सौ-सौ ग्रामों के वर्त्तमान प्रतिदिन जनाया करें। (और बीस-बीस ग्राम के पांच अधिपति सौ-सौ ग्राम के अध्यक्ष को) और वे सहस्र-सहस्र के दश अधिपति दशसहस्र के अधिपति को और वे दश-दश हजार के दश अधिपति लक्षग्रामों की राजसभा को प्रतिदिन का वर्त्तमान जनाया करें। और वे सब राजसभा महाराजसभा अर्थात् सार्वभौमचक्रवर्ति महाराजसभा में सब भूगोल का वर्त्तमान जनाया करें।”
“और एक-एक दश-दशसहस्र ग्रामों पर दो सभापति वैसे करें जिन में एक राजसभा में और दूसरा अध्यक्ष आलस्य छोड़कर सब न्यायाधीशादि राजपुरुषों के कामों को सदा घूमकर देखते रहैं।”
“बड़े-बड़े नगरों में एक-एक विचार करने वाली सभा का सुन्दर उच्च और विशाल जैसा कि चन्द्रमा है वैसा एक-एक घर बनावें, उस में बड़े-बड़े विद्यावृद्ध कि जिन्होंने विद्या से सब प्रकार की परीक्षा की हो वे बैठकर विचार किया करें। जिन नियमों से राजा और प्रजा की उन्नति हो वैसे-वैसे नियम और विद्या प्रकाशित किया करें।”
“जो नित्य घूमनेवाला सभापति हो उसके आधीन सब गुप्तचर अर्थात् दूतों को रक्खे। जो राजपुरुष और प्रजापुरुषों के साथ नित्य सम्बन्ध रखते हों और वे भिन्न-भिन्न जाति के रहैं, उन से सब राज और राजपुरुषों के सब दोष और गुण गुप्तरीति से जाना करे, जिनका अपराध हो उन को दण्ड और जिन का गुण हो उनकी प्रतिष्ठा सदा किया करे।”
इतिहास कभी मरता नहीं है। इतिहास की जीवंतता को समझने की आवश्यकता है। इतिहास हमारे साथ साथ चलता है और हमारा मार्गदर्शन करता हुआ चलता है। इसके अनुभवों के आलोक में हमको जीवन को गतिशील बनाए रखना चाहिए। बीते हुए अतीत को अपने साथ अनुभव करना और आगत को सुंदर बनाने के लिए संकल्पसील बने रहना इतिहास की हमारे लिए सबसे बड़ी शिक्षा है।
स्वामी दयानंद जी महाराज धर्म और विज्ञान दोनों की सच्चाइयों को हमारे सामने लाना चाहते थे। उन्होंने अपनी उत्तम प्रज्ञा से धर्म और विज्ञान के अन्योन्याश्रित संबंध को स्पष्ट करने में सफलता प्राप्त की। उनकी इस प्रकार की उत्कृष्टतम बौद्धिक क्षमता का विद्वानों ने लोहा माना है। योगी श्री अरविंद ने “दयानंद और वेद” नामक अपनी कृति में लिखा है कि ,”दयानंद की इस धारणा में कि वेद में धर्म और विज्ञान दोनों सच्चाइयों पाई जाती हैं, कोई उपहासास्पद या कल्पनामूलक बात नहीं है। मैं उनके साथ अपनी यह धारणा भी जोड़ना चाहता हूं कि वेदों में विज्ञान की वह सच्चाइयां हैं जिन्हें आधुनिक विज्ञान अभी तक नहीं जान पाया है। ऐसी अवस्था में दयानंद ने वैदिक विज्ञान की गहराई के संबंध में अतिशयोक्ति से नहीं अपितु न्यूनोक्ति से ही काम लिया है।”
राकेश कुमार आर्य
मेरी यह पुस्तक डायमंड बुक्स नई दिल्ली के द्वारा प्रकाशित हुई है । जिसका अभी हाल ही में 5 अक्टूबर 2000 22 को विमोचन कार्य संपन्न हुआ था। इस पुस्तक में सत्यार्थ प्रकाश के पहले 7 अध्यायों का इतिहास के दृष्टिकोण से विश्लेषण किया गया है। पुस्तक में कुल 245 स्पष्ट हैं। पुस्तक का मूल्य ₹300 है।
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