राजा प्रजा के लिए योगक्षेमकारी हो
जब मुसलमानों ने भारत पर आक्रमण करने आरंभ किए तो उस समय उनके पास कोई वैतनिक सेना नहीं होती थी। अधिकतर आक्रमणकारी अपने साथ ऐसे लुच्चे, लफंगे और बदमाश लोगों को अपनी सेना में भर्ती करके लाते थे जिन्हें लूट का आकर्षण दिया जाता था। उन तथाकथित सैनिकों को बताया वह समझाया जाता था कि भारत में चलकर वहां पर लूट मचानी है और उस लूट के माल में तुम्हें पर्याप्त हिस्सा दिया जाएगा। इस लूट के साथ-साथ उन्हें एक आकर्षण यह भी दिया जाता था कि यदि हिंदू काफिरों को मारा गया तो इससे उन्हें गाजी पद मिलेगा और मरने के बाद जन्नत में हुरों के साथ रहने का आनंद भी प्राप्त होगा। कहने का अभिप्राय है कि भारत से जो लूट का माल मिलता था, उसमें उन सैनिकों की भागीदारी होती थी जो सौभाग्य से युद्ध के पश्चात बच गए होते थे। जो युद्ध में काम आ जाते थे, उनका कोई हिस्सा नहीं होता था। प्राचीन काल में भारत वर्ष में भी ऐसी ही व्यवस्था थी कि शत्रु पक्ष से जो सामान युद्ध के पश्चात जीत के रूप में प्राप्त होता था उसे सैनिकों में वितरित कर दिया जाता था।
मुगलों के शासन काल में भारत में अनेक नरसंहार किए गए। इतिहासकारों की मान्यता है कि इस काल में 40 हजार के लगभग हिंदुओं के मंदिर तोड़ दिए गए थे। मुस्लिम सुल्तानों के शासनकाल में ऐसे अनेक उदाहरण देखने में आते हैं जब हिंदुओं को गुलाम बनाकर उनकी मंडियां लगाई जाती थीं। दो दो कौड़ी में हिंदुओं को खरीदा जाता था । यदि उसके बाद भी कोई बच जाता था तो उसे गाजर मूली की तरह काट दिया जाता था। यहां से खरीदे गए हिंदू गुलामों को मुसलमान अपने देश ले जाते थे, और फिर उनके साथ पाशविक अत्याचार क⁷रते हुए उनका शोषण करते थे। उस समय हिंदू महिलाओं के साथ क्या गुजरती होगी ? जब किसी बेटी के साथ पिता के सामने बलात्कार किया जाता था। इस पर कुछ लिखने की आवश्यकता नहीं।
भारत की शालीन परंपरा
मुस्लिमों की लूट की और भारत के राजाओं के द्वारा जीत प्राप्त करके जीत में मिले सामान को सैनिकों व अधिकारियों के मध्य वितरित करने की इस परंपरा में जमीन आसमान का अंतर था। मुस्लिम जहां जनसाधारण को लूटकर या उनके घरों को जलाकर या उनकी हत्या करके जिस लूट के माल को इकट्ठा करते थे वह अपराध और आपराधिक मानसिकता से एकत्र किया जाता था। जबकि भारतवर्ष में ऐसा कुछ भी नहीं किया जाता था।
भारत में पराजित राजा या सेना से जो कुछ सामान प्राप्त होता था उसको ही सैनिकों और अधिकारियों के मध्य वितरित किया जाता था। जनसाधारण को लूटना या किसी भी प्रकार से उसे उत्पीड़ित करना भारत में युद्ध के नियमों के विरुद्ध था और उसे पाप माना जाता था।
छठे समुल्लास में स्थिति स्पष्ट करते हुए स्वामी दयानंद जी लिखते हैं कि “जो जो लड़ाई में जिस- जिस भृत्य या अध्यक्ष ने रथ, घोड़े, हाथी, छत्र ,धन-धान्य, गाय आदि पशु और स्त्रियां तथा अन्य प्रकार के सब द्रव्य और घी ,तेल आदि के कुप्पे जीते हैं, वही उस – उस का ग्रहण करें।”
स्वामी जी महाराज जिस प्रकार की व्यवस्था का प्रतिपादन और समर्थन कर रहे हैं उसमें कहीं पर भी असहाय लोगों पर अत्याचार करने की बात दिखाई नहीं देती। वास्तव में हिंदू चिन्तन या वैदिक दृष्टिकोण में इस प्रकार के अत्याचारों की कल्पना तक नहीं की जा सकती। इसका कारण केवल एक है कि हमारे ऋषियों ने बंधनों से मुक्त करने के लिए जीवन जिया और लोगों को भी बंधनों की कारा से मुक्त कर मुक्ति की ओर बढ़ने के लिए प्रेरित किया। जबकि इस्लाम जैसा विदेशी मजहब प्रारंभ से ही बंधनों में जकड़ कर मर जाने की नीति रणनीति और कार्य नीति को अपनाए हुए था।
मुसलमान शासक और नरमुंडों का ढेर
अरब का भी वैदिक अतीत रहा है। यही कारण है कि उसने बहुत सी वैदिक परंपराओं को देर तक ग्रहण किए रखा। यद्यपि अरब का इस्लाम से परिचय होते ही उसने अपनी पुरानी परंपराओं को घृणास्पद ढंग से लागू करना आरंभ कर दिया। लूट के माल को अपनाना और इसके लिए हत्या करके नरमुंडों का ढेर लगाना – यह इस्लाम के मानने वाले बादशाहों और सैनिकों का एक साधारण सा काम था। हिंदू समाज के लोगों को अनेक बार नरसंहार का सामना करना पड़ा। नरसंहार के पश्चात हिंदुओं के शवों का ढेर लगाना उनके मुंडों को एकत्र कर मीनार बन वाना उस समय मुस्लिम सुल्तानों बादशाह हूं के लिए एक आम बात हो गई थी।
हमारे राजाओं की यह भी परंपरा थी कि जब कहीं इस प्रकार जीत होने पर सामान प्राप्त होता था तो उस जीते हुए सामान में से 16 वां भाग राजा को दिया जाता था और राजा सेनास्थ योद्धाओं को उस धन में से जो सबने मिलकर जीता है, सोलहवां भाग देता था । जो कोई युद्ध में मर गया हो उसकी स्त्री और संतान को उसका भाग दिया जाता था और उसकी स्त्री तथा असमर्थ लड़कों का यथावत पालन किया जाता था। जब उसके लड़के समर्थ हो जाएं तब उनको यथायोग्य अधिकार दिए जाते थे अर्थात उनकी जीविकोपार्जन के लिए नौकरी दी जाती थी। स्वामी दयानंद जी इस संबंध में लिखते हैं कि जो कोई अपने राज्य की रक्षा, वृद्धि, प्रतिष्ठा , विजय और आनंद वृद्धि की इच्छा रखता हो वह इस मर्यादा का उल्लंघन कभी न करे।
राजा प्रजा के लिए योगक्षेमकारी हो। योग-क्षेमकारी स्वाधीनता और योग-क्षेमकारी राजा अर्थात सारा शासन प्रशासन ही प्रजा के लिए सब प्रकार के सुख साधनों की उपलब्धता सुनिश्चित करा सकता है। स्वराज्य का योग- क्षेमकारी स्वरूप ही शासन-प्रशासन या राजा की लोक कल्याणकारी सोच और नीतियों को परिलक्षित करता है। इस सोच को ही आजकल लोक कल्याणकारी राज्य कहा जाता है।
महर्षि मनु का कथन है कि: –
अलब्धं चैव लिप्सेत लब्धं रक्षेत्प्रयत्नतः।
रक्षितं वर्द्धयेच्चैव वृद्धं पात्रेषु निःक्षिपेत्।।
स्वामी दयानंद जी इस श्लोक का अर्थ करते हुए लिखते हैं कि राजा और राज्यसभा अलब्ध की प्राप्ति की इच्छा, प्राप्त की प्रयत्न से रक्षा करे, रक्षित को बढ़ावे और बढ़े हुए धन को वेद विद्या, धर्म का प्रचार ,विद्यार्थी, वेदमार्गोपदेशक तथा असमर्थ अनाथों के पालन में लगावे।
महर्षि मनु ने संसार को न केवल सबसे पहला संविधान दिया बल्कि उन्होंने संसार को सबसे पहला राजनीति शास्त्र भी दिया। राजनीति शास्त्र अर्थात महर्षि मनु की मनुस्मृति राजनीतिज्ञों के लिए एक आचार संहिता का काम करती है। कदम कदम पर इसके माध्यम से राजा को समुचित मार्गदर्शन प्राप्त होता है। आज के संविधानों में जिन प्रावधानों को नहीं रखा गया है, वे प्रावधान भी इस आदि संविधान में प्राप्त होते हैं। यदि आज के संसार के सभी बड़े देशों के संविधानों की अलग-अलग महर्षि मनु की मनु- स्मृति से तुलना की जाए तो ये सारे संविधान बहुत ही निम्न स्तर के सिद्ध होंगे। क्योंकि उनमें शासन की केवल किसी विशेष प्रणाली पर विचार किया जाता है, लेकिन किस प्रकार एक लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना किया जाना संभव होगा ?- इसका विस्तृत उल्लेख इनमें प्राप्त नहीं होता। महर्षि मनु जी व्यवस्था करते हैं कि :-
नास्य छिद्रं परो विद्याच्छिद्रं विद्यात्परस्य तु।
गूहेत्कूर्म इवांगानि रक्षेद्विवरमात्मनः।।
व्यवस्था करते हैं कि : स्वामी दयानंद जी इस श्लोक की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि कोई शत्रु अपने क्षेत्र अर्थात निर्बलता को न जान सके और स्वयं शत्रु के क्षेत्रों को जानता रहे जैसे कछुआ अपने अंगों को गुप्त रखता है वैसे शत्रु के प्रवेश करने के चित्र को गुप्त रखे।
इसके माध्यम से महर्षि मनु ने यह व्यवस्था की है कि राजा को अपने शत्रु की सारी दुर्बलताओं का ध्यान रखना चाहिए। कहने का अभिप्राय है कि राजा का गुप्तचर विभाग इतना सुदृढ़ हो कि वह शत्रु की एक-एक बात को राजा तक पहुंचा दे। जबकि उसकी अपनी योजनाएं इतनी गुप्त रहनी चाहिए कि शत्रु को उनकी भनक तक भी न लग सके।
राकेश कुमार आर्य
मेरी यह पुस्तक डायमंड बुक्स नई दिल्ली के द्वारा प्रकाशित हुई है । जिसका अभी हाल ही में 5 अक्टूबर 2000 22 को विमोचन कार्य संपन्न हुआ था। इस पुस्तक में सत्यार्थ प्रकाश के पहले 7 अध्यायों का इतिहास के दृष्टिकोण से विश्लेषण किया गया है। पुस्तक में कुल 245 स्पष्ट हैं। पुस्तक का मूल्य ₹300 है।
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मुख्य संपादक, उगता भारत